Followers

Sunday, September 30, 2012

हनुमान लीला भाग-६

                                            बुद्धिहीन तनु  जानकर, सुमिरौं   पवन  कुमार 
                                            बल बुधि  बिद्या देहु मोहिं,हरहु कलेस बिकार 

मैं  स्वयं को बुद्धिहीन तन जानकर पवन कुमार  हनुमान जी का स्मरण करता हूँ जो मुझे   बल,बुद्धि और विद्या प्रदान कर मेरे समस्त क्लेश विकारों को हर लें.

साधरणतः जीवन का परम लक्ष्य और उसको पाने का साधन न जानने के कारण हम  'मूढ़' अर्थात बुद्धिहीन ही होते हैं.बुद्धिमान वही है जिसको  जीवन का लक्ष्य और उस ओर चलने के साधन का भलीभांति  पता है और जो परम् लक्ष्य की तरफ चलने के लिए निरंतर प्रयत्नशील भी है.

परन्तु, परम लक्ष्य की ओर चलना इतना आसान नही है.इसके लिए  बल,बुद्धि,विद्या का प्राप्त होना और क्लेशों का हरण होते रहना अत्यंत आवश्यक है.यह सब  हनुमान जी, जो  वास्तव में 'जप यज्ञ'  व 'प्राणायाम' का साक्षात ज्वलंत  स्वरुप ही हैं, के  स्मरण और अवलम्बन से  सरलता से सम्भव  होता है.

हनुमान लीला भाग-५  में हमने हनुमान लीला के सन्दर्भ में श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न श्लोक की व्याख्या का प्रयास किया था:-

                                        निर्मानमोहा  जित संगदोषा,    अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः
                                        द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदु:खसंज्ञैर ,गच्छ्न्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् 

श्रीमद्भगवद्गीता में परम् लक्ष्य को ही 'पदमव्ययं' (पदम् +अव्ययं)  यानि  कभी भी व्यय न होने वाले  पद  को कहा  गया है.यह वास्तव में 'सत्-चित-आनन्द' या राम को पा जाने की स्थिति ही है.पदमव्ययं की तरफ  'मूढ़' होकर कदापि भी नही चला जा सकता. इसके लिए  'अमूढ़ ' होना परम आवश्यक है.इसीलिए तो उपरोक्त
श्लोक में कहा गया है 'गच्छन्ति + अमूढाः  पदम्  अव्ययं  तत्'  यानि 'अमूढ़' ही कभी क्षीण न होने वाले उस 
अव्यय पद की ओर जाते हैं'.

श्रीमद्भगवतगीता में 'मूढ़ता'  की विभिन्न स्थितियों का जिक्र हुआ है.जैसे कि

'विमूढ' -  जिसमें विवेकशक्ति लगभग शून्य हो.

'मूढ़'     - जो थोड़ी बहुत विवेक शक्ति  रखता हो, परन्तु जो अपनी मूढता को  पहचानने में असमर्थ हो.      
             
'सम्मूढ' - जो मूढ़ तो हो परन्तु अपनी मूढता का आत्मावलोकन कर सके.

जैसा कि अर्जुन ने भगवान कृष्ण की  शरण में आने से  पूर्व  'कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः, पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः' कहकर किया.अर्जुन ने अपना आत्मावलोकन  करने के पश्चात स्वीकार किया कि वह कायरतारूपी दोष से ग्रसित है और धर्म को न  जानते हुए 'सम्मूढ' ही है,इसलिए वह भगवान कृष्ण से 'श्रेष्ठ और निश्चित (Permanent)कल्याणकारी' मार्ग बतलाने की  याचना करता है.

अमूढ़  -  जिसकी मूढ़ता सर्वथा समाप्त हो गई है.यानि जो विवेक शक्ति से संपन्न हो जीवन के परम
              लक्ष्य को और उस ओर जाने के साधन को भलीभाँति जानता है.

हनुमान जी की भक्ति से हम  विमूढ़  से मूढ़ , मूढ़ से 'सम्मूढ' और 'सम्मूढ' से  'अमूढ़ ' होकर 'गच्छ्न्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्' यानि जीवन के परम लक्ष्य की ओर जाने का सच्चा और सार्थक प्रयास कर सकते हैं. याद रहे अर्जुन ने भी अपने रथ पर कपिध्वज को ही धारण किया था,जिस कारण वह श्रीमद्भगवद्गीता रुपी दुर्लभ अमृत ज्ञान का रसपान कर सका.

निर्मान,अमोहा, जित्संग दोषा,अध्यात्म नित्या की व्याख्या हमने 'हनुमान लीला भाग-५' में की थी.सुधिजन चाहें तो हनुमान लीला भाग-५ का पुनरावलोकन कर सकते हैं. यहाँ मैं इतना स्पष्ट करना चाहूँगा 'निर्मान' होना अपने को ही मान देने की प्रवृति  से सर्वथा मुक्त हो जाना है. क्यूंकि जब हम स्वयं को कोई मान देते हैं और दुसरे उस मान को अनदेखा कर कोई मान नही देते हैं या उससे कम मान देते हैं तो हम 'अपमानित' महसूस कर सकते हैं और हममें क्रोध या  'Inferiority complex' का संचार हो जाता है.इसी प्रकार यदि हमारे स्वयं के दिए हुए मान से दुसरे हमें अधिक मान देते हैं तो हम अपने को 'सम्मानित' महसूस कर सकते हैं जिससे हममें 'अहंकार' या 'Superiority complex' का संचार हो जाता है. Inferiority या  Superiority complex दोनों ही अध्यात्म पथ में बाधक हैं. परम श्रद्धेय हनुमान जी ने लंका में विभीषण से मित्रता करते वक़्त  उनके साधू लक्षण को पहचानते हुए 'एही सन हठ करिहऊँ पहिचानी' के principle का  अवलंबन किया और  'Superiority complex' का सर्वथा  त्याग करते हुए कहा 'कहहु कवन मैं परम कुलीना,कपि चंचल सबहीं बिधि हीना'.  इसी प्रकार राक्षसों द्वारा बाँधे जाने,लात घूंसे खाते घसीट कर ले जाते हुए भी उन्होंने 'Inferiority complex' का सर्वथा त्याग करके  मन बुद्धि को अपने रामदूत होने के कर्म को करने में यानि 'रावण से मिलने व उसको रामजी  का सन्देश देने ' के लक्ष्य पर ही केंद्रित किये रखा.  

आईये अब उपरोक्त श्लोक में वर्णित  शेष तीन साधनाओं ( विनिवृत्तकामाः, द्वन्द्वैर्विमुक्ताः, सुखदु:खसंज्ञैर  ) की व्याख्या करने की कोशिश करते हैं :-

 विनिवृत्तकामाः -  

परम  अव्ययं पद की ओर अग्रसर होने के लिए हर प्रकार की सांसारिक कामना से   विनिवृत्त होना अति आवश्यक  है.विनिवृत्त कामना का भोग करने से नही हुआ जा सकता बल्कि इससे कामना और भी भड़क उठती है.छोटी कामना का शमन उससे बड़ी,अच्छी और प्रबल कामना को अर्जित करके किया जा सकता है.सत् चित आनन्द को  पाने की कामना जब सर्वोच्च हो अत्यंत प्रबल हो जाती है तो चित्त में सांसारिक कामनाओं का वेग व प्रभाव स्वयमेव ही घटने लगता है.इसलिए  विनिवृत्तकामाः होने के लिए  पदम अव्ययं पद के लक्ष्य को ध्यान  में रखते हुए उसी को पाने की निरंतर कामना करते रहना होगा. 

 द्वन्द्वैर्विमुक्ताः  - 

हृदय में द्वन्द की स्थिति से मुक्ति पाना  अत्यंत आवश्यक है.जब यह करूँ यह न करूँ की स्थिति होती है तो लक्ष्य की ओर अग्रसर होना बहुत ही मुश्किल होता है.इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है  'व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह' यानि असली व्ययसाय करने वाली बुद्धि एक ही होती है,जो कि निश्चयात्मक  कहलाती  है.बुद्धि का असली व्यवसाय है सद विचार करना , सत्-चित-आनन्द का सैदेव चिंतन करना.Temporary या क्षणिक आनन्द का चिंतन बुद्धि को अव्यवसायी बना देता  है. क्यूंकि Temporary आनन्द अनेक और अनंत हो सकते है,जिससे हृदय में द्वन्द की स्थिति पैदा हो जाती है.परन्तु Permanent आनन्द केवल एक   ही होता है,जिसे सत्-चित आनन्द के नाम से जाना जाता है.हर चिंतन कर्म में जब सत्-चित-आनन्द की प्राप्ति का ध्येय रह जाता है तो द्वंदों से मुक्ति  मिलना आसान होता जाता   है.

सुखदु:खसंज्ञैर    -  

जीवन में सुख दुःख की स्थिति कभी भी एक सी नही रहती.जब सब कुछ मन के अनुकूल होता है तो सुख का 
अनुभव होता है और जब भी कुछ मन के प्रतिकूल होता है तो दुःख का अनुभव होता है. अमूढ़  अपने मन की स्थिति को समझ कर मन में परिवर्तन आसानी से कर लेता है. वह मन की प्रतिकूलता को अपने सद-चिंतन से अनुकूलता में परिवर्तित करना जानता है.सुख में वह प्रमादित नही होता और दुःख में भी वह परमात्मा की  किसी छिपी सीख का ही अनुभव करता हुआ सुख का ही अनुभव करता  है. इस प्रकार परम अव्ययं पद की यात्रा अमूढ होकर सुख दुःख का संग लेते हुए धैर्यपूर्वक करनी होती है.  


जैसा की उपरोक्त श्लोक  में बताया गया है उपरोक्त सभी साधनाओं में असीम बल,व्यवसायात्मिका बुद्धि,सद विद्या की प्राप्ति और समस्त कलेशों का हरण होते रहने की परम आवश्यकता है.हनुमान लीला भाग-१,
हनुमान लीला भाग-२ ,हनुमान लीला भाग-३,  हनुमान लीला भाग-४हनुमान लीला भाग-५ और इस पोस्ट  के माध्यम से मैं हनुमान जी का ध्यान करते हुए यही प्रार्थना  करता हूँ कि वे हम सब को  'अमूढ़' बनाकर हम में वांछित बल,बुद्धि,विद्या प्रदान कर हमारे समस्त क्लेशों का हरण कर हमें पदम् अव्ययं पद यानि  राम,पूर्णानन्द की  प्राप्ति की ओर अग्रसर करें.क्योंकि हनुमान जी के लिए कुछ भी दुर्लभ नही है.


                                             दुर्गम काज जगत के जेते ,सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते 
                                             राम  दुआरे तुम रखवारे, होत  न  आज्ञा  बिनु पैसारे 

आशा है हम सब जप यज्ञ और प्राणायाम का आश्रय लेकर हनुमान जी का दामन सदा ही थामें रखेंगें.

                                                                     jai Hanumaan 
                                                                       जय श्री राम
                                                                    Jai Shri Ram
                                                                       जय हनुमान