मन में श्रद्धा के 'जोश' और बुद्धि में विश्वास के 'होश' से 'भवानी और शिव' की कृपा होने लगती है.
भक्त वही है जो परम आनंद से ,परम शान्ति और संतुष्टि से मन और बुद्धि के माध्यम से किसी
भी प्रकार से हृदय में स्थित परमात्मा से जुड जाये. जो नहीं जुड पाता वह 'विभक्त' है, खंडित है,
अशांत और अस्थिर है. श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ४ श्लोक ३९ में वर्णित है
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय
ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छ्ती
अर्थात जो श्रद्धावान है, तत्पर है ,साधनपरायण है और इन्द्रियों को संयत करता है,उसी को परमात्मा या
परमानन्द का ज्ञान भी प्राप्त होता है,जिसको प्राप्त कर वह अति शीघ्र परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है.
और जो विवेकहीन ,श्रद्धारहित व संशय युक्त है उनके लिए श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित किया गया है
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति
नायं लोकोSस्ति न परो न सुखं संशयात्मन :
विवेकहीन , श्रद्धा रहित और संशय युक्त मनुष्य परमार्थ को नहीं पा सकता . वह अवश्य ही नष्ट
भ्रष्ट हो जाता है. ऐसे संशय युक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न ही सुख है.
यूँ तो परमात्मा और परमानन्द से अनेक प्रकार से जुड़ा जा सकता है,परन्तु ,शास्त्रों में मुख्य रूप
से चार प्रकार के भक्त बताये गए हैं जो मन और बुद्धि में श्रद्धा और विश्वास उपार्जित करते हुए
परमात्मा से जुडने का प्रयत्न करते हैं. श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं:-
राम भगत जग चारि प्रकारा , सुकृति चारिउ अनघ उदारा.
चहू चतुर कहू नाम अधारा , ज्ञानी प्रभुहि बिसेष पिआरा
जग में राम के भक्त चार प्रकार के होते हैं.चारों ही पुण्यात्मा,पापरहित और उदार हैं.चारों ही चतुर हैं
जिनको परमात्मा के नाम जप का आधार है.इन चारों प्रकार के भक्तों में 'ज्ञानी' भक्त प्रभु को
विशेष प्यारा है. श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ श्लोक १६ में इन चार प्रकार के भक्तों को निम्न
प्रकार से वर्णित किया गया है:-
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करनेवाले मुनष्य मुझे चार प्रकार से भजते हैं.
अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी.
आईये, उपरोक्त चार प्रकार के भक्तों को कुछ और विस्तार से जानने का प्रयत्न करते है,
१)अर्थार्थी भक्त: ऐसा भक्त जिसको परमात्मा में यह श्रद्धा और विश्वास है कि परमात्मा ही उसकी
हर मनोकामना पूर्ण करने में समर्थ है.यद्धपि वह भी सद् कर्म करता रहता है,परन्तु
भक्ति करते हुए उसका उद्देश्य अपने अर्थ यानि कामना की पूर्ति की तरफ रहता है.
इसीलिए यह भक्त अर्थार्थी कहलाता है. यानि मतलब सिद्ध करने के लिए भक्ति.
अर्थार्थी भक्ति, भक्ति की प्रारंभिक अवस्था मानी जा सकती है,जिसमे भक्त का
परमात्मा के प्रति ज्ञान अति अल्प है,परन्तु,उसको परमात्मा में श्रद्धा है.
२) जिज्ञासु भक्त: ऐसा भक्त जिसकी जब मनोकामनाएं पूर्ण होने लगतीं हैं,या किसी भी अन्य कारण
से जब उसके हृदय में परमात्मा को जानने की यह तीव्र अभिलाषा व उत्कंठा जाग्रत व
बलवती हो जाती है कि जो परमात्मा समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करता है,जिसने यह
चराचर जगत बनाया है,वह कौन है, कैसा है, उसका स्वरुप क्या है,तभी वह सत्संग,
सद् शास्त्रों ,संतजनों का आश्रय ग्रहण कर परमात्मा को जानने का सुप्रयत्न करता है.
३) आर्त भक्त : ऐसा भक्त जिसने जीवन में बहुत दुःख और कष्ट पाए हैं.संकटों में घिरा होने के कारण
अति कातर,दीन और आर्त होकर भगवान से जुड जाता है.उसे पूरी श्रद्धा और विश्वास है
कि परमात्मा ही उसके कष्टों का निवारण कर सकते है. उसका विश्वास और सभी ओर से
उठ चुका होता है.जैसे पौराणिक महाभारत की कथानुसार चीर-हरण के समय द्रौपदी
ने आर्त होकर 'श्रीकृष्ण' को पुकारा था.
४) ज्ञानी भक्त: ऐसा भक्त जिसे परमात्मा के सम्बन्ध में सम्पूर्ण तत्व-बोध हो जाता है,सम्यक ज्ञान
हो जाता है,उसकी कोई जिज्ञासा बाकी नहीं रहती.जिसकी अपनी कोई भी मनोकामना
नहीं रहती.जो परमात्मा को आनंद और प्रेम स्वरुप जानकर नित्ययुक्त हो प्रेमानन्द
में ही मग्न रहता है,पूर्ण तृप्त और परम शान्ति को पा चुका होता है.जिसका अंत:करण
इतना सबल और सुस्थिर हो जाता है कि सुख - दुःख उसके लिए कोई माने नहीं रखते.
चारों प्रकार के भक्तों में,ज्ञानी भक्त के विषय में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ के श्लोक १७ व १८ में
कहा गया है:-
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिश्यते
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:
उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्
उनमें ( चारों प्रकार के भक्तों में ) मुझे में एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति
उत्तम है, क्यूंकि मुझको तत्व से जाननेवाले ज्ञानी को मैं अत्यंत प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यंत
प्रिय है. ये (चारों) भक्त उदार हैं, परन्तु ज्ञानी तो साक्षात मेरा स्वरुप ही है,ऐसा मेरा मत है. क्यूंकि ज्ञानी
की गति केवल मेरे में ही है,मेरे में ही वह मन ,प्राण और बुद्धि को लगाये रखता है.उत्तम गतिस्वरूप
ज्ञानी भक्त मुझमें ही अच्छी प्रकार से स्थित है,यानि वह भी आनंदस्वरूप ही है.
जब हम बिना मन और बुद्धि को परमात्मा में लगाए ,बिना श्रद्धा और विश्वास के परमात्मा की
भक्ति का ढोंग करते हैं,ढोंगी का भेष धारण करते हैं तो श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार मिथ्याचारी
कहलाते है.आज समाज में अधिकतर मिथ्याचारियों का ही बोलबाला है. जिससे आम बुद्धिजीवी
का विश्वास संतों से ही नहीं ,परमात्मा तक से भी उठता चला जा रहा है.बुद्धिमान ढोंगी के भेष
और सच्ची भक्ति का अंतर समझ जाते है,कहा गया है ;
भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित होय
भक्ति जु न्यारी भेष से , यह जानै सब कोय
मिथ्याचार को छोड़ कर यदि हम उपरोक्त चार प्रकार के भक्तों के बारे में सही प्रकार से जाने तो
हम यह तय कर सकते हैं कि अभी हमारी भक्ति किस स्तर की है.भक्त बनने से पहले हमें हर हालत
में सुकृत तो करने ही होंगें. बिना सुकृत किये हम किसी प्रकार से भी भक्त कहलाये जाने के अधिकारी
नहीं हो सकते हैं.
यदि हम अभी अर्थार्थी या आर्त भक्त की श्रेणी में हैं तो परमात्मा को जानने की तीव्र उत्कंठा जगाकर
जिज्ञासु बनने का प्रयत्न भी कर सकते हैं.जिज्ञासु भक्त ही एक न एक दिन राम कृपा से ज्ञानी भक्त
हो जायेगा इस विश्वास से जीवन में आगे बढ़ने का प्रयत्न करें तो ही जीवन का वास्तविक सदुपयोग है
संत कबीरदास जी कहते हैं:-
भक्ति बीज पलटे नहीं ,जो जुग जाये अनन्त
ऊँच नीच घर अवतरै, होय संत का संत
अर्थात की हुई भक्ति का बीज कभी भी निष्फल नहीं होता. चाहे अनन्त युग बीत जाएँ ,भक्तिमान जीव
ऊँच नीच माने गए चाहे किसी भी वर्ण या जाति में उत्पन्न हो,प्रारब्ध वश चाहे किसी भी योनि में उसे जाना
पड़े पर अंततः वह संत ही रहता है. उसका अंत हमेशा अच्छा ही होता है.अर्थात उसकी परम गति हो
उसे परमानन्द की प्राप्ति होकर रहती है.
सीता जन्म आध्यात्मिक चिंतन की पिछली तीनों पोस्टों पर आप सुधिजनों द्वारा की गई टिप्पणियों
से हृदय में इस आशा और विश्वास का सुखद संचार होता है कि हम सभी मिथ्याचार को छोड़कर अपने
हृदय में भक्ति जिज्ञासा की जोत प्रज्जवलित करने में जरूर जरूर सफल होंगें.
यह पोस्ट भी कुछ लंबी हो गई है.इसलिये इस बार बस यहीं समाप्त करता हूँ.आप सुधिजनों ने मेरी
इस लंबी पोस्ट को पढ़ने का जो कष्ट उठाया है ,इसके लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूँ.मैं आप सभी
से यह भी अनुरोध करूँगा कि विषय को भली प्रकार से समझने के लिए आप समय मिलने पर मेरी
पिछली पोस्टों का अवलोकन भी जरूर करते रहें.
अगली पोस्ट में, यदि हो सका तो नाम जप और 'सीता लीला' पर कुछ और आध्यात्मिक चिंतन
करने की कोशिश करूँगा. आशा है आप सब सुधिजन अपने सुविचारों को प्रकट कर मेरा उत्साह
वर्धन करते रहेंगें.
भक्त वही है जो परम आनंद से ,परम शान्ति और संतुष्टि से मन और बुद्धि के माध्यम से किसी
भी प्रकार से हृदय में स्थित परमात्मा से जुड जाये. जो नहीं जुड पाता वह 'विभक्त' है, खंडित है,
अशांत और अस्थिर है. श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ४ श्लोक ३९ में वर्णित है
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय
ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छ्ती
अर्थात जो श्रद्धावान है, तत्पर है ,साधनपरायण है और इन्द्रियों को संयत करता है,उसी को परमात्मा या
परमानन्द का ज्ञान भी प्राप्त होता है,जिसको प्राप्त कर वह अति शीघ्र परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है.
और जो विवेकहीन ,श्रद्धारहित व संशय युक्त है उनके लिए श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित किया गया है
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति
नायं लोकोSस्ति न परो न सुखं संशयात्मन :
विवेकहीन , श्रद्धा रहित और संशय युक्त मनुष्य परमार्थ को नहीं पा सकता . वह अवश्य ही नष्ट
भ्रष्ट हो जाता है. ऐसे संशय युक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न ही सुख है.
यूँ तो परमात्मा और परमानन्द से अनेक प्रकार से जुड़ा जा सकता है,परन्तु ,शास्त्रों में मुख्य रूप
से चार प्रकार के भक्त बताये गए हैं जो मन और बुद्धि में श्रद्धा और विश्वास उपार्जित करते हुए
परमात्मा से जुडने का प्रयत्न करते हैं. श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं:-
राम भगत जग चारि प्रकारा , सुकृति चारिउ अनघ उदारा.
चहू चतुर कहू नाम अधारा , ज्ञानी प्रभुहि बिसेष पिआरा
जग में राम के भक्त चार प्रकार के होते हैं.चारों ही पुण्यात्मा,पापरहित और उदार हैं.चारों ही चतुर हैं
जिनको परमात्मा के नाम जप का आधार है.इन चारों प्रकार के भक्तों में 'ज्ञानी' भक्त प्रभु को
विशेष प्यारा है. श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ श्लोक १६ में इन चार प्रकार के भक्तों को निम्न
प्रकार से वर्णित किया गया है:-
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करनेवाले मुनष्य मुझे चार प्रकार से भजते हैं.
अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी.
आईये, उपरोक्त चार प्रकार के भक्तों को कुछ और विस्तार से जानने का प्रयत्न करते है,
१)अर्थार्थी भक्त: ऐसा भक्त जिसको परमात्मा में यह श्रद्धा और विश्वास है कि परमात्मा ही उसकी
हर मनोकामना पूर्ण करने में समर्थ है.यद्धपि वह भी सद् कर्म करता रहता है,परन्तु
भक्ति करते हुए उसका उद्देश्य अपने अर्थ यानि कामना की पूर्ति की तरफ रहता है.
इसीलिए यह भक्त अर्थार्थी कहलाता है. यानि मतलब सिद्ध करने के लिए भक्ति.
अर्थार्थी भक्ति, भक्ति की प्रारंभिक अवस्था मानी जा सकती है,जिसमे भक्त का
परमात्मा के प्रति ज्ञान अति अल्प है,परन्तु,उसको परमात्मा में श्रद्धा है.
२) जिज्ञासु भक्त: ऐसा भक्त जिसकी जब मनोकामनाएं पूर्ण होने लगतीं हैं,या किसी भी अन्य कारण
से जब उसके हृदय में परमात्मा को जानने की यह तीव्र अभिलाषा व उत्कंठा जाग्रत व
बलवती हो जाती है कि जो परमात्मा समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करता है,जिसने यह
चराचर जगत बनाया है,वह कौन है, कैसा है, उसका स्वरुप क्या है,तभी वह सत्संग,
सद् शास्त्रों ,संतजनों का आश्रय ग्रहण कर परमात्मा को जानने का सुप्रयत्न करता है.
३) आर्त भक्त : ऐसा भक्त जिसने जीवन में बहुत दुःख और कष्ट पाए हैं.संकटों में घिरा होने के कारण
अति कातर,दीन और आर्त होकर भगवान से जुड जाता है.उसे पूरी श्रद्धा और विश्वास है
कि परमात्मा ही उसके कष्टों का निवारण कर सकते है. उसका विश्वास और सभी ओर से
उठ चुका होता है.जैसे पौराणिक महाभारत की कथानुसार चीर-हरण के समय द्रौपदी
ने आर्त होकर 'श्रीकृष्ण' को पुकारा था.
४) ज्ञानी भक्त: ऐसा भक्त जिसे परमात्मा के सम्बन्ध में सम्पूर्ण तत्व-बोध हो जाता है,सम्यक ज्ञान
हो जाता है,उसकी कोई जिज्ञासा बाकी नहीं रहती.जिसकी अपनी कोई भी मनोकामना
नहीं रहती.जो परमात्मा को आनंद और प्रेम स्वरुप जानकर नित्ययुक्त हो प्रेमानन्द
में ही मग्न रहता है,पूर्ण तृप्त और परम शान्ति को पा चुका होता है.जिसका अंत:करण
इतना सबल और सुस्थिर हो जाता है कि सुख - दुःख उसके लिए कोई माने नहीं रखते.
चारों प्रकार के भक्तों में,ज्ञानी भक्त के विषय में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ के श्लोक १७ व १८ में
कहा गया है:-
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिश्यते
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:
उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्
उनमें ( चारों प्रकार के भक्तों में ) मुझे में एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति
उत्तम है, क्यूंकि मुझको तत्व से जाननेवाले ज्ञानी को मैं अत्यंत प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यंत
प्रिय है. ये (चारों) भक्त उदार हैं, परन्तु ज्ञानी तो साक्षात मेरा स्वरुप ही है,ऐसा मेरा मत है. क्यूंकि ज्ञानी
की गति केवल मेरे में ही है,मेरे में ही वह मन ,प्राण और बुद्धि को लगाये रखता है.उत्तम गतिस्वरूप
ज्ञानी भक्त मुझमें ही अच्छी प्रकार से स्थित है,यानि वह भी आनंदस्वरूप ही है.
जब हम बिना मन और बुद्धि को परमात्मा में लगाए ,बिना श्रद्धा और विश्वास के परमात्मा की
भक्ति का ढोंग करते हैं,ढोंगी का भेष धारण करते हैं तो श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार मिथ्याचारी
कहलाते है.आज समाज में अधिकतर मिथ्याचारियों का ही बोलबाला है. जिससे आम बुद्धिजीवी
का विश्वास संतों से ही नहीं ,परमात्मा तक से भी उठता चला जा रहा है.बुद्धिमान ढोंगी के भेष
और सच्ची भक्ति का अंतर समझ जाते है,कहा गया है ;
भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित होय
भक्ति जु न्यारी भेष से , यह जानै सब कोय
मिथ्याचार को छोड़ कर यदि हम उपरोक्त चार प्रकार के भक्तों के बारे में सही प्रकार से जाने तो
हम यह तय कर सकते हैं कि अभी हमारी भक्ति किस स्तर की है.भक्त बनने से पहले हमें हर हालत
में सुकृत तो करने ही होंगें. बिना सुकृत किये हम किसी प्रकार से भी भक्त कहलाये जाने के अधिकारी
नहीं हो सकते हैं.
यदि हम अभी अर्थार्थी या आर्त भक्त की श्रेणी में हैं तो परमात्मा को जानने की तीव्र उत्कंठा जगाकर
जिज्ञासु बनने का प्रयत्न भी कर सकते हैं.जिज्ञासु भक्त ही एक न एक दिन राम कृपा से ज्ञानी भक्त
हो जायेगा इस विश्वास से जीवन में आगे बढ़ने का प्रयत्न करें तो ही जीवन का वास्तविक सदुपयोग है
संत कबीरदास जी कहते हैं:-
भक्ति बीज पलटे नहीं ,जो जुग जाये अनन्त
ऊँच नीच घर अवतरै, होय संत का संत
अर्थात की हुई भक्ति का बीज कभी भी निष्फल नहीं होता. चाहे अनन्त युग बीत जाएँ ,भक्तिमान जीव
ऊँच नीच माने गए चाहे किसी भी वर्ण या जाति में उत्पन्न हो,प्रारब्ध वश चाहे किसी भी योनि में उसे जाना
पड़े पर अंततः वह संत ही रहता है. उसका अंत हमेशा अच्छा ही होता है.अर्थात उसकी परम गति हो
उसे परमानन्द की प्राप्ति होकर रहती है.
सीता जन्म आध्यात्मिक चिंतन की पिछली तीनों पोस्टों पर आप सुधिजनों द्वारा की गई टिप्पणियों
से हृदय में इस आशा और विश्वास का सुखद संचार होता है कि हम सभी मिथ्याचार को छोड़कर अपने
हृदय में भक्ति जिज्ञासा की जोत प्रज्जवलित करने में जरूर जरूर सफल होंगें.
यह पोस्ट भी कुछ लंबी हो गई है.इसलिये इस बार बस यहीं समाप्त करता हूँ.आप सुधिजनों ने मेरी
इस लंबी पोस्ट को पढ़ने का जो कष्ट उठाया है ,इसके लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूँ.मैं आप सभी
से यह भी अनुरोध करूँगा कि विषय को भली प्रकार से समझने के लिए आप समय मिलने पर मेरी
पिछली पोस्टों का अवलोकन भी जरूर करते रहें.
अगली पोस्ट में, यदि हो सका तो नाम जप और 'सीता लीला' पर कुछ और आध्यात्मिक चिंतन
करने की कोशिश करूँगा. आशा है आप सब सुधिजन अपने सुविचारों को प्रकट कर मेरा उत्साह
वर्धन करते रहेंगें.
चार प्रकार के भक्तों को बताने के लिए आपने श्रीमद्भगवद्गीता एवं रामचरितमानस, दोनों का सन्दर्भ दिया है यह बहुत अच्छा लगा|साथ में संत कबीरदास की भी वाणी है|बहुत ही सारगर्भित और ज्ञानवर्धक पोस्ट है|
ReplyDeleteसादर
ऋता
आपकी आज की पोस्ट पढ़ कर मन हर्ष से भर गया है .....ईश्वर पर आस्था प्रगाढ़ हो गयी है .....अब लगता है कुछ पूर्व जनम का किया हुआ हमारे साथ ज़रूर चल रहा है ....और आगे भी हम नेक कार्य करते हुए प्रभु से जुड़े रहें ऐसी प्रेरणा मिल रही है ...बहुत सार्थक आलेख है ...आभार आपका ...!!
ReplyDeleteभक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित होय
ReplyDeleteभक्ति जु न्यारी भेष से , यह जानै सब कोय
भक्ति के विषय में इतना गहन चिंतन और भक्त की कोटियों पर अपने जो विस्तृत रूप से प्रकाश डाला है निश्चित रूप से कहूँगा कि आज कुछ कहने की सामर्थ्य नहीं है .....बस आनंद लेने को मन कर रहा है ...आज तो मन पसंद पोस्ट पढ़कर ह्रदय गदगद है.......जय सिया राम
"चलते -चलते को भूल मत जाना"
बहुत बढ़िया प्रस्तुति ||
ReplyDeleteआपको बहुत बहुत बधाई |
Very well described Rakesh Kumar ji.
ReplyDeleteIn todays world we mostly find the 3rd kind of Bhakta, only when one is in trouble does he remember God.
Loved the Doha by Kabirdas, I love reading His Doha's.
इन चारों श्रेणियों में ज्ञानी की श्रेणी को प्रधान बताने के लिए ही शायद यह कहा गया हो :-
ReplyDeleteजो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे कों होय
अर्थार्थी होने पर जिज्ञासु तो हो ही जाता है मानव, इस के बाद यदि उसे आर्त की श्रेणी में न जाना हो तो ज्ञानी वाली श्रेणी अर्जित कर लेनी चाहिए। परंतु यह भी सत्य है कि;
ईश्वर खुद, अपने उस चिर-प्रेमी को, ज्ञानी बनाए रखने के लिए, 'आर्त' वाली श्रेणी में घुमा कर लाते हैं।
आप के ब्लॉग पर आ कर मन को शांति मिलती है। सत्कर्म जारी रहे। बहुत बहुत साधुवाद।
सुंदर...
ReplyDelete------
क्यों डराती है पुलिस ?
घर जाने को सूर्पनखा जी, माँग रहा हूँ भिक्षा।
बहुत बढ़िया प्रस्तुति.....सुंदर....
ReplyDeleteभक्ति के विषय में बहुत गहन चिंतन| बहुत ज्ञानवर्धक पोस्ट| पढ़ कर मन गदगद हो गया| धन्यवाद|
ReplyDeleteहम तो आपके लेखन के भक्त हैं, बस और कुछ नहीं जानते...
ReplyDeleteजय हिंद...
ज्ञान की रोशनी बिखेर रहे हैं आप।
ReplyDeleteभक्ति की महिमा को बखान करता आपका यह सुंदर लेख अवश्य हम सभी का मार्गदर्शन करेगा... परमात्मा की कृपा असीम है और उसी का फल है कि यह सुंदर सत्संग ब्लॉग के माध्यम से चल रहा है... आभार !
ReplyDeleteश्रद्धा और भक्ति से अंतर्मन का परिष्कार हो जाता है .
ReplyDeleteसुन्दर सत्संग के लिये आभार.
अभी दो दिन पहले ही इन चारों भक्तों के बारे में पढ़ा था रामायण में ही और मेरी भी यही इच्छा हुई थी कि ये सब तक पहुंचनी चाहिए और देखिये ईश्वर ने वो इच्छा पूरी कर दी ...........आपने बहुत ही सरलता से सारा विश्लेषण कर दिया और समझा दिया अब ये हम पर है कि हम क्या बनना चाहते हैं . जो भी भक्ति से भरा है वो ही उसे प्रिय है मगर ये भक्ति जब तक सत्संग ना करो मिलनी संभव नहीं इसके लिए तो किसी संत के चरणों में बैठकर उनका संग करके ही प्राप्त किया जा सकता है शायद तभी प्रभु ने अपने से भी ऊपर अपने संतों को माना है . आप इसी प्रकार लिखते रहिये और हमारा मार्गदर्शन करते रहिये आभारी रहेंगे.
ReplyDeleteचार प्रकार के भक्तों के बारे में सहज विश्लेषण पढकर बहुत आनंद प्राप्त हुआ.. बहुत ही सारगर्भित और ज्ञानवर्धक पोस्ट...सुन्दर सत्संग के लिये बहुत-बहुत आभार...
ReplyDeleteआपके पोस्ट के माध्यम से हम लोग काफी लाभान्वित हो रहे हैं .....आगे भी ये सत्संग चलता रहे
ReplyDeleteराकेश जी आप तो ज्ञान की खान है. आपके सारे आलेख बहुत विचारोत्तेजक और ज्ञानवर्धक होते हैं.
ReplyDeleteभक्ति बीज पलटे नहीं ,जो जुग जाये अनन्त
ReplyDeleteऊँच नीच घर अवतरै, होय संत का संत ......
बहुत ही सारगर्भित और ज्ञानवर्धक पोस्ट है| ब्लॉग के माध्यम से सुंदर सत्संग ... आभार
बहुत गहन विचार लिए रचना बहुत अच्छी और उपयोगी है |आपकी लेखनी को प्रणाम |
ReplyDeleteआप सच में गहन अध्यन के बाद ही इतना अच्छा लिख पाते हैं |
बहुत बहुत बधाई
आशा
निसंदेह ज्ञानी भक्त ही सर्वश्रेष्ठ है । इस मृत्युलोक में ऐसा भक्त होना भी दुर्लभ है । लेकिन प्रयासरत तो रहना ही चाहिए ।
ReplyDeleteइतना ज्ञान कहाँ से पाया आपने !
उम्मीद करता हूँ कि भक्तजन सूखी वाह वाह नहीं कर रहे हैं ।
खुद को ढालना बड़ा मुश्किल होता है ।
सीता जन्म पर अध्यात्मिक चिंतन और रामचरित मानस और गीता के उद्धरण से एक आलोक मेरे मन को भी आलोकित कर रहा है. भक्तों के प्रकार के सम्बन्ध में ऐसी सामग्री पहले नहीं पढ़ी कहीं...अनुपम ...
ReplyDeleteभक्ति बीज पलटे नहीं ,जो जुग जाये अनन्त
ReplyDeleteऊँच नीच घर अवतरै, होय संत का संत
नेट की दुनिया में आपका ब्लाग भी ऐसा ही है......
बहुत बढ़िया प्रस्तुति.....
आपके ज्ञान और भक्ति की समझ परमात्मा की अनूठी देन है, आजकल ब्लागिंग में जहां रोज तू तू मैं मैं होती है वहीं पर आपने ब्लागजगत को भक्ति मय बना दिया है, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
मंदिर परिसर में जाने और इस ब्लॉग में आने पर एक सा ही भाव उत्पन्न होता है व् मन को शान्ति मिलाती है.
ReplyDeleteआपके के ज्ञान और विवेचन के रस में सराबोर हम ने भी आनंद सुख पारा। भक्ति और श्रद्धा का मार्ग ही ऐसा है कि हम सत्संग का लाभ लूटने पहुंच ही जाते हैं।
ReplyDeleteबिनु हरिकृपा मिलहिं नहीं संता....
ReplyDeleteइसपर दृढ आस्था है मेरी..
खैर अभी तो अफ़सोस से भरा है मन कि इतने दिन तक आपके ब्लॉग तक आने का मार्ग न मिला था...
प्रभु ने ही कृपा कर यहाँ पहुँचाया है...
अभी पढ़ा नहीं है पोस्टों को...बस ब्लॉग देख कर ही मन आनंद से ऐसे भरा कि सोचा पहले धन्यवाद ज्ञापन कर लूँ....
अध्यात्म मेरा प्रिय विषय है...और आपने तो इतना कुछ लिख रखा है यहाँ...विस्तार से पढूंगी सबकुछ...
आपका कोटि कोटि आभार...
"सीता जन्म" की अबतक की समस्त कड़ियाँ अभी एक सांस में पढ़ गयी....
ReplyDeleteअभिभूत हूँ, विभोर हूँ....
प्रभु की कृपा आपपर सदैव बनी रहे...
आपका ज्ञानप्रकाश का यह प्रयास वन्दनीय है....
प्रतीक्षा रहेगी अगली कड़ी की...यूँ बाकी पिछली प्रविष्टियाँ भी पढ़ती हूँ, छोड़ने लायक तो हैं ही नहीं वे....
Sir, I feel so connected to the first paragraph. Your posts give me peace of mind. Thanks for such a great post, yet again.
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक और अध्यात्मिक पोस्ट के लिए आपको सादर नमन
ReplyDeleteजब हम संसार में आए हैं और साधारण मनुष्य हैं घर गृहस्थी है तो साफ है कि हमें सुख सुविधाएं अपने परिजनों का कल्याण सब चाहिए । गृहस्थी सबसे बड़ी तपस्या है । यही वो आश्रम है जो बाकी जनों का पालन करता है । फिर चाहे वो मूक प्राणी हों या फिर साधु संत हों या निराश्रित , गरीब हों । गृहस्थी से बड़ी तप कोई नहीं है । ज्ञान का मार्ग बहुत लंबी साधना के बाद मिलता है ष और साधारण मनुष्य यानि सद्गृहस्थ की भक्ति का मार्ग साधु संतों योगियों तपस्वियों सेअलग है । औऱ वो अगर भगवान से अपने लिए नहीं मांगेगा तो किससे मांगेगा । भगवान कृष्ण ने ये भी तो कहा है कि जो मुझे जिस रूप में भजता है उसी रूप में पाता है । आपने व्याख्या बहुत अच्छी दी है । धर्म , अर्थ काम मोक्ष में पहले धर्म ही आता है इसलिए आपने देखा होगा कि आपके परिवार में भी आपकी दादी , मां और पत्नी जितना भगवान को मानती होंगी , श्रद्धा रखती होंगी उतनी शायद कोई संन्यासी भी नहीं रख पाता होगा । गृहस्थ रह कर धर्म का पालन करना ही सबसे बड़ी भक्ति है ।
ReplyDeleteभक्त की जानकारी कई बार पढी और बहुत कुछ सीखने को मिला। संयोग की बात है कि मेरी एक शृंखला के एक अप्रकाशित अंश में भक्त और विभक्ति का सन्दर्भ ठीक ऐसा ही आया था।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा है आपने ! गहरे भाव के साथ ज़बरदस्त प्रस्तुती!
ReplyDeleteआदरणीय गुरु जी मेरा सादर नमस्ते स्वीकार कीजिये!
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक चिंतन.........
आप एक सदगुरु का बहुत सुन्दर कार्य कर रहे हैं और ब्लॉग में हम जैसे भटके हुवे नव ज्ञानिओं को अपना अमृत रूपी सत्संग भी दे रहे हैं...
जब भी मै आपके पोस्ट पे आता हूँ तो मेरे ज्ञान में विस्तार ही होता है आपका यह आध्यात्मिक चिंतन हमारे ज्ञान को बढाता ही हैं. आपको मेरा सादर नमन!!!
अध्ययनपरक पोस्ट। बधाई।
ReplyDeleteसार्थक, आध्यात्म से भरी ज्ञान तंतुओं को खोलने वाली लाजवाब पोस्ट ... पढ़ कर लगता है की हम तो शायद किसी भी श्रेणी लायक नहीं हैं ... और अधिकांश अर्थाएर्थी ही हैं आज समाज में ...आपके लिखे के एक अंश को भी जीवन में उतार सकें तो जीवन सफल और सएथक हो जाएगा ....
ReplyDeleteअध्यात्म ्दर्शन पर आपका ज्ञान और विवेचन आत्मविभोर कर देता है।
ReplyDeleteबहुत कुछ सीखने को मिलता है। आपके प्रस्तुत दर्शन पर और विवेचन करना सामर्थ्य से अधिक दर्शाना होगा। अतः बस सत्संग लाभ ले रहे है।
बहुत ही गहनता से आपके द्वारा यह श्रेष्ठ कार्य किया जा रहा है ..आभार ।
ReplyDeleteभक्ति भी भगवान की कृपा के बिना नहीं मिलती राकेश भैया, और आप पर तो उनकी कृपा बरस रही है | यहाँ आने से उस वर्षा की ठंडक हम तक भी पहुँचती है .....
ReplyDeleteसबसे पहले क्षमा... कि देर से आई... और आपको मुझे कहना पड़ा...
ReplyDeleteसो सॉरी...
और आपकी पोस्ट ज्ञानवर्धक तो रहती ही हैं... और हमारी generation के लिए अति उपयोगी एवं जरूरी भी... क्योंकि इन जटिल बातों का लेख खोजना ज़रा मुश्किल है और जो लेख प्राप्त भी होते हैं, वहां सारी जानकारियाँ इस तरह से synchronise नहीं होतीं...
फ़िर... भक्ति कहाँ से शुरू हुई, भगवान की निकटता, अध्यात्म... सब-कुछ... यहीं से तो "स्व" का ज्ञान होता है...
और इन बातों को जानना जरूरी इसलिए भी है, क्योंकि ये हमारा इतिहास है... हमारा अपना इतिहास, जिसने हमें यहाँ तक पहुँचाया...
बहुत-बहुत आभार...
सुन्दर बहती ज्ञानधारा।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, सार्थक चिंतन। ताऊ जी की बात से सहमत।
ReplyDeleteपतित पावनी गंगा सी पवित्रता लिए हुए आपका ब्लॉग....इसको पढ़ते-पढ़ते गंगा में दुबकी लगाने सा आनंद मिलता है.....!! ईश्वर करे कि इसी तरह भागीरथी की धारा निरंतर प्रवाहित होती रहे आपकी लेखनी से...!!
ReplyDeleteसार्थक विवेचन ... आभार इन भाव विभोर करती ज्ञानवर्धक पोस्ट्स के लिए
ReplyDeleteसुंदर सुंदर अति सुंदर....भक्ति मार्ग...
ReplyDeleteaadhyaatmik chintan padhkar achchha laga. bahut shubhkaamnaayen.
ReplyDeleteभाव विभोर हो गए. आपकी पोस्टें संग्रहनीय हैं.
ReplyDeleterochak aur gyanwardhak jaankari...
ReplyDeletesir, isko padhne me kasht nahi hota balki aanand ki anubhuti hoti hai......
aswasthta ke kaaran wilamb se blog par aa paya....lekin wapas aaya to bahut kuchh achchha paaya......
aabhar
आपके ब्लॉग पर आकर आनंद ही आनंद मिलता है । चार प्रकार के भक्तों में हम से साधारण जन या तो अर्थार्थी या आर्ती ही हो सकते है जो संकट पडने पर भगवान को पुकारते हैं या मनोकामना पूरी करवाने के लिये । जिज्ञासू और ज्ञानी ..........तो आप ही लगते हैं । हर बार की तरह सुंदर आलेख ।
ReplyDeleteअर्थार्थी भक्त
ReplyDeleteजिज्ञासु भक्त
आर्त भक्त
ज्ञानी भक्त
बढिया लगा भक्तों के प्रकार और विवेचना पर..
अर्थात की हुई भक्ति का बीज कभी भी निष्फल नहीं होता. चाहे अनन्त युग बीत जाएँ ,भक्तिमान जीव ऊँच नीच माने गए चाहे किसी भी वर्ण या जाति में उत्पन्न हो,प्रारब्ध वश चाहे किसी भी योनि में उसे जाना पड़े पर अंततः वह संत ही रहता है. उसका अंत हमेशा अच्छा ही होता है.अर्थात उसकी परम गति हो उसे परमानन्द की प्राप्ति होकर रहती है.
ReplyDeleteye padh kar tassali hui Prabhu apne sharan mein hi rakhenge, vishwas hai ye.
shubhkamnayen
राकेश जी अति सुंदर प्रस्तुति। आपने सर्वथा सत्य कहा, बिना मन के पाखंड को समाप्त किये, अपनी कथनी-करनी को विभेद को समाप्त किये , और प्रभु में निश्छल श्रद्धा-विश्वास के बिना प्रभु के प्रति भक्ति दिखावा मात्र ही है। प्रभु स्वयं भी तो कहते हैंछ
ReplyDeleteमोहि कपट छल-छिद्र न भावा।
कि कपटी व छली व्यक्ति उन्हें कतई नहीं भाते।
प्रभु हमारे मन व हृदय में बालसुलभ सरलता व निश्चलता का स्थाई वास करें , यहीं हमारी उनसे निरंतर प्रार्थना होनी चाहिये।
राकेश जी सबसे पहले तो आपको कहानी पढने व उत्साह बढाने वाली टिप्पणी देने का बहुत धन्यवाद ।
ReplyDeleteआपका ब्लाग देखा । आपने सही लिखा है कि बिना श्रद्धा के भक्ति नही हो सकती ।
धन्यवाद आध्यात्मिक चिंतन पढवाने के लिये ।अपने बीएड के प्रशिक्षणार्थियों को कई कुछ ऐसे उदाहरण भी देने पडते है।
ReplyDeleteराकेश जी कंदर्प का अर्थ क्या होता है अगर आपको पता हो तो बताने की कृपा अवश्य करेंगै।
बहुत अच्छा लिखा है आपने काफी ज्ञानवर्धक पोस्ट है आपकी यहाँ आकार बहुत ज्ञान प्राप्त हुआ धन्यवाद....
ReplyDeleteकुछ दिनों से मन में अलग तरह की हलचल थी,मंथन चल रहा था! मन अशांत था ,ऐसे में भक्तों की भक्ति पर विस्तार से आपने बौछार करके ठंडक दी है!मैं तो इतना ही जानता हूँ कि ईश्वर की बनाई किसी चीज़ से घृणा करना और निज के लिए कुछ माँगना भक्ति नहीं है.यदि वह ईश्वर है तो आपकी आवश्यक ज़रूरतों को समझता है,पूरा भी करता है !
ReplyDeleteदिल दिमाग को छू जाने वाली पोस्ट..... अगली कड़ी का बेसब्री से इन्तिज़ार है
ReplyDelete.
ReplyDelete@--हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करनेवाले मुनष्य मुझे चार प्रकार से भजते हैं.
अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी।
राकेश जी ,
चार प्रकार का भक्त-वर्णन बहुत विशेष अच्छा लगा । भक्ति कैसी करनी चाहिए इसकी भी दिशा मिली।
.
विवेकहीन , श्रद्धा रहित और संशय युक्त मनुष्य परमार्थ को नहीं पा सकता . वह अवश्य ही नष्ट
ReplyDeleteभ्रष्ट हो जाता है. ऐसे संशय युक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न ही सुख है.....
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति .....आपकी ये पंक्तिया तो दिल को छु गयी और मन मै नयी शांति महसूस हुई .
जिस तरह आपने छन्दों का वर्णन किया है वोह बहुत ही उम्दा है . सुन्दर प्रस्तुतु के लिए आभार .
bahut bareeki se vishleshan kiya hai. sunder, gehen prastuti. aabhar.
ReplyDeleteभक्ति-मार्ग पर भी प्रेम ही साधन होता है.भक्त जब मंदिर पर पहुंचता है तो अचानक चकित हो जाता है कि ध्यान की लौलीनता उपलब्ध हो गयी है .चाहे भक्त को जिस किसी वर्ग में हम विभक्त करें . आपको कोटि-कोटि नमन इतनी सुन्दर पोस्ट के लिए.
ReplyDeleteRakesh Ji.. Pahle bhi aapki post padhi hai.. bahut acchhi prastuti.. Aabhar.. Ab apki post prarambh se padhna shuru karoonga.. Bahut anandit man ke saath kah raha hun.. aabhar...
ReplyDeleteहर पोस्ट में इतना सुन्दर विश्लेषण होता है कि यही कहूँगी ..यह है इ-सत्संग
ReplyDeleteआपको पढने से मन शुद्ध हो जाता है। बहुत ही अच्छी जानकारी है।
ReplyDeleteआपका चिन्तन, मनन एवम विवेचन अद्भुत व मनोहरी होत है साधुवाद
ReplyDeleteआज बहुत दिनों बाद फिरसे आपके यहाँ आना हुआ और आजकी पोस्ट पढकर दिल खुश हो गया आज आपने चार तरह के भगतों कि व्याख्या को बहुत खूबसूरती दर्शया मेरा भी यही मानना है देने - लेने वाला तो वही है फिर क्यु उसको बार - बार परेशां करना बल्कि जो उसने दिया है उसमे हो मस्त रहो और बिना किसी मांग के उसकी भगति करो जो किस्मत में होगा वो जरूर मिलेगा फिर क्यु स्वार्थी होना क्यु न निस्वार्थ भाव से उससे जुड़ा जाये | बहुत ही सुन्दर पोस्ट |
ReplyDeleteहमारे ग्रन्थ साहेब में लिखा हें की --' जो तेरा हें वो कोई छीन नहीं सकता --जो तेरा नहीं वो तुझे मिल नहीं सकता ? ' सही कहा आपने राकेश जी ..dhanywad!
ReplyDeleteगुरु जी प्रणाम - रीडिंग लिस्ट में नजर ही नहीं गया ! जब देखा तो अचंभित रह गया क्योकि आप की यह पोस्ट पांच दिन पूरी कर ली है ! देर से आने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ - " मिथ्याचार को छोड़ कर यदि हम उपरोक्त चार प्रकार के भक्तों के बारे में सही प्रकार से जाने तो
ReplyDeleteहम यह तय कर सकते हैं कि अभी हमारी भक्ति किस स्तर की है.भक्त बनने से पहले हमें हर हालत
में सुकृत तो करने ही होंगें. बिना सुकृत किये हम किसी प्रकार से भी भक्त कहलाये जाने के अधिकारी
नहीं हो सकते हैं. " --- इसे पढ़ने के बाद मुझे समझ में नहीं आ रहा है की मै अपने को किस श्रेणी में गिनू ! वैसे जो भी हूँ उसमे और सूधार की प्रयत्न करनी पड़ेगी ! मेरे लिए यह (आप की लेख ) लेख काफी प्रेरणादायी है ! भविष्य की ओर उतसाहित करती हुयी !
भक्ति के विभिन्न रूपों का विषद और सारगर्भित विश्लेषण..यद्यपि ज्ञान भक्ति का मार्ग कठिन है, लेकिन इस मार्ग पर चलने का प्रयास तो किया ही जा सकता है..बहुत सुन्दर भक्तिमय और ज्ञानवर्धक आलेख...आभार
ReplyDeleteचारों प्रकार के भक्तों के बारे में आपने इतना सूक्ष्म विवेचन किया है कि मन प्रसन्नता से भर गया ! आपके आलेख मन के संशय और कुतर्कों को पल भर में मिटा देते हैं ! इतनी सरलता से सभी शंकाओं के निराकरण के लिये आपका आभार एवं धन्यवाद ! 'सुधीनामा' और 'उन्मना' पर आपकी प्रतीक्षा है !
ReplyDeleteभक्ति के विषय में अच्छा ज्ञान मिला अपने को भी किसी श्रेणी में खोजा !आपके ब्लॉग पर सुबह सुबह बहुत अच्छा आध्यात्मिक ज्ञान मिला !आपका दिन मंगलमय हो !
ReplyDeleteआपने सुन्दर विवेचन किया है। गीता और रामचरित मानस से उद्धृत पंक्तियों में कुछ टंकण की अशुद्धियाँ हैं। उन्हें ठीक कर देना अच्छा रहेगा। आभार।
ReplyDelete@परन्तु ज्ञानी तो साक्षात मेरा स्वरुप ही है, ऐसा मेरा मत है क्यूंकि ज्ञानी की गति केवल मेरे में ही है, मेरे में ही वह मन, प्राण और बुद्धि को लगाये रखता है। उत्तम गतिस्वरूप ज्ञानी भक्त मुझमें ही अच्छी प्रकार से स्थित है, यानि वह भी आनंदस्वरूप ही है।
ReplyDeleteज्ञान की उपासना ब्रह्म की उपासना के समान है।
मन को शांति प्रदान करता आलेख।
बहुत अच्छी जानकारी....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति ||
ReplyDeleteआपको बहुत बहुत बधाई |
बहुत ही अच्छी शृंखला आपने शुरू की है। बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteRakeshji, namaskar,
ReplyDeleteAapke blog par aayi hoon, yeh toh lekh hai aur thoda lamb bhi, toh fursat se padhungi. Kya aap kavita bhi likhte hai?
badhiyaa
ReplyDeletekhud ko bhakt kahti thi pr pakt ke prakar hi pata nahi the aapne bataya bahut hi achchha kiya jyan chakshu khul gaye.
ReplyDeletedhnyavad
saader
rachana
भक्तो मालूम था, भक्तो के प्रकार भी होंगे आपके ब्लॉग से मालूम पड़ा. मेरे लिए ये नूतन जानकारी है.
ReplyDelete-------------------------------
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है
ड्रैकुला को खून चाहिए, कृपया डोनेट करिये !! - पार्ट 1
इस अत्यंत सुन्दर विश्लेषणात्मक और जानकारीपूर्ण लेख के लिए आभार ... मेरा १११ वां फोलोवर बनने के लिए तहे दिल से शुक्रिया ...
ReplyDeleteवैसे मई आपका १५६ वा फोलोवर हू ... १ अलग रखके ५+६ = ११, यानि कि १११ :)
ReplyDeleteबढ़िया विश्लेषण व जानकारी...
ReplyDeleteहोंठो से छू लो तुम, मेरे गीत अमर कर दो ;- जगजीत सिंह
ReplyDeleteइक बार चले आओ, अब और न तडपाओ |
रहमत ज़रा बरसाओ, फ़रियाद न ठुकराओ ||
रस्ता तेरा ताकता हूँ, सोता हूँ न जगता हूँ |
दिन रात भटकता हूँ, दर्शन को तरसता हूँ ||
दर्शन दिखला जाओ, अब और न तडपाओ |||
इन्सान बेचारा हूँ, तकदीर का मारा हूँ |
मैं दास तुम्हारा हूँ, संसार से हारा हूँ ||
करुना ज़रा दिखलाओ, अब और न तडपाओ |||
तेरी शान निराली है, झोली मेरी खाली है |
नादान रहा बरसों, अब होश संभाली है ||
दामन मेरा भर जाओ, अब और न तडपाओ |||
'शशि' सीस झुकता है, आवाज़ लगाता है |
महिमा तेरी गाता है, लोगों को सुनाता है ||
आ जाओ, अब आ जाओ, अब और न तडपाओ |||
सुहानी चाँदनी रातें, हमें सोने नहीं देतीं ;- मुकेश
तुम्हारी बाँसुरी कि धुन, कन्हैया दिल चुराती है |
इसे सुन-सुन के हम मचलें, मगर ये मुस्कुराती है ||
सुबह से शाम तक ब्रिज में, बहुत ऊधम मचाते हो |
कभी तुम तोड़ दो मटकी, कभी माखन चुराते हो |
शरारत पे तुम्हें अपनी, नहीं क्यूँ शर्म आती है |||
कभी तुम रूठ जाते हो, कभी तुम माँ जाते हो |
छवि लगती सलौनी है, कभी जब मुस्कराते हो ||
ज़रा जल्दी से घर जाओ, यशोदां माँ बुलाती है |||
तर्ज़:- ज़िन्दगी की न टूटे लड़ी, प्यार कर लो, घडी दो घडी |
भजन :- मेरे कान्हा की, सुन्दर छवि | लिख न पाए कोई भी कवि ||
देख के जिसको, मिलती ख़ुशी | उसके होंठो में है बांसुरी ||
1 शाम रंग, शोख जिसकी अदाएं , हर कोई लेना चाहे बलाएँ |
तान बंसी की, जब वो सुनाएँ, जब वो जंगल में ग्या चराएं ||
सबके दिल में, जो है बस गई, मेरे कान्हा की, सुन्दर छवि |||
2 खूब गोकुल में, उधम मचाए,मटकियाँ तोड़े, माखन चुराए |
ग़र शिकायत, कोई ले के आये, मुस्कुराए, बहाने बनाए ||
हर किसी को, दे कान्हा ख़ुशी , मेरे कान्हा की, सुन्दर छवि |||
3 आओ कान्हा को मिल कर बुलाएं, मुरली वाले को, दिल में, बसायें|
सर झुकाएं, और आशीष पायें |मिल के नाचें और उत्सव मनाएं ||
याद रक्खो उसे हर घडी, मेरे कान्हा की, सुन्दर छवि |||
भक्ति की ज्योत जलाती प्रस्तुति!
ReplyDeleteराकेश जी नमस्कार। आपने मेरे ब्लाग को ज्वाइन किया।इसके लिये आपका बहुत-बहुत धन्य्वाद्। आपके ब्लाग पर आकर लगा पहले क्यों नही आयी।भक्त के इतनी सारे प्रकार जानकार मन अभिभूत हुआ। इतने अछे आलेख के इये बधाई आपको। राकेश जी जी आपका मेरे अन्य ब्लाग-शब्द्कुन्ज व जनदर्पण में भी स्वागत है। टिप्पणी में त्रुटियां भी बताएं। आप बरिष्ठ हैं। मै इस सिद्धान्त में विश्वास करती हुं-निदंक नियरे राखिये--- आगे तो आपको पता ही होगा बड़ी प्रसिध्द लाइनें है।जयहिन्द ।
ReplyDeleteनमस्कार..मैं अपने कथनानुसार आपके ब्लॉग पर आ गयी ...लेख बहुत सारी जानकारी देने वाला है...भक्तों की श्रेणियों का विस्तार से वर्णन एवं विवेचन किया गया है...बधाई
ReplyDeleteवाह,पढ़कर मन तृप्त हो गया.
ReplyDeleteआपका ब्लॉग बहुत सुंदर है, मैं तो यहां आता ही रहता हूं. मेरे ब्लॉग का १०१वां फॉलोअर बनने के लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद,(वैसे धन्यवाद शब्द बहुत छोटा है), आप जैसे ज्ञानी का मेरे ब्लॉग पर आने से सच में मैं गौरांवित हूँ,
ReplyDeleteसाभार,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
परमात्मा से जुड़ने का उपाय .....चार प्रकार के भक्त
ReplyDeleteगहन अध्यात्म , सहज ढंग से .....
पढ़कर एहसास होता है कि हम तो यूँ ही मृगतृष्णा में भटक रहे हैं |
आपका लेखन ...दूसरों से भिन्न और शत प्रतिशत सार्थक लेखन है |
नमन है आपकी लेखनी का ....
आदरणीय राकेश जी
ReplyDeleteगीता और रामचरित मानस से उद्धृत पंक्तियों बेहद खूबसूरत बहुत ही अच्छा लिखा है!!
संत हैं आप ....आभार आपका !
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित लेखमाला रही.सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन... धर्म और दर्शन की सम्मिलित सुन्दर मीमांसा रही. साधुवाद है आपको.
ReplyDeleteअब 'सीता लीला' पर कुछ और आध्यात्मिक चिंतन की प्रतीक्षा रहेगी.
आदरणीय राकेश जी,
ReplyDeleteबहुत देर के बाद आपकी पोस्ट पढी.
बस आनंद में मग्न हूँ.
चारों प्रकार के भक्तों की खूब व्याख्या की है आपने.
लेकिन भक्त होने से अच्छा है याचक होना.
प्रिय विशाल भाई,
ReplyDeleteआपने मेरे ब्लॉग पर दर्शन दिए,यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है.
भक्त के सम्बन्ध में जैसा 'रामचरितमानस' व 'श्रीमद्भगवद्गीता' में वर्णित है मैंने उसीका उल्लेख कर व्याख्या की है.
भक्त के माने मेरी समझ में 'जुडना' है.
जो जुडा नहीं वह 'विभक्त' है.
बिना जुड़े 'याचक' हो सकते हैं क्या,
समय मिले तो समझाईयेगा .
आभार.
भक्तों के विषय में विस्तार से लिखी पोस्ट अच्छी लगी ... इस ज्ञान के लिए आभार
ReplyDeleteप्रेरणादायक, ऊर्जावान, सकरात्मक..
ReplyDeleteHindi samaj ko samarpit apka yeh prayas sarahneey hai.
ReplyDeleteधन्य हुए...अद्भुत!!
ReplyDeleteसारगर्भित और ज्ञानवर्धक पोस्ट .........
ReplyDelete100 कमेंट !
ReplyDeleteमेरे कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं :)
aadarniy sir
ReplyDeletesarvpratham aapko bahut bahut hardik dhanyvaad jo aap meri khushi me shamil hue.bahut hi achha laga.aaj- kal bahut hivilamb ho ja raha hai koi bhi post karne me tatha comments dene me .
xhama-prarthini hun.
kya karun idhar swasthy se itna pareshan ho gai hun ki kuch bhi sujhta hi nahi.
aaj bahut dino baad aapke blog par aai hun.
gahan chintan ka swaroop padhne ko mila.
sach! bhakti ke itne roop bhi hote hain yah bhi aapse hi jaan pai hun.aap jo bhi likhte hain lagta hai sagar ki gahrai tak utar jaate hain.
kabhi -kabhi aaschary hota hai ki aap kaise
itni badhiya vykhya kar lete hain ki padhne wala usme duub jaaye.
bahut bahut hi achha laga
agar comment dene me vilamb ho jaaye to kripya meri majburi ko samjhte hue aap mujhe xhma karenge aisa mujhe vishwas hai.
hardik badhai
yun hi aap mera marg -darshan karte rahiyega
dhanyvaad sahit
poonam
Aapki posts padh kar atmachintan karne mein asani hoti hai. Ek post bar bar padhne se bhi mann nahi bharta..
ReplyDeleteSadar Pranam, Aapki agli prastuti ke intezaar mein.
प्रिय श्रेष्ठ माफ़ी चाहते हैं,समय से संवाद नहीं करने का ,कारन ,अपनी एक ,पुस्तक प्रकाशन सम्बन्धी व्यस्तता /थोडा अवसर मिला आप लोगों से खुश हूँ,पढ़कर ,रूबरू होकर / उन्नत ,सृजन व विचारों से ओत -प्रोत प्रयास सफल है ,बधाई स्वीकार करें ..../
ReplyDeleteAwesome read.... n very informative.
ReplyDeleteHow brilliantly u make us read those complex things.
they r mantras of life !!!
ज़रूरी काम में व्यस्त रहने के कारण मैं काफी समय से ब्लॉग जगत से दूर रही! आज सुबह सुबह आपके ब्लॉग पर आकर बहुत अच्छा लगा! भक्ति से परिपूर्ण प्रेरणादायक और ज्ञानवर्धक पोस्ट रहा! पढ़कर मन को बहुत शांति मिली!
ReplyDeleteमेरे सभी ब्लोगों पर आपका स्वागत है! आपके लिए ख़ास शाकाहारी रेसिपे पोस्ट किया है !
aap jaisa gyan rakhn ae wala vyakti yahan net per hai or hum sab ko gyan baant raha hai ye hamarae liyae prasannta or achraj ka vishay hai... bhakt ke prakaar...itna gahan adhyayan...wakai aap prashansa ke paatr hain...apki agli post,'sita leela' ka intezar kar rahi hoon...
ReplyDeleteमुझे में एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति
ReplyDeleteउत्तम है, क्यूंकि मुझको तत्व से जाननेवाले ज्ञानी को मैं अत्यंत प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यंत
प्रिय है. वास्तव में भगवत गीता में प्रभु श्रीकृष्ण जी ने चारों प्रकार के भक्तों अत्यंत दयालु माना है परन्तु उनमे से ज्ञानी भक्त को तो साक्षात अपना स्वरुप ही माना है है. क्यूंकि ज्ञानी
की गति केवल श्रीकृष्ण में ही है,उनमे में ही वह मन ,प्राण और बुद्धि को लगाये रखता है.उत्तम गतिस्वरूप
ज्ञानी भक्त श्रीकृष्ण में ही अच्छी प्रकार से स्थित है,यानि वह भी आनंदस्वरूप ही है.
अत्यंत ही प्रेरणादायी भक्ति पूर्ण आलेख आपको शुभ कामनाएं एवं सादर अभिनन्दन !!!
*(आवश्यक कार्य में ब्यस्त होने के कारण विलम्ब से आने के लिये क्षमा याचना सहित )
श्रीप्रकाश डिमरी
spdimri.blogspot.com
♥
ReplyDeleteआपको सपरिवार
नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
bhut acha .
ReplyDeleteआपको नवरात्रि की ढेरों शुभकामनायें.
ReplyDelete... नवरात्री की हार्दिक शुभकामनाएं....
ReplyDeleteआपका जीवन मंगलमयी रहे ..यही माता से प्रार्थना हैं ..
जय माता दी !!!!!!
मुझे में एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति
ReplyDeleteउत्तम है, क्यूंकि मुझको तत्व से जाननेवाले ज्ञानी को मैं अत्यंत प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यंत
प्रिय है. वास्तव में भगवत गीता में प्रभु श्रीकृष्ण जी ने चारों प्रकार के भक्तों अत्यंत दयालु माना है परन्तु उनमे से ज्ञानी भक्त को तो साक्षात अपना स्वरुप ही माना है है. क्यूंकि ज्ञानी
की गति केवल श्रीकृष्ण में ही है,उनमे में ही वह मन ,प्राण और बुद्धि को लगाये रखता है.उत्तम गतिस्वरूप
ज्ञानी भक्त श्रीकृष्ण में ही अच्छी प्रकार से स्थित है,यानि वह भी आनंदस्वरूप ही है.
अत्यंत ही प्रेरणादायी भक्ति पूर्ण आलेख आपको शुभ कामनाएं एवं सादर अभिनन्दन !!!
*(आवश्यक कार्य में ब्यस्त होने के कारण विलम्ब से आने के लिये क्षमा याचना सहित )
श्रीप्रकाश डिमरी
spdimri.blogspot.com
आपको एवं आपके परिवार को नवरात्रि पर्व की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें !
ReplyDeleteनमस्कार राकेश जी, सबसे पहले आप अपनी शिकायत दूर कीजिये की मै आपके ब्लॉग पर आती नही। आपकी जानकारी के लिये बता दूँ की मै आपका ब्लॉग काफ़ी समय पहले पढ़ चुकी थी। बस कमैंट देने में ही कंजूस हूँ:) आशा है आप क्षमा करेंगें।
ReplyDeleteसादर
इतने लम्बे कमेंट पेज को देख कर सबसे नीचे कमेंट करने का मन नही होता.. :)
ReplyDeleteभक्तों की जो चार श्रेणी आपने बताई है. उसमें से ८ साल पहले मैं पहली केटेगरी का था..
फिर शनिचर का काल चढ़ा.. माता-पिता की बात मानकर.. विपत्तियों में पुकारा..
फिर और फिर और..
और अब विपत्त्यों ने ऐसी जगह ला छोड़ा है कि ईश्वर की सत्ता पर उमड़ रहे सारे भाव उदासीनता की तरफ मुड़ गये हैं..
अब ऐसा प्रतीत होता है कि जितनी खुशामद ईश्वर की करने में गुजारी.. भौतिक रूप से.. अब जरा मानसिक शक्ति को परिष्कृत करें और स्वयं के बारे में कुछ अच्छा विचार करे.. ताकि विपत्तियों से मुक्ति मिले..
आपको भी नवरात्रि की ढेरों शुभकामनाएं
बहुत सुन्दर .. इतनी सुन्दर भक्तिमय पोस्ट ... बहुत कुछ सीखने को मिलता है...खुशी होती है आपकी पोस्ट पढ़ कर .... आपको सादर धन्यवाद
ReplyDeleteआपको नवरात्रि की ढेरों शुभकामनायें.
ReplyDeleteअद्भुत....अद्भुत...अद्भुत...इससे ज्यादा कोई शब्द नहीं मेरे पास....
ReplyDeleteसमझ नहीं आ रहा कि क्या लिखूं? आपकी ये पोस्ट हर प्रकार से उत्तम है!
ReplyDeleteसार्थक ब्लोगिंग के लिए आभार! आपको दुर्गोत्सव की शुभकामनाएं!
Navratri ki hardik Shubhkamnayein Aapko aur aapke Paariwar ko :)
ReplyDeleteराकेश जी
ReplyDeleteएक जिज्ञासा है आर्त भक्त में भी भगवान भेद करते है क्योकि जहा द्रौपती की पुकार सुन ली जाती है वहा कई द्रौपतियो को उनके ही हाल पर छोड़ दिया जाता है क्या उनकी पुकार सच्ची नहीं होती है मै नहीं मानती की कोई भी द्रौपती चिर हरण के समय सच्चे मन से भगवान को नहीं पुकारती होगी | कई बार मन में ख्याल आता है की यदि भगवान है तो कुछ दिन हीनो को समय रहते मदद क्यों नही करता है |
और उन भक्तो को किस श्रेणी में रख जा सकता है जो परमात्मा के होने में बिल्कुल भी विश्वास नहीं करते है उनके लिए लाचार गरीब दिन हीन की मदद करना भगवन की भक्ति से बड़ी है उनको चढावा चढाने की जगह जरुरत मंदों को देना ज्यादा श्रेष्ठ है |
उम्मीद है बहस भगवान के होने ना होने पर नहीं होगा मै यहाँ भगवान के होने को स्वीकार कर प्रश्न कर रही हूँ |
आपको सपरिवार विजय दशमी की हार्दिक शुभ कामनाएं !!!
ReplyDeleteसरजी,
ReplyDeleteदेरी से आने के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ। आपकी पोस्ट एकदम सात्विक टच लिये रहती है और यहाँ आकर अच्छा ही लगता है।
विजय दशमी पर्व की आपको व आपके परिवार को हार्दिक बधाई।
happy vijaya dashmi to u n ur family !!
ReplyDeleteअद्भुत प्रस्तुति.आभार.
ReplyDeleteआपको एवं आपके परिवार को दशहरे की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें !
ReplyDeleteAapne ishwar prapti ke tino marg gyan bhakti evm karma ka sajiv chitran kiya. der se hin sahi mai bhi bhakti ke vashibhoot aapke pas kheencha chala aaya.
ReplyDeleteआदरणीय गुरु जी मेरा सादर नमस्ते स्वीकार कीजिये!
ReplyDeleteआज बहुत दिनों बाद फिरसे आपके यहाँ आना हुआ और यहाँ आकर अच्छा ही लगता है।खुशी होती है आपकी पोस्ट पढ़ कर|
मेरे ब्लॉग पर आने और टिप्पणी दे कर हौसला आफजाई के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया
आशा है आपका मार्गदर्शन यूँ ही निरंतर प्राप्त होता रहेगा .......
aaderniy bhaisaheb...aapka nirantar protsahan mujhe milta rahta hai..sita adhatmik chintan ke baad aapki agli prastuti ka main besabri se intezaar kar raha hoon..main bigat dino kam se kam 4 baar aapke blog per bhraman kar chuka hoon..charon prakar ke bhakton ke bishaya me ab bahut acche se samajh chuka hoon..aapka blog mera chaheta blog hai..pata nahi kis agyaat karan se main apne desk top se kisi bhi blog per koi comment nahi kar pa raha tha...shayad explorar ke version se judi koi samasya thi..aapke is bishist lekh ke liye sadar badhayee aaur sita adhytmik chintan 5 ke besabri se intezaar ke sath hi
ReplyDeleteyes once we start to control sure it helps
ReplyDeletenice post
Bahut hi achchi post.......yahan aakar sukhad ehsaas hua ....aur apni sanskriti ki jadon se judne ka mouka mila ...dhanywaad .......
ReplyDeleteफ़ुरसत से पढने वाली पोस्ट है राकेश जी. आती हूं पूरी तरह पढने. सरसरी निगाह डाली है अभी तो :)
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
ReplyDeletehttp://seawave-babli.blogspot.com
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
http://khanamasala.blogspot.com
अर्थात जो श्रद्धावान है, तत्पर है ,साधनपरायण है और इन्द्रियों को संयत करता है,उसी को परमात्मा या
ReplyDeleteपरमानन्द का ज्ञान भी प्राप्त होता है,जिसको प्राप्त कर वह अति शीघ्र परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है.bhut achi jankari.
thanks.
sir pranam..
ReplyDeletesamjh me nahi aa raha hai ki kya likhu....
saethak abhivyakti.. khoj rahi hoon ki kis shreni ki bhakt hoon.aur kis shreni ki ban sakti hoon...
Respected Sir, Once again a post full of wisdom and knowledge given out to your readers with warm affection. It is amazing how make the most complexed and profound teachings so simple and understandble for people like me. Thanks so much and may God bless you always and may He uses your wisdom and worship to show His light in this world!
ReplyDeleteपञ्च दिवसीय दीपोत्सव पर आप को हार्दिक शुभकामनाएं ! ईश्वर आपको और आपके कुटुंब को संपन्न व स्वस्थ रखें !
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"आइये प्रदुषण मुक्त दिवाली मनाएं, पटाखे ना चलायें"
Sir, Wishing you and your family a very Happy and Prosperous Diwali...
ReplyDeleteआध्यात्मिक चिन्तन से मन के विकारों को विराम मिल जाता है!
ReplyDeleteसाधौ.
ReplyDeleteNice Info.. i like it
ReplyDeleteYahan Sabhi Gyani Hai full Movie Download
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