सुर और असुर समाज में हमेशा से ही होते आयें हैं. सुर वे जन हैं जो अपने विचारों ,भावों
और कर्मो के माध्यम से खुद अपने में व समाज में सुर ,संगीत और हार्मोनी लाकर
आनन्द और शांति की स्थापना करने की कोशिश में लगे रहते हैं. जबकि असुर वे हैं
जो इसके विपरीत, सुर और संगीत के बजाय अपने विचारों ,भावों और कर्मो के द्वारा
अप्रिय शोर उत्पन्न करते रहते हैं और समाज में अशांति फैलाने में कोई कोर कसर
नहीं छोड़ते. इसका मुख्य कारण तो यह ही समझ में आता है कि सुर जहाँ ज्ञान का
अनुसरण कर जीवन में 'श्रेय मार्ग' को अपनाना अपना ध्येय बनाते हैं वहीँ असुर अज्ञान
के कारण 'प्रेय मार्ग' पर ही अग्रसर रहना पसंद करते हैं और जीवन के अमूल्य वरदान को भी
निष्फल कर देते हैं.
'प्रेय मार्ग' तब तक जरूर अच्छा लगेगा जब तक यह हमें भटकन ,उलझन ,टूटन व अनबन
आदि नहीं प्रदान कर देता. जब मन विषाद से अत्यंत ग्रस्त हो जाता है तभी हम कुछ
सोचने और समझने को मजबूर होते हैं. यदि हमारा सौभाग्य हो तो ऐसे में ही संत समाज
और सदग्रंथ हमे प्रेरणा प्रदान कर उचित मार्गदर्शन करते हैं.
वास्तव में तो चिर स्थाई चेतन आनन्द की खोज में हम सभी लगे हैं. जिसे शास्त्रों में
ईश्वर के नाम से पुकारा गया है. ईश्वर के बारें में हमारे शास्त्र बहुत स्पष्ट हैं.
यह कोई ऐसा .काल्पनिक विचार नहीं कि जिसको पाया न जा सके. इसके लिए
आईये भगवद गीता अध्याय १० श्लोक ३२ (विभूति योग) में ईश्वर के बारे में दिए गए
निम्न शब्दों पर विचार करते हैं .
"वाद: प्रवदतामहम"
अर्थात परस्पर विवाद करनेवालों का तत्व निर्णय के लिए किये जाने वाला वाद हूँ मै .
विभूति का अर्थ यहाँ ब्राह्य जगत में ईश्वर (यानि परमानन्द) के दर्शन और अनुभव से है
और 'योग' माने जब ऐसे दर्शन और अनुभव से हम मन और बुद्धि के माध्यम से स्वयं जुड
जाएँ .वाद के द्वारा भी चिर स्थाई चेतन आनन्द से जुड़ा जा सकता है ऐसा आशय है गीता
के उपरोक्त श्लोक का .जब हम परस्पर विवाद अथवा तर्क करतें हैं तो यह मुख्यतः निम्न
तीन प्रकार से किया जा सकता है
(१ ) जल्पना - जहाँ तर्क करनेवालों में एक पक्ष केवल अपने ही तर्क प्रस्तुत करने में लगा
रहता है और दूसरे पक्ष को बिलकुल सुनने की कोशिश ही नहीं करता .
(२ )वितण्डा - जहाँ तर्क करने वालों में एक पक्ष दूसरे पक्ष की बातों को जानबूझ कर काटने
में लगा रहता है भले ही दूसरे पक्ष की बातें बिलकुल ठीक भी हों .
(३ ) वाद - जब तर्क करने वाले इस प्रकार से तर्क करते हैं कि एक पक्ष अपनी बात
कहता है दूसरा पक्ष उसे सावधानीपूर्वक सुनता है और जब प्रथम पक्ष अपनी
बातें कह लेता है तो दूसरे पक्ष की बातें प्रथम पक्ष सावधानीपूर्वक सुनता है
और दोनों पक्षों का उद्देश्य तर्कों के माध्यम से सकारात्मक तत्व को पाना
अर्थात 'तत्व-निर्णय' करना होता है. जो दोनों पक्षों को ही नहीं अपितु सभी
को आनन्द प्रदान करनेवाला होता है .
अब आप ही हमें बताएं कि जीवन में आनन्द की प्राप्ति हेतु हम तर्क करते हुए
'जल्पना' व 'वितण्डा' को अपनाएं या 'वाद' को.
ब्लॉग जगत में भी हम अपनी पोस्ट के माध्यम से अपने भाव और विचार प्रस्तुत
करते हैं और दूसरों की पोस्ट पर अपनी टिपण्णी देकर अपने अपने भाव और विचार
प्रकट करते हैं. क्या इन सब का उदेश्य भी आनन्द की ही प्राप्ति नहीं है ?
क्या ब्लॉग जगत में भी वाद की आवश्यकता नहीं है?
यदि हाँ और आप भी गीता की वाणी से सहमत हों , तो चलिए हम सब 'वाद' को
अपनाकर परमानन्द की प्राप्ति की ओर अग्रसर हों और अपने जीवन को मधुर मधुर
वाणी के द्वारा सफल बनाते जाएँ . क्योंकि तर्क वाणी का ही तो परिणाम हैं जिससे
सुर और संगीत भी पैदा हो सकता है .
"ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय , औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय "
सभी सुधिजनों से विन्रम निवेदन है कि वे मेरी पिछली पोस्ट्स का अवलोकन कर उन
पर भी अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएँ. 'श्रेय मार्ग ' और 'प्रेय मार्ग' के बारे में
मेरी पोस्ट 'मुद् मंगलमय संत समाजू' में भी प्रकाश डाला गया है.
जल्प और वितण्डा के बाहर निकलें बहसें।
ReplyDeleteबहुत खूब राकेश जी , सुंदर विश्लेषण किया आपने ।
ReplyDeleteबहुत अच्छा और प्रेरणादायक लेख ...सब जानते हुए भी वाणी में तीखापन आ ही जाता है
ReplyDeleteसम्मानित ब्लोगर बन्धु, ब्लोगिंग के क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए आपको बहुत-बहुत शुभकामनायें... "भारतीय ब्लॉग लेखक मंच" हिंदी ब्लोगरो में प्रेम, भाईचारा, आपसी सौहार्द, के साथ हिंदी ब्लोगिंग को बढ़ावा देने के लिए कृतसंकल्पित है.....यह ब्लॉग विश्व के हर कोने में रहने वाले भारतियों का स्वागत करता है. आपसे अनुरोध है की आप इस "मंच" के "अनुसरणकर्ता" {followers} बनकर योगदान करें. मौजूदा समय में यह मंच लेखन प्रतियोगिता का आयोजन भी किया है. जिसमे आप भी भाग ले सकते है.
ReplyDeleteआपके शुभ आगमन का हम बेसब्री से इंतजार करेंगे............
"भारतीय ब्लॉग लेखक मंच" www.upkhabar.in/
'श्रेय मार्ग ' और 'प्रेय मार्ग' के बारे में बहुत ही भावमय व प्रेरणादायक विश्लेषण प्रस्तुत किया है ."ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय , औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय "
ReplyDeleteबहुत ही गहरा भाव है इन पंक्तियों में. यूँ ही अपने ज्ञानप्रद व प्रेरणादायक लेखन से हमारा मार्गदर्शन करते रहिएगा. आभार ....
राकेश जी,
ReplyDeleteमेरा भरोसा यूंही नहीं था कि आपसे ब्लॉग जगत को बहुत कुछ मिलने जा रहा है...यहां जल्पना और वितंडा का बोलबाला है...लेकिन आप ने चंद पोस्ट से ही साबित कर दिया है कि आप औरों की सोच बदलने में समर्थ हैं और एक दिन सब वाद की सार्थकता को समझेंगे और मॉडरेशन का इस्तेमाल अपने से अलग दूसरे के विचारों का गला घोटने के लिए नहीं करेंगे...
जय हिंद...
बहुत सुंदर विवेचन.....
ReplyDeletebahut pasand aai aapki post ,bahut dhyaan padh rahi thi gyaan ki baate ,mere vichar se vaad ki ahmiyat adhik hai .aane ke liye kahi rahi aur aati bhi magar doosre kaam me uljh gayi rahi .nayi post ki khabar bhi nahi hui ,aapne jo apnapan jataya usse man prasnn ho gaya .aapke blog ko jod rahi hoon jisse nayi rachna ki jaankari hoti rahegi .
ReplyDeleteजल्पना और पितंडा...शब्द और इसके अर्थ ..आज मैंने अपने जीवन में पहली बार सुना है !..वाद तो जनता था ! आज के इस ब्लॉग्गिंग जगत में वाद होनी ही चाहिए !सर...आज से मै आप को गुरूजी कहा कर ही संबोधित करूँगा ! क्योकि जब कभी भी आपने मेरे ब्लॉग पर पदार्पण किया , उस समय मुझे आपने अपने सार्थक वाद का परिचय देना नहीं भुला ! वैसे ब्यक्ति की परिचय पाने में ज्यादा देर नहीं लगती !मेरी आदत है की ब्यक्ति की लेखनी ,शब्द , चेहरा ,मुस्कान , आंख और बोली देख कर , उसके चरित्र के बारे में अंदाजा लगा ही लेता हूँ ! गुरूजी मै..आप को , आप की पहली पोस्ट ही पढ़ कर पहचान लिया था ! आप के पोस्ट पढ़ने का सदैव इंतजार रहता है !आप के इस पोस्ट के आखरी वाक्य बड़े चुनौती भरे है ! यह ब्लॉगर जगत इस पर कितना खरे उतरेगा , यह तो समय ही बताएगा! भविष्य में ..आप के पोस्ट पर अगर मेरे टिपण्णी न आये तो आप दुखी न हो क्यों की मेरे पास समय का अभाव है ! आप का शिष्य -गोरख नाथ ....!
ReplyDelete"ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय , औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय "
ReplyDeletewell said
.
ReplyDelete.
Rakesh ji ,
Thanks for this beautifully post .
I have written a similar post which is in draft but now I will not publish it. Because you have worded it beautifully here.
.
.
ReplyDeleteDiscussion is of two types -
1- Friendly discussion - which is unbiased.
2- Hostile discussion - where the people involved are biased, aggressive, impatient and not at all ready to listen.
So , in my humble opinion , one should be very patient in listening others views as well.
Winning should not be their objective. Instead they must discuss to reach out for something constructive, concrete, meaningful and useful for society.
Thanks and regards,
.
आदरणीय दिव्याजी,
ReplyDeleteभले ही आप उम्र में मुझसे छोटी हों,लेकिन दिल से आदर करता हूँ आपका मै .ये आपका बड़प्पन है कि आपने मेरी पोस्ट की सराहना की और इसके लिए आप अपनी 'ड्राफ्ट' की हुई पोस्ट भी पब्लिश नहीं कर रहीं है .एक ही दूध से अनेक मिठाई बनती हैं.पर हर मिठाई का मजा अपना ही होता है .अच्छी बात अनेक प्रकार से भी कही जाये तो हर प्रकार से कहने सुनने में आनन्द आता है.हम सब का उद्देश्य निर्मल आनन्द की प्राप्ति है. आपकी एक अपनी शैली है आपसे दिन प्रतिदिन अनेक सुधिजन पाठक जुड रहें हैं ऐसे में यदि आप अपनी पोस्ट पब्लिश होने से रोकेंगी तो अन्याय होगा सभी के साथ .मेरा विन्रम निवेदन है की आप अपनी पोस्ट जरूर पब्लिश करें बल्कि हो सके तो अब मेरी उन बातों को भी स्थान देकर जो आपको अच्छी लगें.
आखिर मेरी यह पोस्ट भी तो आपके दिल के स्पंदनो का ही तो एक प्रतिरूप हैं.
.
ReplyDeleteराकेश जी ,
आपकी विनम्रता सराहनीय एवं अनुकरणीय है ।
मैं अपना लेख ज़रूर प्रकाशित करती लेकिन यकीन मानिए आपने इसी विषय पर , मुझसे बहुत बेहतर लिखा है , जिसमें मेरे मन की सभी बातें बहुत अच्छे से अभिव्यक्त की हैं। आपका ये लेख एक सम्पूर्ण लेख है । इसके आगे लिखने की कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती ।
इस बेहतरीन लेख के लिए ह्रदय से आपका आभार।
.
prernapoorn lekh ...saty vachan.
ReplyDeleteआपने अत्यंत सुरूचिपुर्ण और सहज शब्दों में गीता का "वाद" समझाया. इतने सहज भाव से समझाना अति दुरुह है. वैसे ब्लाग जगत भी अपवाद नही है क्युंकि दुनियां में कोई भी इस वाद को समझना नही चाहता. फ़िर भी सज्जनों को अपना कार्य जारी रखना ही चाहिये.
ReplyDeleteरामराम.
प्रिय मित्र गोरख नाथ जी,
ReplyDeleteआपकी भावनाओं का मै पूर्ण सम्मान करता हूँ.वास्तव में हम सभी उस परमपिता परमात्मा के शिष्य हैं जिसने हमें मनुष्य शरीर का वरदान दिया है.आपका मुझे गुरु कहना एक प्रकार की अतिशयोक्ति होगी.हम सभी को एक दूसरे से सीखना है.अत:सीखने के भाव को बढ़ाना ही हमारी कोशिश होनी चाहिए.अगर आप मुझे गुरु कहेंगे तो फिर मै भी आपको 'गुरू गोरखनाथ जी'कहकर संबोधन करूँगा.इसमें आपको कोई आपति नहीं होनी चाहिए.प्रेम के रिश्ते में संबोधन अधिक माने नहीं रखता.मै भी काफी व्यस्त हूँ इन दिनों.आपकी टिप्पणिओं के बैगर तो मेरी भी हिम्मत नहीं है लिखने की .
@ > प्रवीण जी ,
ReplyDeleteबहुत कम शब्दों में अर्थ की बात कहने में आपकी प्रवीणता का कायल हूँ मैं. सैदेव मार्गदर्शन करते रहिएगा.
@ > वंदना जी ,
चर्चा मंच में मेरी पोस्ट को शामिल किया आपने ,इसका आभारी हूँ आपका. "चर्चा मंच" पर जाकर आपकी रोचक चर्चा पढ़ कर बहुत अच्छा लगा .
@ > भाई अजय जी
आपने मेरे ब्लॉग पर आकर जो उत्साह वर्धन किया है मेरा, उसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद .कृपया आते रहिएगा .पिछली पोस्टों पर भी आपके अमूल्य विचार जानना चाहूँगा.
@ >संगीता स्वरुप(गीत)जी,
ReplyDeleteआपके प्रेरणादायक शब्द मेरे लिए अमूल्य हैं.पुरानी कहावत है 'गुड़ न दे ,गुड़ की सी बात कह दे'.समझदार को तो वाणी का तीखापन भी मीठा लगता है यदि वाणी हित करती हो.
@ >हरीश सिंह जी ,
स्वागत है आपका मेरे ब्लॉग पर .अपने मूल्यवान विचारों से अनुग्रहित कीजिये .
@ > Sandhya ji,
आपके शब्द और भाव अमूल्य हैं मेरे लिए.कृपया,पिछली पोस्टों पर भी अपने विचार प्रस्तुत करें आभारी हूँगा .
@ > भाई खुशदीप जी ,
ReplyDeleteअपनी लगाई पौध को बढ़ता देख सभी को अच्छा लगता है.खाद पानी देना न भूलिएगा ,वर्ना सूख जायेगी ये पौध.
@ > डॉ.मोनिका शर्मा जी,
अमूल्य वैचारिक दान सैदेव अपेक्षित रहेगा आपसे.कुछ और शब्द दान हो तो आभारी हूँगा .
@ > ज्योति सिंह जी ,
आप मेरे ब्लॉग पर आकर उत्साह का संचार करती हैं.आपके भावुक हृदय का बहुत बहुत आभारी हूँ .
@ >डॉ.दिव्या जी ,
ReplyDelete"dicussions" में "patient listening" का रोल बहुत
महत्वपूर्ण है.हर discussion का उद्देश्य यदि सार्थक हो और वह मित्रवत हो तो सभी लाभांवित होते हैं.
@ > सुरेंद्र सिंह 'झंझट'जी,
आपको लेख प्रेरणापूर्ण लगा इसके लिए बहुत बहुत आभार.कृपया अपने मूल्यवान विचारों से अवगत कराते रहिएगा.
@ > Manpreet Kaur ji
बहुत बहुत आभार आपका .आपके ब्लॉग पर अच्छे गाने डाउनलोड करने को मिलते हैं.
@ >आदरणीय ताउश्री जी ,
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर जाकर कुछ का कुछ लिख देता हूँ.फिर भी आप प्रेम और स्नेह के साथ मेरा सैदेव मनोबल बढ़ाते हैं और मेरा मार्गदर्शन करते हैं ,इसके लिए बहुत सौभाग्यशाली मानता हूँ अपने आपको.प्रभु से प्रार्थना है कि मै सैदेव आपकी कृपा का पात्र बना रहूँ .
आदरणीय राकेश जी नमस्ते!
ReplyDelete'श्रेय मार्ग ' और 'प्रेय मार्ग' के बारे में बहुत ही भावमय व प्रेरणादायक विश्लेषण प्रस्तुत किया है आपने!
आशा है आगे भी अपने ज्ञानप्रद व प्रेरणादायक लेखन से हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे.
धन्यवाद के साथ बहुत सारी शुभ कामनाएं आपको !!
आदरणीय राकेश जी,
ReplyDeleteमुआफी चाहूंगा,देर से पहुंचा.
श्रेय मार्ग और प्रेय मार्ग की व्याख्या का "वाद: प्रवदतामहम" के साथ जो आपने संगम प्रस्तुत किया सच में मेरे मन को पवित्र कर गया.
"वास्तव में तो चिर स्थाई चेतन आनन्द की खोज में हम सभी लगे हैं. जिसे शास्त्रों में ईश्वर के नाम से पुकारा गया है"
ईश्वर चिर स्थाई चेतन आनन्द ही है.
आपकी कलम को सलाम.
@ > madansharma ji,
ReplyDeleteआपके सुंदर वचन मेरा मनोबल बढ़ाते हैं.आपकी पोस्ट पर जाकर मुझे अत्यंत खुशी मिली.आप हमेशा सकारात्मक लिखेंगें और वेदों के पवित्र ज्ञान से भी परिचित कराएँगे , ऐसी मै आशा करता हूँ.
@ > प्रिय 'sagebob'
कहाँ रहे इतने दिनों तक आप.बैचन कर दिया आपने.सब ठीक से तो है न ? 'अध्यात्म-पथ'पर अपने साथ ले चलने का वादा तो है न ?
परस्पर विवाद करनेवालों का तत्व निर्णय के लिए किये जाने वाला वाद हूँ मै ......
ReplyDeleteभगवद गीता अध्याय १० श्लोक ३२ पर आपने एक नए दृष्टिकोण से व्याख्यायित किया है.
...लेख बहुत अच्छा और विचारणीय है।
आपको बहुत-बहुत बधाई !
आधुनिक भौतिकतावादी जीवन में लगभग सभी जल्पना और वितण्डा का ही आश्रय लेते हैं।
ReplyDeleteतर्क में वाद ही श्रेयस्कर है।
इस नए सुंदर से चिट्ठे के साथ हिंदी ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
ReplyDelete@> Dr.(miss}Sharad Singh ji,
ReplyDeleteआपका आगमन अति सुखद लगा और वचनों ने मन को मोह लिया.आप के आते रहने से मेरा मनोबल बढ़ता है.
@> mahendra verma ji,
आपका कहना ठीक है कि 'तर्क में वाद ही श्रेयकर है'.मेरे ब्लॉग पर आपके आने के लिए धन्यवाद .समय समय पर आकर मार्गदर्शन करते रहिएगा .
@> संगीता पुरी जी ,
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आपका आभारी हूँ .आपके ज्योतिष ज्ञान से भी हम लाभांवित होते रहेंगे .
न जाने क्यों मै आपको अपना गुरु तुल्य मानने लगा हूँ आपके विचारों में महात्मा आनंद स्वामी की झलक मिलती है.
ReplyDeleteआप के ही शब्दों में ----आपसे बहुत कुछ जानने को मिलेगा क्योंकि आप सच्चे जिज्ञासु है.वास्तव में तो हम सभी अध्यात्म पथ पर चल रहे हैं जाने या अनजाने .आप जैसे सुंदर ज्ञानवान पथिक मिलेंगे तो यात्रा सुखद रहेगी.
आप जैसे ज्ञानी जन का मेरे ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद!
ye to wakai guru vaani hai
ReplyDeleteआदरणीय राकेश जी
ReplyDeleteसादर सस्नेहाभिवादन !
ऐसी वाणी बोलिए पढ़ कर हृदय प्रसन्न हो गया …
सुर वे जन हैं जो अपने विचारों ,भावों और कर्मो के माध्यम से खुद अपने में व समाज में सुर ,संगीत और हार्मोनी लाकर आनन्द और शांति की स्थापना करने की कोशिश में लगे रहते हैं.
जबकि असुर वे हैं जो इसके विपरीत, सुर और संगीत के बजाय अपने विचारों ,भावों और कर्मो के द्वारा अप्रिय शोर उत्पन्न करते रहते हैं और समाज में अशांति फैलाने में कोई कोर कसर
नहीं छोड़ते.
हा हाऽऽ ह ! हम तो सुर ही हैं ! :)
… और आप भी तो …
मिले सुर मेरा तुम्हारा … !
अच्छी पोस्ट के लिए
हार्दिक बधाई !
मंगलकामनाएं !!
♥होली की अग्रिम शुभकामनाएं !!!♥
- राजेन्द्र स्वर्णकार
आप अपनी जगह बनाने में कामयाब हो भाई जी ! शुभकामनायें आपको !
ReplyDelete@ > मदन शर्मा जी,
ReplyDelete@ > रश्मि प्रभा जी,
कहा गया है "अखण्ड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम,तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नम:".यदि हम सीखने की इच्छा रखते हैं तो वह परमात्मा गुरु रूप में सर्वत्र विद्यमान है.आपकी भावना का मै आदर करता हूँ.आपसे भी निर्मल ज्ञान की प्राप्ति हेतु मुझे आप शिष्य रूप में स्वीकार करें,तो आभारी हूँगा .
@ > राजेन्द्र स्वर्णकार जी,
ReplyDeleteआपके मधुर मधुर सुरों ने तो सभी को मस्त कर रखा है.आपकी कृपा होगी तो मेरा सुर भी आपके सुर से अवश्य मिलेगा.फिर तो कुछ न्यारा सुर ही बनेगा .बहुत बहुत आभार आपका.
@ > सतीश सक्सेना जी,
मेरे ब्लॉग पर आपके आगमन और आशीर्वचन के लिए मै हृदय से आभारी हूँ.कृपया मार्गदर्शन करते रहिएगा.
is guru vaani ki liye dil se dhanyawaad... 'vaad' ki zaroorat aaj duniya mein har kone, har paristithi mein hai. bahut hi achchi post!
ReplyDeleteराकेश जी आप सचमुच ज्ञान के सागर से मोती निकाल कर लाए हैं । ज्ञानवर्धन के लिए धन्यवाद और आपकी ये ब्लॉग अनेक लोगों के लिए मार्ग दर्शक बनेगी बहुत गहन अध्ययन और विवेचना के बाद ही ऐसा लेख लिखा जाता है । आपके अगले लेख की प्रतीक्षा रहेगी
ReplyDeleteराकेश जी !! आपके आध्यात्मिक विचारों को पढ़ कर सचमुच आनंद की अनुभूति हुई| मैं आपकी इस सोच से पूरी तरह इत्तेफ़ाक रखती हूँ कि हम सभी सच्चे अर्थों तभी मानव कहलाएंगें जब हम उन आध्यात्मिक ऊँचाइयों को आत्मसात कर लें जिनके लिए हमें ये जीवन मिला है .. परस्पर संवाद और सत्संग से उत्तम साधन इसके लिए और कोई नहीं हो सकता है | संत मनुष्यों का संग ही सत्संग कहलाता है और आज इन्टरनेट के जमाने मे हमारा पारस्परिक विचारों का संवाद भी आज के परिपेक्ष मे सत्संग ही है ... कबीरा संगत साधू की ज्यों गंधी को वास
ReplyDeleteजो कुछ गंधी दे नहीं, फिर भी बास सुवास ..
और हम इस संवाद मे जल्पना और वितण्डा से बचे और और वाद को प्रोत्साहित करें ... इस बात का ख्याल रखें तो ब्लॉग टिपण्णी मे भी प्रायश्चित ना करना पड़ेगा ...यह सभी जानते हैं ...बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि ..हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि.... आपका लेख बहुत सार्थक है... धन्यवाद
@ > Anjana(Gudia)ji,
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपका मेरी इस पोस्ट पर आने के लिए.आपका यह कथन सही है की वाद की जरूरत दुनिया के हर कोने और परिस्थिति में है.
@ > सर्जना शर्मा जी,
आपका दिल भी पिघलेगा इसका मुझे पूर्ण विश्वास था.आपके प्रेरक वचन मेरा मार्गदर्शन करेंगे.अगली पोस्ट शीघ्र लिखने की कोशिश करूँगा .
@ > डॉ.नूतन जी
आपने मेरी पोस्ट पर आकर मुझे अनुग्रहित ही नहीं किया बल्कि अपने सुंदर और अनुपम विचारों से निर्मल सत्संग भी प्रदान कराया है .आपकेअनमोल वचन 'कबीरा संगत साधू की ....','बोली एक अमोल है ...'को हमेशा हृदयंगम करने की कोशिश करूँगा.कृपया आगे भी मार्गदर्शन करती रहिएगा .
nice.
ReplyDeleteराकेश जी अपने प्राचीन शास्त्रों में मार्गदर्शन के असंख्य सूत्र भरे पड़े हैं.. आज आपने जल्पना, वितंडा और वाद के माध्यम से आज के समय में शून्य हो रहे तार्किकता और धैर्य की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरित किया है.. यह केवल ब्लॉग जगत की बात नहीं है.. बल्कि आम जीवन में जीवनशैली की बात है... पहली बार आपके ब्लॉग से परिचय हुआ और लगता है कि आपसे कम से मेरा मार्गदर्शन तो होगा ही... सादर
ReplyDeleteलेख बहुत अच्छा और विचारणीय है -ज्ञानवर्धन के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteबहुत सुंदर विवेचन| धन्यवाद|
ReplyDeleteबहुत प्रेरणादायी ग्यानवर्द्धक आलेख है। शुभकामनायें।
ReplyDeleteआदरणीय राकेश जी
ReplyDeleteनमस्कार !
अच्छा और विचारणीय है
ज्ञानवर्धन के लिए धन्यवाद और आपकी ये ब्लॉग अनेक लोगों के लिए मार्ग दर्शक बनेगी बहुत गहन अध्ययन और विवेचना के बाद ही ऐसा लेख लिखा जाता है -ज्ञानवर्धन के लिए धन्यवाद.
राकेश साहब्,
ReplyDeleteआप तो ज्ञान के सागर हैं। पढते रहेंगे आपको, हो सकता है कुछ असर हम पर भी हो ही जाये।
बधाई राकेश जी,
ReplyDeleteसुगम्य रिति से आपने विष्य के साथ पूर्ण न्याय किया है।
चर्चा के प्रकारों को सुन्दर परिभाषित किया! ज्ञानवर्धन के लिये आभार॥
"ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय , औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय "
सार्थक्…॥ सार्थक है।
निरामिष: शाकाहार : दयालु मानसिकता प्रेरक
आदरणीय राकेश जी
ReplyDeleteसादर प्रणाम
सबसे पहले तो आपसे माफ़ी चाहूँगा ..देर से आने के लिए ...आपकी पोस्ट में वाणी के विषय में बहुत गंभीरता से विचार हुआ है ..वाणी की जीवन में बहुत महता है , या यूँ कह सकते हैं हमारा जीवन हामरी वाणी से अभिव्यक्त होता है ...आपने जिस तरीके से विश्लेषण किया है निश्चित ही यह आपके व्यापक अध्ययन और समझ को दर्शाता है ...! वाणी के माध्यम से मन का आप खोने का बहुत व्यापक अर्थ है ..आपका आभार
बहुत सुन्दर ! उम्दा प्रस्तुती!
ReplyDeleteआपको और आपके परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनायें!
हम सब भारतीय एक मन हों, एक विचार हों
ReplyDeleteऔर एक दूसरे की शक्ति बनें
आपको एवं आपके परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनायें!
राकेश जी,सचमुच मुझे बड़ा खल रहा है की मै आपके ब्लोक पर आई और टिपण्णी के मोती नही बिखेर पाई --हुआ यू की उस दिन मैने लिख तो दी थी पर पोस्ट के समय लाईट ही चली गई -अब ४घंटे बाद वो आई तो अपुन भुलक्कड़ राम भूल गए.... !
ReplyDeleteखेर,पहली बार आई थी जब भी और आज भी आपकी पोस्ट को मेरा सत् -सत् प्रणाम ! ऐसी उपयोगी और ज्ञानवर्धक पोस्ट पर आना हमारे लिए हम सबके लिए एक ज्ञान स्त्रोत है-जो बह रहा है --हमे तो सिर्फ आकर अपने हाथ धोना है ताकि जमी हुई गर्द साफ़ हो सके --
होली पर आपको अनेको शुभ कामनाए --
आदरणीय राकेश जी,एक बार फिर से मेरी रचना पर आने की कृपा करे --होली पर कुछ इस तरह मेरी बधाई स्वीकार करे..
ReplyDeleteआप को होली की हार्दिक शुभकामनाएं । ठाकुरजी श्रीराधामुकुंदबिहारी आप के जीवन में अपनी कृपा का रंग हमेशा बरसाते रहें।
ReplyDeleterang parv par aapko bahut bahut badhai .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सार्थक विश्लेषण...होली की हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeleteआदरणीय राकेश जी सादर नमस्ते! पहली बार आपके यहाँ आई हूँ मेरी आँखें खुल गयीं! आपकी लेखन शैली बहुत सुन्दर तथा ज्ञानवर्धक है. जरा इसे महर्षि दयानंद के साथ मिलाइए और भी आनंद आएगा.
ReplyDeleteआपने मदन शर्मा जी के पोस्ट पे मुझे लिखने के लिए कहा. इसके लिए आपका बहुत आभार. किन्तु पढाई का बोझ सर पे इतना है की फुर्सत नहीं मिल पाती. आगे भविष्य में कोशिस करुँगी .बस आप गुरु जनों का आशीर्वाद चाहती हूँ
लेखन भी बोलना ही है
ReplyDeleteबस मन में बोला गया
ऊंगलियों के जरिए
कीबोर्ड से होते हुए
यहां उतर आता है
फिर अच्छा हो
सच्चा हो तो
सबको भाता है
इसी से बनाता
इंसान अपनापा है।
पूर्ण सहमति। ऐसा विस्तृत विश्लेषण पहली बार देखा। धन्यवाद!
ReplyDeleteमिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा
बहुत ही सुन्दर व्याख्या!....... जल्पना, वितण्डा व वाद के द्वारा बेहद सूक्ष्म बात कह दी आपने. आशा है सभी इस बात को समझे......
ReplyDeleteभौतिकतावादी भागमभाग में जब ऐसी सारगर्भित पोस्ट पढ़ने को मिलती है तो ऐसा लगता है जैसे रेगिस्तानी सफर में कोई पीपल का घना वृक्ष मिल गया हो जिसकी छाँव में कुछ पल के लिये अपने आप से मुलाकात हो जाती है और एहसास होता है कि मैं अपने से ही कितना अपरिचित रहा हूँ.
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित लेख |
ReplyDeleteआशा
श्रेय मार्ग और प्रेय मार्ग की व्याख्या कर आपने सुर और असुर की पहचान बता दी ...
ReplyDeleteबेहतरीन प्रविष्टि !
राकेश भैया की प्रस्तुति भी बहुत सुन्दर है, और misfit blog par जिस तरह इन शब्दों को वाणी रूप में उतारा gayaa है, वह भी बहुत सुन्दर है | दरअसल, श्री श्रेय मार्ग की ओर ले जाता हर रास्ता, हर कदम इतना आनंद मय है , कि वह आनंद समझा पाना शब्दों के परे है |
ReplyDeleteराकेश जी, नमस्कार। आपने बहुत सार गर्भित लेख लिखा है। भक्ति मय जानकारी बाटंने के लिये बहुत बधाई।
ReplyDeleteअत्यंत ज्ञानवर्धक, प्रेरणादायी एवं सारगर्भित लेख ! पढकर मन आनंद मग्न हो गया । साधुवाद ।
ReplyDeletebahut gahan avlokan, vishleshan aur tathyapurn- tarkpurn vyaakhyaa. aabhar Rakesh ji.
ReplyDelete