यह मेरे लिए अति आनंद की बात है कि प्रिय सुधिजनों ने 'रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन' पर
प्रकाशित मेरी पिछली तीनों पोस्टों का अपनी आनंदपूर्ण टिप्पणियों से भरपूर स्वागत किया है.
देवेन्द्र भाई का कहना है कि 'संगम सरयू स्नान कर धवल व पवित्र हो जाता है.
भाई अरविन्द मिश्रा जी कहते हैं कि 'अब सरयू भी सहज ध्यानाकर्षण की अधिकारणी हो
जाती है.' हालाँकि मेरी पिछली पोस्ट 'रामजन्म-आध्यात्मिक चिंतन -३' में सरयू का निरूपण
आत्म-ज्ञान रुपी सरिता से किया गया है, फिर भी रूचि और प्रसंग को देखते हुए इस पोस्ट में
हम 'सरयू' जी पर विचार करने की और कोशिश करते हैं.
आईये, मेरी पिछली पोस्ट 'रामजन्म- आध्यात्मिक चिंतन-३' में वर्णित रामचरित्र मानस की
निम्न पंक्तियों का स्मरण करते हुए आगे बढते हैं
"बंदउ अवधपुरी अति पावनि, सरजू सरि कलि कलुष नसावनि"
अवधपुरी की वंदना ऐसी अति पवित्र पुरी के रूप में की गई है जहाँ 'सरयू' जैसी सरिता बह रही
है जो कलियुग की कलुषता का नाश करनेवाली है .रामचरितमानस में सरयू के बारे में यह भी
लिखा गया है कि
उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर
बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर
अर्थात अवधपुरी की उत्तर दिशा में सरयू बह रही हैं जिसका जल निर्मल और गहरा है.
मनोहर घाट बंधे हुए है, किनारे पर जरा भी कीचड़ नहीं है.
यह देखा गया है कि जब कोई नदी या सरिता जो निरंतर प्रवाहित होती है, जिसका जल
शुद्ध , पेय व कल्याणकारी होता है, जिसपर स्नान आदि करने के लिए सुन्दर घाट निर्मित
किये जा सकते हैं व जिसके किनारे कीचड़ आदि से मुक्त होते हैं तो उस नदी के
आस पास संपन्न नगर व पुरी भी बस जाते हैं.
अवधपुरी हृदय में स्थित एक ऐसी ही संपन्न पुरी है जहाँ समस्त दैवीय संपदा जैसे 'अभय
यानि मृत्यु आदि समस्त भयों का अभाव, अंत:करण की निर्मलता, उत्तम कर्मों का आचरण ,
क्रोध का सर्वथा अभाव, दया, अहिंसा आदि सद्गुणों का निरंतर विकास होता रहता हैं. यह सब
विकास इसीलिए संभव होता है क्यूंकि अवधपुरी की उत्तर दिशा में 'आत्म ज्ञान' रुपी सरयू
नदी निरंतर बहती रहती है. उत्तर दिशा 'परिपक्वता' का प्रतीक है. यानि 'आत्मज्ञान' केवल
कोरा या थोथा नहीं बल्कि गहन अनुसंधान और अनुभव पर आधारित है जिसमें स्वल्प भी
अज्ञान रुपी कीचड़ का लेश मात्र नहीं है.
अपनी आत्मा का ज्ञान हमें भय मुक्त करने में सर्वथा समर्थ है. जब मैं अपने शरीर को केवल
वस्त्र मानकर स्वयं को परमात्मा का अंश 'सत्-चित-आनंद' मानता हूँ जो नित्य,अजर,अमर
अवध,आनंदस्वरूप है और निरंतर यही 'command' अपने मस्तिष्क रूपी कंप्यूटर को देता रहता
हूँ, , तो मेरे हृदय में नकारात्मकता का शमन हो सकारात्मकता व आनंद का संचार होने
लगता है.जैसा कि भगवद्गीता (अध्याय २ श्लोक २२ ) में भी निम्न प्रकार से वर्णित है
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोSपराणी
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही
अर्थात जैसे हम शरीर के पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करते हैं,वैसे
ही हमारी आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीर को प्राप्त होता है.
यह देह भी हमेशा एकसा नहीं रहता.पहले बचपन, बचपन की मृत्यु हो जवानी , जवानी की
मृत्यु हो बुढ़ापा,और फिर देह ही अंततः मृत्यु को प्राप्त हो जाता है.
वास्तव में आत्मा के तीन शरीर हैं (१) स्थूल या पंच भूत से निर्मित भौतिक शरीर जिसकी
मृत्यु होती है और यही नाशको प्राप्त होता है (२) सूक्ष्म शरीर जो मन,बुद्धि,अहंकार से
निर्मित है (३) कारण शरीर जो सकाम कर्मों के परिणाम स्वरुप संचित वासनाओं के रूप में
निर्मित है.
स्थूल शरीर के विनाश होने पर 'सूक्ष्म' और 'कारण' शरीर हमारी आत्मा के साथ ही नवीन
स्थूल शरीर की प्राप्ति की ओर अग्रसर हो जाते हैं ,जो हमारी संचित वासनाओं अर्थात
' कारण शरीर' के अनुरूप ही मिला करता है.'तमोगुणी' वासनाओं से निम्न योनि(कीट,पतंग,
पशु,पक्षी आदि) ,'रजोगुणी' वासनाओं से साधारण मनुष्य योनि और 'सतोगुणी' वासनाओं से
उच्च मनुष्य योनि(संत,महापुरुष आदि) जिसे देव योनि भी कहते हैं प्राप्त होती हैं.इन वासनाओं
का सर्जन और विसर्जन हम अपने जीवन काल में अपने कर्म,भाव और विचारों के द्वारा
करते रहते हैं.जिस जिस प्रकार की वासनाएं अर्जित होती जातीं हैं,वैसा वैसा ही 'कारण शरीर '
का निर्माण भी होता जाता है. 'कारण शरीर ' के आधार पर ही फिर 'सूक्ष्म' शरीर व 'स्थूल'
शरीर का निर्माण होता है . परन्तु, हमारा मरण कभी नहीं होता. जन्म से पहले और मृत्यु के
पश्चात भी हम आत्मा रूप में हमेशा विद्यमान रहते है.
यदि अपने जीवन काल में ही मैं यह आत्मज्ञान प्राप्त करलूँ कि न मैं स्थूल शरीर हूँ,
न ही सूक्ष्म और न ही कारण शरीर बल्कि ये मेरे केवल वस्त्र मात्र हैं जिनको मैं अपने
कर्म,विचार और भावों के द्वारा बदलता रहता हूँ, मेरा वास्तविक स्वरूप निर्गुण, निराकार ,
नित्य, अजर, अमर, 'सत्-चित आनंद है ' और यह आत्मज्ञान मेरे स्थूल शरीरान्त तक बना
रहे तो नवीन शरीर ग्रहण करते समय भी मैं पिछला सब याद रख सकता हूँ व आनंद में
रमण करते हुए अपना विकास निरंतर ही करते रह सकता हूँ .निरंतर विकास का अर्थ यहाँ
निष्काम कर्मयोग के द्वारा प्रारब्ध या 'कारण शरीर' के क्षय करने से है .'कारण शरीर' की वजह
से ही स्थूल शरीर के बंधन में बंधना पड़ता है. 'कारण शरीर' के पूर्णतया क्षय होने पर स्थूल
शरीर की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है,जिसे जीव की मुक्ति माना जाता है.
परन्तु, आत्मज्ञान न होने की स्थिति में हम खुद को अज्ञानवश स्थूल शरीर ही मान
लेते हैं इसीलिए हमारे मस्तिष्क में जाने अनजाने यही 'command' जाता रहता है कि
स्थूल शरीर के मरण के साथ ही हमारा भी मरण हो जायेगा. जिस कारण हम स्थूल शरीर
की मृत्यु के समय मृत्यु भय से ग्रस्त हो अपनी तमाम याददाश्त को ही विस्मृत कर डालतें हैं
और जब नवीन शरीर ग्रहण करते हैं तो पिछला कुछ भी याद नहीं रहता. जबकि ऐसा बचपन
या जवानी की समाप्ति पर नहीं होता. क्यूंकि बचपन और जवानी की मृत्यु हम सहज मानते हैं
और मस्तिष्क को यह 'command' कभी नहीं देते कि हम मर गए हैं, इससे ह्मारी याददाश्त
बनी रहती है. ऐसे ही सोते वक़्त भी हम यह कदापि महसूस नहीं करते कि सोने से हम मर
जायेंगें. इसलिये सोकर उठने पर याददाश्त बनी रहती है. स्थूल शरीर की मृत्यु के समय
केवल अज्ञान के कारण ही हम खुद के मरने का गलत 'command' दे बैठते हैं. फलस्वरूप
'याददाश्त' का लोप हो जाता है और सम्पूर्ण ज्ञान विस्मृत हो जाता है.
आत्मज्ञान के द्वारा हम स्वयं के 'आनंद' स्वरुप का बोध कर पाते हैं .आनंद का अक्षय
स्रोत अंत:करण में ही निहित है. आत्म बोध से 'कारण शरीर' का स्वाभाविक रूप से क्षय होता है.
आत्मज्ञान रुपी विचार प्रवाह से आनंद की तरंगें हृदय में उठने लगतीं हैं. जब यह प्रवाह
हृदय में अनवरत व नित्य प्रकट होने लगता है तो दिव्य सरिता का रूप धारण कर हृदय
की कलुषता का निवारण करता रहता है और हृदय को पवित्र पावन बना देता है,जिससे हृदय
में उपरोक्त वर्णित अवधपुरी का भी वास होने लगता है. यह आत्मज्ञान रुपी विचार प्रवाह की
दिव्य सरिता ही 'सरयू' नदी है.
आत्मा का ज्ञान वास्तव में एक आश्चर्य ही है. भगवद्गीता (अध्याय २ श्लोक २९) में
इसका निरूपण निम्न प्रकार से किया गया है.
"कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है
और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भांति
वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति
सुनता है और कोई कोई तो सुनकर भी इसे नहीं जानता "
आश्चर्य इसलिये है कि आत्मा के विलक्षण आनंद के अनुभव की किसी भी अन्य आनंद से
तुलना ही नहीं की जा सकती. .आत्मज्ञान रूपी 'सरयू' के जल को इसी वजह से अति गहन
और गंभीर बताया गया है.
कहते हैं सरयू के जल में राम जी यानि 'सत्-चित आनंद ' ने 'जल समाधि' ली हुई है.
जिस कारण इसके जल का सेवन करने से 'चिर स्थाई आनंद' का अनोखा स्वाद भी
मिलता है और जीव सहज शांति को प्राप्त हो जाता है. फिर चलिए, अब सोचना क्या है,
पवित्र पावन सरयू नदी के घाट पर नित्य स्नान, ध्यान और आचमन कर असीम आनंद
में गोते लगा लिए जाएँ.
आत्मज्ञान के और अधिक अनुसंधान हेतू श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय-२ (सांख्य योग) का अध्ययन
किया जा सकता है.''साख्य योग" में आत्मज्ञान का समन्वय इस प्रकार से किया गया है जिससे
हम जीवन में निष्काम कर्मयोग प्रतिपादित करने में भी सक्षम हो सकें. इसीलिए भगवद्गीता में
सांख्य योग के पश्चात ही कर्मयोग का निरूपण अध्याय-३ में किया गया है.
राम जी ,दशरथ जी व कौसल्या जी का तत्व चिंतन मेरी पोस्ट 'रामजन्म- आध्यात्मिक चिंतन-१'
में किया गया है.
चारो युगों अर्थात सत् युग ,त्रेता ,द्वापर व कलियुग का तत्व चिंतन मेरी पोस्ट
'रामजन्म -आधात्मिक चिंतन -२' में किया गया है. तथा
अवधपुरी/अयोध्यापुरी,उपवास का तत्व चिंतन मेरी पोस्ट 'रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन-३' में
किया गया है.
सुधिजन उपरोक्त पोस्टों का भी अवलोकन कर अपने सुविचारों की आनंद वृष्टि कर सकते हैं.
मेरा यह सादर अनुरोध है कि उपरोक्त पिछली पोस्टों का बार बार अवलोकन किया जाये,
जिससे राम, दशरथ, कौसल्या, त्रेता युग, अवधपुरी की स्थापना 'सरयू' जी की कृपा से हमारे हृदय
में ही हो, और 'राम मंदिर' के लिए हमें दर दर न भटकना पड़े. यदि हृदय में 'राम मंदिर'
का सही प्रकार से निर्माण हो जाये तो भौतिक जगत में राम मंदिर कहीं भी हो, इसका कोई
फर्क पड़नेवाला नहीं है.कहतें है आस्था और विश्वास से जैसा अंतर्जगत में हो वैसा ब्राह्य
जगत में भी घटित हो जाता है.
सुधिजन इस विषय कि 'रामजन्म और राम मंदिर का क्या स्वरुप हो' पर विस्तार से
अपने अपने विचार प्रकट करें तभी इन पोस्टों की सार्थकता का भी अनुभव हो पायेगा.
ओम् सच्चिदानन्देश्वराय नमो नम:
राकेश जी,
ReplyDeleteआपके सानिध्य के बाद हमें सरयू के तट पर जाने की क्या आवश्यकता...
जीने की विधि, ज्ञान, तप क्या नहीं मिलता हमें आपके विचारों के अथाह सागर में गोता लगाने के बाद...बस इसी तरह हमारे अंतर्मन को आलोकित करते रहें, यही कामना है...
जय हिंद...
सुंदर लेख, जबरदस्त मेहनत,
ReplyDelete"कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है
और
वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भांति
वर्णन करता है
तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति सुनता है और
कोई कोई तो सुनकर भी इसे नहीं जानता "
वाह क्या शब्द है ये, अब बदले में कहने को भी शब्द नहीं मेरे पास,
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (23-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
बहुत सुन्दर सार्थक आलेख। अक्सर सोते हुये कै बिन्दू दिमाग मे चलते रहते हैं और आपको पडःा कर कुछ समाधान भी मिलता है। धन्यवाद।
ReplyDeleteराकेश जी आपके पास बहुत सुंदर और नेक नजरिया है चीजों को देखने और उनके विश्लेषण का. एकदम अभूतपूर्व.
ReplyDeleteउत्तम व्याख्या...
ReplyDeleteआदरणीय राकेशजी,
ReplyDeleteआत्म ज्ञान रूपि सरयू में गोता लगवाने के लिए आभार.
प्रभु,मेरे लिए आज तो थोड़ा कठिन विषय हो गया.
कारण शरीर,स्थूल शरीर,सूक्षम शरीर ,ये सभी राम मंदिर ही तो हैं.
गुण ही राम नहीं,अवगुण भी राम ही हैं.
काम राम,क्रोध राम,लोभ राम ,मोह राम,अहंकार राम.
सब राम ही राम है तो फिर स्थूल क्या सूक्षम क्या.
सब से बेहतर तो भाव शरीर है.मैं भक्त हूँ,यह भाव शरीर है.
भाव शरीर में इष्ट की मुख्यता और अपनी गौणता होती है.
जिस भी मार्ग पर चलें ,भाव शरीर से चलें और साध्य की तरफ चलते चलते साध्य में लीन हो जाएँ.
आदरणीय राकेश जी,
ReplyDeleteआप जैसे ज्ञानी जन गुणी जन दुर्लभ हैं.मेरा सौभाग्य है जो आप से परिचय हुआ.
जब महात्मा अर्जुन को साक्षात् प्रभु के सम्मुख होते हुए भी बार बार समझाने के लिए आग्रह करना पडा तो प्रभु ,हम तो तुच्छ प्राणी हैं,कुछ भूल हो जाए तो क्षमा कर दीजिएगा.
जो सत्संग चिंतन की तरफ ले जाए वही सार्थक होता है.
आपका सत्संग तो इस से भी आगे बढ़कर प्रभु के दर्शन करवा देता है.
आभार के लिए शब्द नहीं हैं.
बहुत मेहनत से आप ने विषय वस्तु का चयन किया है,और उतनी ही सुन्दर व्याख्या भी की है.
अनुभव और ज्ञान का खजाना है आपके पास,बस यूं ही लुटाते रहिये.तृप्त करते रहिये.
यही तो ज्ञान स्वरूपानंद है,बोध स्वरूपानंद है.
बस आनंद ही आनंद.
शरीर का निर्माण होता है . परन्तु, हमारा मरण कभी नहीं होता. जन्म से पहले और मृत्यु के
ReplyDeleteपश्चात भी हम आत्मा रूप में हमेशा विद्यमान रहते है.
jeevan ko nai disha mil jaaye agar in saari baton ka hum anusaran kar paaye ,jeevan -saar hai is amrit dhara me ,padhte huye sudh hi nahi rahti aur kisi ki .geeta to main bhi padhti hoon .usme kahi baate wakai adbhut hai bada aanand aata hai padhne me .sundar bahut sundar vyaakhyaa
बहुत सुंदर पोस्ट! आत्मज्ञान जैसा गूढ़ विषय भी आपने इस तरह सरल बना कर प्रस्तुत किया है कि प्रशंसा के लिये शब्द नहीं हैं, बधाई !
ReplyDeleteगुरूजी प्रणाम --"कहते हैं सरयू के जल में राम जी यानि 'सत्-चित आनंद ' ने 'जल समाधि' ली हुई है.
ReplyDeleteजिस कारण इसके जल का सेवन करने से 'चिर स्थाई आनंद' का अनोखा स्वाद भी
मिलता है और जीव सहज शांति को प्राप्त हो जाता है. " आज आपने सरयू की बिशेषता ..बड़े ही गहन और सार्थक रूप में समझा दिए है ! सोने पर सुहागा चढ़ते जा रहा है !
बहुत अच्छी व्याख्या
ReplyDeleteराम का अभिराम और चिन्तन का स्वर्ग।
ReplyDeleteयह पोस्ट पढ़ कर कई नई जानकारी मिली सरयू के तीर जाने की आकांक्षा बलवती होने लगी है |मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आभार
ReplyDeleteआशा
bahut hi gyaanverdhak lekh.dil main uthti hui kai baaton ka samaadhaan karataa huaa.bahut achcha laga aapke blog main aaker.thanks.
ReplyDeleteअति उत्तम व्याख्या ....
ReplyDeleteबहुत ज्ञानवर्धक और शांतिप्रदायक भी ..
इन सारी बातों का अगर अनुसरण किया जाए तो जीवन को नई दिशा मिल सकती है| बहुत सुन्दर लेख|
ReplyDeleteसुंदर .....आपकी सभी पोस्ट शोधात्मक हैं...... राम चरित्र से जुड़े पावन विचारो को साझा करने हेतु आभार
ReplyDeleteअद्भुत....गजब की व्याख्या. बधाई..जारी रहें.
ReplyDeleteआत्मा का ज्ञान भय से मुक्त करने में सदैव समर्थ है ...
ReplyDeleteसरयूजी के पवन जल के स्पर्श सी व्याख्या ...मुग्ध हुए !
आभार !
यदि हृदय में 'राम मंदिर'
ReplyDeleteका सही प्रकार से निर्माण हो जाये तो भौतिक जगत में राम मंदिर कहीं भी हो, इसका कोई
फर्क पड़नेवाला नहीं है.कहतें है आस्था और विश्वास से जैसा अंतर्जगत में हो वैसा ब्राह्य
जगत में भी घटित हो जाता है.Rakesh ji aapke is lekh se avadhpuri aur saryu nadi ke vishay me jaankari mili.bahut achcha likhte hain aap.ramcharitmanas ka avlokan bhi saath sath ho raha hai.aapka aabhar.
आत्मा के विलक्षण आनंद के अनुभव की किसी भी अन्य आनंद से
ReplyDeleteतुलना ही नहीं की जा सकती. .आत्मज्ञान रूपी 'सरयू' के जल को इसी वजह से अति गहन
और गंभीर बताया गया है... satya hai yah rakesh ji , is gyan bhare satya ke liye aapka shukriyaa
आदरणीय राकेश जी,
ReplyDeleteबहुत सुंदर पोस्ट! आत्मज्ञान का विषय प्रस्तुत किया है ......
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आभार
बिल्कुल सही कहा है आपने ।
ReplyDeleteज्ञानवर्धक और उत्तम प्रस्तुति ..आभार इसके लिये ।
ReplyDeleteमैं शरीर नहीं हूं, आत्मा हूं।
ReplyDeleteआध्यात्मिक ज्ञान की सुंदर चर्चा।
आत्मज्ञान के द्वारा हम स्वयं के 'आनंद' स्वरुप का बोध कर पाते हैं .आनंद का अक्षय स्रोत अंत:करण में ही निहित है. आत्म बोध से 'कारण शरीर' का स्वाभाविक रूप से क्षय होता है.
ReplyDeleteआत्मज्ञान रुपी विचार प्रवाह से आनंद की तरंगें हृदय में उठने लगतीं हैं. जब यह प्रवाह हृदय में अनवरत व नित्य प्रकट होने लगता है तो दिव्य सरिता का रूप धारण कर हृदय
की कलुषता का निवारण करता रहता है और हृदय को पवित्र पावन बना देता है,जिससे हृदय में उपरोक्त वर्णित अवधपुरी का भी वास होने लगता है. यह आत्मज्ञान रुपी विचार प्रवाह की दिव्य सरिता ही 'सरयू' नदी है.
आत्मज्ञान रुपी विचार प्रवाह की दिव्य सरिता से अवगत करने हेतु आपका आभार... आपका सत्संग अनुभव और ज्ञान का असीम भंडार है....बस बाँटते जाइये इसे...
आदरणीय राकेश जी,
ReplyDeleteराम चरित्र से जुड़े पावन विचारो को साझा करने हेतु आभार
आत्मज्ञान का विषय प्रस्तुत किया है
राकेश जी!
ReplyDeleteआपने बहुत ही सारगर्भित आलेख प्रस्तुत किया है!
वर्तमान परिपेक्ष्य में तो तो इसकी प्रासंगिकता और भी अधिक है!
क्योंकि मर्यादाओं का हनन पग-पग पर नजर आता है!
प्रभु,आपने घर बैठे पवन-सरयू के स्नान लाभ करा दिए.इतना श्रम करके तो आप वास्तव में राम-काज कर रहे हैं!
ReplyDelete'दरस,परस,मज्जन अरु पाना....में आपके माध्यम से हमने पाने का पुण्य तो हासिल कर ही लिया है !
'पावन-सरयू' पढ़ा जाए !
ReplyDeleteएक गहन अध्यात्मिक चिंतन..बार बार पढने को मजबूर करता है..आपकी पोस्ट केवल ज्ञान वर्धक ही नहीं, बल्कि पढने के बाद एक अद्भुत आत्मिक शान्ति का अनुभव होता है..बहुत सार्थक...आभार
ReplyDeleteaap ke likhe ko padh kar lagta hai jyan aur adhyatm ke sagar me dubte jate hain.
ReplyDeleteaap ki lekhni ko naman karne ka man karta hai .
saader
rachana
आदरणीय राकेश जी,नमस्ते! आपने बहुत सुन्दर लिखा है
ReplyDeleteयदि हृदय में 'राम मंदिर'का सही प्रकार से निर्माण हो जाये तो भौतिक जगत में राम मंदिर कहीं भी हो, इसका कोई फर्क पड़नेवाला नहीं है.
मेरे ख्याल से इश्वर का सच्चा स्थान तो आपका हर्दय ही है ये पत्थर की बेजान मूर्तियाँ नहीं !
आपने महर्षि दयानंद जी की बातो को अपनी लेखनी के द्वारा सार्थक ही किया है , इस राह मे मैं भी आपके साथ हूँ , आपके इन्ही विचारों की वजह से मे भी आपकी समर्थक बन गई हूं> कृपया यही सिलसिला आगे भी जारी रखिये . आपसे बहुत कुछ सिखाने को मिल रहा है ..
यहाँ बच्चन जी का शेर याद आ रहा है ---मंदिर मस्जिद लड़वाते राह दिखाती मधुशाला
बहुत सुन्दर सार्थक लेख…………. धन्यवाद
ReplyDeleteराकेश जी राम जन जन के मन में बसे हैं उनकी इतनी गहन व्याख्या और इतना अद्भुत विशलेषण पढ़ कर बहुत अच्छा लगा ।
ReplyDeleteराकेशजी...
ReplyDeleteपहले तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ कि आपके ब्लॉग पर नहीं पहुच पाई..इसे मैं अपना आलस्य ही कहूं तो शायद ठीक होगा...! और आज जब आई तो अफ़सोस ही हुआ कि मैं पहले क्यूँ नहीं पहुँची...!!
मैंने आपकी रचनाएं पढीं...
हर इंसान के अस्तित्व के कई स्तर होते हैं...
और उनमें से एक महत्त्वपूर्ण स्तर की आवश्यकता की पूर्ति आपकी रचनाएं करती हैं..!!धर्मिकता के साथ-साथ आध्यात्मिक दर्शन से आपकी रचनाएं ओतप्रोत हैं......!!
आपका आभार हम सभी का मार्गदर्शन करने के लिए...
एक बार फिर से क्षमाप्रार्थी हूँ.....!!
bahut khoobsoorat likha hai aapne... itni shuddh bhasha ka uccharan pehli baar kisi blog mein dekha hai... padh ke bahut accha laga... aise hi likhte rahiye aur hamein prerit karte rahiye :)
ReplyDeleteAnukriti Sharma
बहुत ही सुन्दर और शानदार रूप से व्याख्या किया है आपने! बहुत बढ़िया, महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक पोस्ट रहा! आपकी लेखनी के बारे में जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है! आपके हर एक पोस्ट से मुझे ज्ञान प्राप्त होता है! आपकी लेखनी को सलाम!
ReplyDeleteराकेश जी,
ReplyDeleteआपका चिंतन हमेशा बार बार और समय निकालकर सुक्ष्मता से पढना होता है। तभी आनंद आता है। इसलिये प्रतिक्रिया में हमेशा देरी हो जाती है।
साथ ही विवेचन इतना सम्पूर्ण होता है कि विशेष प्रतिक्रिया को अवसर ही नहीं मिलता।
आपका अध्यन और चिंतन गहन है राकेश जी!! स्थितप्रज्ञ कर देता है।
चकित हूँ………
"अवधपुरी हृदय में स्थित एक ऐसी ही संपन्न पुरी है जहाँ समस्त दैवीय संपदा जैसे 'अभय
यानि मृत्यु आदि समस्त भयों का अभाव, अंत:करण की निर्मलता, उत्तम कर्मों का आचरण ,
क्रोध का सर्वथा अभाव, दया, अहिंसा आदि सद्गुणों का निरंतर विकास होता रहता हैं. यह सब
विकास इसीलिए संभव होता है क्यूंकि अवधपुरी की उत्तर दिशा में 'आत्म ज्ञान' रुपी सरयू
नदी निरंतर बहती रहती है. उत्तर दिशा 'परिपक्वता' का प्रतीक है"
जय श्री राम !
ReplyDeleteखुश रहो ,भतीजे !
राम,राम !
हम जब धर्म की बात करते हैं तो याद रखना चाहिये कि उसका आधार कर्मकांड नहीं बल्कि अध्यात्मिक ज्ञान है और भगवान श्री राम उसके एक आधार स्तंभ है। हम जब उनमें आस्था का दावा करते हुए वैचारिक रूप संकुचित होते हैं तब वास्तव में हम कहीं न कहीं अपने हृदय को ही धोखा देते हैं। मंदिरों में जाना कुछ लोगों को फालतू बात लगती है पर वहां जाकर अगर अपने अंदर शांति का अनुभव किया जाये तब इस बात का लगता है कि मन की मलिनता को निकालना भी आवश्यक है। अगर कोई व्यक्ति घर में ध्यान लगाने लगे तो उससे बहुत लाभ होता है पर निरंकार के प्रति अपना भाव एकदम लगाना आसान नहीं होता इसलिये ही मूर्तियों के माध्यम से यह काम किया जा सकता है। यही ध्यान अध्यात्मिक ज्ञान सुनने और समझने में सहायक होता है और तब जीवन के प्रति नज़रिया ही बदल जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि मंदिर और मूर्तियों का महत्व भी तब है जब उनसे अध्यात्मिक शांति मिले। सच बात तो यह है कि भगवान श्रीराम हमारे न केवल आराध्य देव हैं बल्कि अध्यात्मिक पुरुष भी हैं जिनका चरित्र मर्यादा के साथ जीवन जीना सिखाता है।
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com
. "बंदउ अवधपुरी अति पावनि, सरजू सरि कलि कलुष नसावनि"
ReplyDeleteआदरणीय गुरु जी नमस्ते !
व्यस्तता के कारण देर से आने के लिए माफ़ी चाहता हूँ.
आप मेरे ब्लॉग पे पधारे इस के लिए बहुत बहुत धन्यवाद् और आशा करता हु आप मुझे इसी तरह प्रोत्साहित करते रहेगे !
बहुत उपयोगी एंव ज्ञानवर्धन जानकारी दी है आपने, साथ ही बहुत ही सुन्दर तरीके से विश्लेषण भी किया है.
वक्त रहते उपरोक्त बिंदुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए, मैं आपकी इसमें कही हुई सारी बातों से सहमत हुॅ।
इतनी अच्छी जानकारी के लिए आभार आपका !
राकेशजी
ReplyDeleteसरयू स्नान करवाया
उत्तर में उत्तम दिखाया
शास्त्र शरण लेकर
पथ सीमापार दिखाया
सर्वव्यापक की महिमा का
मधुर रसपान कराया
आपकी प्रेममय अभिव्यक्ति ने
आस्था को दृढ करवाया
और आनंद को बढ़ाया
धन्यवाद, प्रणाम और रामजी की जय जयकार
सादर, सस्नेह, बहुत बहुत आभार
अशोक व्यास
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
ReplyDeleteनवानि गृह्णाति नरोSपराणी
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही
गीता के दुसरे अध्याय में श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि जिस तरह से हम वस्त्रों को धारण करने के बाद पुराने होने पर उन्हें बदल देते हैं या त्याग देते हैं उसी तरह यह आत्मा भी जीर्ण शीर्ण शरीरों को त्याग कर नए शरीरों को धारण करती है ..!
श्री कृष्ण कि यह बात हमें जीवन के प्रति मोह से उपर उठाती है और जीवन को सद्मार्ग पर ले जाने के लिए प्रेरित करती है ..क्योँकि इस धरती पर आकर मनुष्य माया में इस तरह से लिप्त हो जाता है कि वह अपनी वास्तविकता को भूल जाता है ...और शरीरों के बंधन में फंसा रहता है ....आत्मा परमात्मा का अंश होने के कारण कभी समाप्त नहीं होती ..लेकिन अगर मुक्ति को प्राप्त नहीं हुई तो शरीरों के बंधन में बंधी रहती है ..!
केवल भाई,
ReplyDeleteआपकी टिपण्णी मेरे ब्लॉग पर आ गई है.परन्तु लगता है कुछ ब्लोगर जन की अभी भी नहीं आ पा रही है.
आत्मा की मुक्ति के लिए हमें इसके मूल से जुड़ना होगा जिसे हम परमात्मा कहते हैं ....आत्मा ना जाने कितने वर्षों से परमात्मा से बिछड़ी हुई है और यह तब तक उसमें विलीन नहीं हो सकती जब तक कि वह इस शरीर में रहते हुए उसे प्राप्त न कर ले ..जिसे हम 'सत्-चित आनंद ' कहते हैं वह यह परमात्मा ही तो है जिसे हम अपने से दूर समझ बैठे हैं ...और भ्रमों का शिकार हैं ....आदरणीय राकेश जी आपने बहुत गहनता से हर एक पक्ष पर प्रकाश डाला है ...आपका आभार इस गहन चिंतन को हम सबके साथ साँझा करने के लिए आशा है आप हमें इसी तरह से अपने चिंतन से अनुग्रहित करते रहेंगे ...आपका आभार
ReplyDelete----आनन्द ही आनन्द.....नेति...नेति....
ReplyDeleteराकेश जी ..... हृदय में ही राम मंदिर का निर्माण हो सके ... यदि ऐसा हो जाए तो संपूर्ण विश्व में राम राज्य आ जाएगा ...
ReplyDeleteसरयू की इस रूप को नही जाना था आज तक .... आपके ब्लॉग पर आ कर जो ज्ञान प्राप्त होता है उसके बारे में बता नही सकता ... बस आनद ही ले सकता हूँ ... नये दृष्टिकोण से विषय को देखना और विज्ञानिक दृष्टि से उसका अवलोगान करना ... नतमस्तक हूँ आपके सामने ...
टिप्पणी देकर प्रोत्साहित करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
ReplyDeleteहम तो आप जैसे महात्माओं में ही प्रभु दर्शन कर लेते हैं ! शुभकामनायें राकेश भाई !!
ReplyDeleteराकेश जी, सर्वप्रथम क्षमा चाहती हूँ देर से आने के लिए .आपने ससंदर्भ सही कहा है गहन अनुसंधान और अनुभव के निकष पर ही कारण शरीर वाया परमात्मा तक जाया जा सकता है .हमें सरयू रूपी दिव्य सरिता में हर क्षण स्नान कर असीम आनंद प्राप्त करना चाहिए .एक बार आनंद की झलक मिल जाती है तो हम उसको बार-बार पाने का उपक्रम करते हैं .यह क्रम यूँ ही चलता रहता है .जब-तक जन्म-मृत्यु से आत्मा मुक्त न हो जाए .आपका पोस्ट सहज रूप से हर एक बात को समझा जाती है. आपका आभार
ReplyDeleteयह देखा गया है कि जब कोई नदी या सरिता जो निरंतर प्रवाहित होती है, जिसका जल
ReplyDeleteशुद्ध , पेय व कल्याणकारी होता है, जिसपर स्नान आदि करने के लिए सुन्दर घाट निर्मित
किये जा सकते हैं व जिसके किनारे कीचड़ आदि से मुक्त होते हैं तो उस नदी के
आस पास संपन्न नगर व पुरी भी बस जाते हैं.
waakai, iske udaaharan kaafi hain....
kaafi shodh ke pashchaat likha gaya aalekh...
nissandeh "appreciation" deserve karta hai....
आत्मज्ञान न होने की स्थिति में हम खुद को अज्ञानवश स्थूल शरीर ही मान
ReplyDeleteलेते हैं इसीलिए हमारे मस्तिष्क में जाने अनजाने यही 'command' जाता रहता है कि
स्थूल शरीर के मरण के साथ ही हमारा भी मरण हो जायेगा. जिस कारण हम स्थूल शरीर
की मृत्यु के समय मृत्यु भय से ग्रस्त हो अपनी तमाम याददाश्त को ही विस्मृत कर डालतें हैं
और जब नवीन शरीर ग्रहण करते हैं तो पिछला कुछ भी याद नहीं रहता. जबकि ऐसा बचपन
या जवानी की समाप्ति पर नहीं होता. क्यूंकि बचपन और जवानी की मृत्यु हम सहज मानते हैं
और मस्तिष्क को यह 'command' कभी नहीं देते कि हम मर गए हैं, इससे ह्मारी याददाश्त
बनी रहती है. ऐसे ही सोते वक़्त भी हम यह कदापि महसूस नहीं करते कि सोने से हम मर
जायेंगें. इसलिये सोकर उठने पर याददाश्त बनी रहती है. स्थूल शरीर की मृत्यु के समय
केवल अज्ञान के कारण ही हम खुद के मरने का गलत 'command' दे बैठते हैं. फलस्वरूप
'याददाश्त' का लोप हो जाता है और सम्पूर्ण ज्ञान विस्मृत हो जाता है.
yah bahut rochak laga.....
राकेश जी ,
ReplyDeleteआज तो इस लेख को पढ़ कर मन पवित्र ही हो गया
'राम मंदिर' के लिए हमें दर दर न भटकना पड़े. यदि हृदय में 'राम मंदिर' का सही प्रकार से निर्माण हो जाये.
ऐसा होना सरल तो नहीं ..लेकिन प्रयास से क्या नहीं हो सकता ...सरयू की व्याख्या पढ़ आनंद आ गया ... आभार
.
ReplyDeleteददिहाल और ननिहाल फैजाबाद में होने के कारण, तथा पिताजी की पोस्टिंग स्टेट बैंक अयोध्या में होने के कारण मेरा बचपन , श्रीराम की जन्मस्थली के इर्द-गिर्द , माँ सीता की रसोईं , कनक-भवन , कौशल्या भवन तथा हनुमान-गढ़ी में खेलते-कूदते बीता। हनुमान गढ़ी की वानर सेना से , प्रसाद बचाकर निकलना एक रोचक तथा दुष्कर कार्य था। सरयू नदी के तट पर पानी की लहरों से अटखेलियाँ करते हुए , इस जीवन स्वर्णिम समय व्यतीत किया है।
इसी विषय पर गतवर्ष एक पोस्ट लिखी थी । आज पुनः पढ़ी । आप भी निगाह डालियेगा। सरयू चर्चा , अयोध्या चर्चा और राम चर्चा है इस लेख में।
ठुमक चलत रामचंद्र , बाजत पैजनिया --रामकोट-अयोध्या -- और मेरा बचपन !
http://zealzen.blogspot.com/2010/09/blog-post_19.html
regards,
.
बहुत सुन्दर .... आपकी मेहनत के कारण हम इस आध्यत्मिक चिंतन का आनन्द उठा पा रहे है
ReplyDeleteसादर
कहना रह गया था ..श्री राम के जीवन चरित्र सुनाने वाले तो केवल किताबी ज्ञान रखते हैं पर भक्ति का आभाव होने के कारण जनमानस पर प्रभाव नहीं डालता है .पर आपको पढ़कर ऐसा लगता है कि मन उसी आनंद के सागर में उतरता जा रहा है ..आपका बहुत बहुत आभार
ReplyDeleteआपके इस लेख ने पवित्र कर दिया जैसे.............इतनी सुंदर व्याख्या अब तो लगता है बस आप हर दिन कुछ लिखे और हमे सारा ज्ञान आपसे ही मिल जायेगा.......आपका धन्यवाद् इतनी सुंदर व्याख्यानों के लिए
ReplyDeleteआपको हमारा सादर प्रणाम , आपने तो इतनी खूबसूरती से सरयू नदी का चित्रण दिया की भीतर से जन्म और मृत्यु का भय ही खत्म होने लगा बहुत खुबसूरत वर्णन | और ये कहना की ...........यह आत्मज्ञान रुपी विचार प्रवाह की दिव्य सरिता ही 'सरयू' नदी है.| मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ | और ये बात भी खुबसूरत लगी ............
ReplyDelete."कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है
और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भांति
वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति
सुनता है और कोई कोई तो सुनकर भी इसे नहीं जानता "
बहुत सुन्दर वर्णन इस सुन्दर वर्णन के लिए आपका बहुत - बहुत शुक्रिया |
muje apne 10 classs ke din yaad a gaye jab teacher saru nadi ka itna sundr varnan kiya karte the
ReplyDeleteaapke gyan saagar mein hum sabko bhi dubki lagane ka mauka dene ke liye dhanyawaad... sachmuch apki post se bahut kuch seekhne ko milta hai... saadar!
ReplyDeleteaadarniy sir
ReplyDeletenet ki gadbadi ki vajah se char -panch dino se kahin koi comments bhi nahi dal paa rahi thi .ab ye ram ji ki mahima hi kahiye ki aaj soubhagy se sabke blog kulte chle ja rahe hain.lekin pata nahi kitni der.
sir aapka ye shodhniy kary to bahut hi vilaxhan hai .aaj blog khulne se aapke post par aa paai varna itni behtreen v vykhyatmak post ko padhne se vanchit rah jaati.
saryu nadi ka to puratan kal se himahima ka varnan chala aaraha hai.par jo vistrit roop aur vykhya aapke blog par padhi tab iske mahtv ko samajh paai hun .suna v thodi bahut jankaari thi .par itna dhyan kabhi bhi nahi gaya iska pura ka pura shrey aapko jaata hai .aap sach me bahut bahut hi badhai ke patra hai aur ham usse bhi badh kar bhagy shali jo aapke jariye hi adhbhut v vilaxhan jankaari padhne ke liye mili .
sir, ye to mera bhi manana hai ki jab dil me har wakt ishwar vaas karte ho aur jubaan pe har waqt hi prabhu ka naam ho to mandir jaane ki kya aawasykata hai .yah jarur hai ki mandir jaane se wahan ka bhakti-purn mahoul v bhajan kirtan man ko baandh leta hai.aur bahut hi aanandmay -vatavaran hota hai .
par jab ham apne ko hi "aham brhmasmi" mante hain arthat mere andar hi prabhu ka niwas hai to man hi mandir hai.
आश्चर्य इसलिये है कि आत्मा के विलक्षण आनंद के अनुभव की किसी भी अन्य आनंद से
तुलना ही नहीं की जा सकती. .आत्मज्ञान रूपी 'सरयू' के जल को इसी वजह से अति गहन
और गंभीर बताया गया है.
aapki post ki in panktiyon se yatharth hi parilaxhit hota hai. bahut bahut sateek vishhleshhan kiya hai aapne .
jitni baar bhi aapko naman karun ,vo kam hi lagega.
bahut bahut hardik abhinandan
v-sadar naman ke saath
poonam
बहुत सुंदर, आपका बहुत - बहुत शुक्रिया |
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
अच्छी व्याख्या करते हैं आप पढने से कुछ शंकाओं के समाधान के साथ नई जानकारियां भी मिलती है।
ReplyDeleteराकेश जी, सरयू जी और राम जी पर रामायण और भगवद्गीता के आधार पर बहुत सुन्दर विचार प्रस्तुति के लिए धन्यवाद्!
ReplyDeleteआप इंजिनियर होने के अतिरिक्त अंग्रेजों द्वारा रचित कानून के ज्ञाता भी हैं, और ब्रिटिश राज्य में मान्यता थी कि सूर्यास्त ही नहीं होता था, इस कारण आपका राम जी से (सतयुग के अंत में सूर्य के प्रतिरूप ब्रह्मा, त्रेता में धनुर्धर राम, द्वापर में धनुर्धर अर्जुन) और पृथ्वी (सतयुग के अंत में पृथ्वी के प्रतिरूप शिव, त्रेता में लक्षमण, द्वापर में युधिस्टर) पर उबलब्ध शक्ति के मूल स्रोत सूर्य, अथवा सौर-मंडल से प्रेरित होना शायद स्वभाविक ही है...
यद्यपि शब्दों में वर्णन कठिन है, संक्षिप्त में कहूं तो जो 'मैंने' विभिन्न कहानियों आदि के माध्यम से समझा है, काल के सतयुग से कलियुग की ओर प्राण-दायक नदी जल समान बहाव के कारण, मानव जीवन के 'सत्य' की खोज में - आधुनिक वैज्ञानिकों समान ही किन्तु उनसे अधिक ज्ञानी - अनुसंधान करने वाले प्राचीन वैज्ञानिकों, खगोल शास्त्री व् सिद्ध पुरुषों, योगियों, के माध्यम से प्रत्येक साकार की रचना में 'पंचतत्व' को आवश्यक जाना गया,,,
और मानव शरीर की संरचना में शून्य काल और स्थान से सम्बंधित नादबिन्दू विष्णु यानि अजन्मी और अनंत शक्ति रूप 'परमात्मा' के एक अंश 'आत्मा' का योग भी तपस्या, साधना, कर योगियों ने शरीर में बंटा हुआ पाया,,, यानि हिन्दू मान्यतानुसार स्थूल अस्थायी शरीर को सौर-मंडल के नौ सदस्यों, 'नवग्रह', के सार से बना जाना गया, और उनमें हरेक में भंडारित शक्ति और सूचना को शरीर में मेरुदंड के साथ, मूल से सर तक, आठ स्थानों पर दर्शाया जाता आया है, हरेक ग्रह आठ में से एक दिशा का राजा अथवा दिग्गज जाना गया,,, और वे सब, नौवें ग्रह, शनि के सार से बने नर्वस सिस्टम द्वारा जुड़े, जिन्हें मुख्य रूप से नदी के स्थान पर नाड़ी कह पुकारा गया (कृष्ण की) यमुना, मध्य में (राम की) गंगा, और ब्रह्मपुत्र के प्रतिरूप,,,
इसके अतिरिक्त, सूर्य और पृथ्वी, जो आरंभ में एक अग्नि के गोले मात्र थे, यानि क्रमशः 'ब्रह्मा' और 'शिव' के उत्पत्ति के पश्चात सर्वश्रेष्ठ अमृत रूप, जबकि शेष नाग पर लेटे 'विष्णु' कहा गया पृथ्वी के केंद्र में केन्द्रित शक्ति को, जो सौर-मंडल के सदस्यों के अंतरिक्ष के शून्य में, हमारी गैलेक्सी के भीतर, साढ़े चार अरब वर्ष से भी अधिक काल से साकार रूप में उपस्थित है,,, और जो उनकी चाल के द्वारा जनित काल की गणना पर आधारित सतयुग से कलियुग के चक्र को माया के कारण दर्शाते जाने गए, यद्यपि वास्तविक काल सदैव शून्य ही है :)...
everything is god everywhere is god
ReplyDeletethen how come this physical body is not god
Since, physical body is subjected to natural decay and change, and one day we have to depart from it,the attachment with physical body would surely give rise to disappointment and sorrow.As per our Holy Books(Shastras) God is defined as'sat-chit-anand' means 'absolute happiness' not depending on time,place or situation etc.So the attachment with the physical body treating it to be 'absolute happiness'may not help us to realize 'absolute happiness' because of the changes in physical body and death of it.If we treat body as a'means' only to achieve and realize 'absolute happiness', that would be a better assumption.
ReplyDeleteउत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर एवं सार्थक लेखन .
"कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है
ReplyDeleteऔर वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भांति
वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति
सुनता है और कोई कोई तो सुनकर भी इसे नहीं जानता "
What Beautiful Lines...Yet Another Well Written Post...
I Must say Rakesh Sir you should write a book on "आध्यात्मिक चिंतन"
वोलो सियावर रामचंद्र की जय
ReplyDeleteहल्ला बोल: धन्य है वो मानव जिन्होने पवित्र भारतवर्ष मे सनातन धर्म मे जन्म लिया है.
बोलो सियावर रामचंद्र की जय
ReplyDeleteहल्ला बोल: धन्य है हम लोग जिन्होने पवित्र भारतवर्ष मे सनातन धर्म मे जन्म लिया है.
ऐसी आध्यत्मिक पोस्ट मन को शांति पहुंचाती है.
ReplyDeleteपहले पहले गलती से लेट आता था आप ब्लॉग पर अब जानबूझ कर लेट आता हूँ...
ReplyDeleteएक तो आप के ब्लॉग पर बहती हुए सरयू की पवित्र धारा में स्नान का अवसर..राम के गूढ़ ज्ञान का दर्शन..
दूसरे इस पोस्ट पर ज्ञानी जनों की टिप्पड़ियां बोनस में मिल जाती हैं पढने को....
बाकि आप की पोस्ट का क्या विश्लेषण करू..ज्ञान की अविरत बहती भागीरथी...
सरयू स्नान करने के लिए हम भी लालायित रहते हैं. आध्यात्म ऐसा ही विषय है जिसमें जितना भी ज्ञान मिले काम ही है. आपके ब्लॉग पर आत रहती हूँ लेकिन फिर भी जितना जानने को मिलता है उससे और जानने की उत्कंठा बढती जाती है. आपके इस विषद ज्ञान गंगा में डुबकी लगवाने के लिए बहुत बहुतधन्यवाद.
ReplyDeleteआदरणीय राकेश जी ,
ReplyDeleteसर्व प्रथम तो विलम्ब से आने के लिए खेद .....
आया तो गहन अध्यात्मिक चिंतन से परिपूर्ण लेख पढ़कर ह्रदय आनंद से भर गया |
'सरयू ' का महात्म्य ....प्रभु राम ने स्वयं कहा ....'अवध पुरी मम पुरी सुहावनि |
उत्तर दिशि सरयू बह पावनि |
जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा |
मम समीप नर पावहिं वासा |
राष्ट्र कवि मैथिलि शरण गुप्त ने लिखा ........'किन्तु सुर सरिता कहाँ ? सरयू कहाँ ?'
गुप्त जी ने लिखा की गंगा जी मरणोपरांत भव पार कराती हैं किन्तु सरयू तो जीवितों को तारती हैं |
It was a treat for me to read all of your posts.
ReplyDeleteAlthough I have seen Ramayana but I never thought about it, or read about it in this much detail.
I'd love to get more insight of Ramayana like this in next posts !!!!
यदि हृदय में राम मंदिर की स्थापना हो जाए फिर भौतिक जगत में राम मंदिर कहीं भी हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता .सवाल किया भी आपने है और ज़वाब भी दे दिया है .
ReplyDeleteजाकी रही भावना जैसी ,प्रभु मूरत देखी तिन तैसी .और यह भी" होई है वही जो राम रची राखा ..."असली मुद्दा सरयू हो या ताप्ति नदियों के प्रवाह से जुड़ा है .नदियों की धमनियां तो कचरे से अवरुद्ध हैं .
Rakesh kumar ji......
ReplyDeleteNamaskaar!
Congrats again on writing such a wonderful post.
I liked it very much.
prya rakesh sahab ,
ReplyDeletesadar pranam ,
pahle mafi ,fir ardas , wastav men apka adhyatmik chintan,sare prvagrhon ko tyag kar madhur jivan ko sadbhavana talas karne ka path deta hai, jo mujhe sarv priy hai . badhayi .
राकेश जी.............आपका सरयू में स्नान का निमंत्रण मैंने स्वीकार किया था........आज वक्त निकाल कर ज्ञान रूपी इस सरयू में जो डुबकी लगाईं तो अब इस से निकलने का मन ही नहीं हो रहा है..........बहुत अच्छा,सारगर्भित,आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत लेख..........आपको बधाई !
ReplyDeleteवाह जी आप ने तो भगवान राम के दर्शन ही करवा दिये अपने इस लेख मे, बहुत सुंदर, धन्यवाद
ReplyDeleteज्ञानवर्धक आध्यात्मिक लेख.. धन्यवाद
ReplyDeleteआदरणीय श्रीराकेशजी,
ReplyDeleteआपका ब्लॉग और आपका चिंतन समाज उपकारक है। आपका बहुत धन्यवाद।
ओम् सच्चिदानन्देश्वराय नमो नम॥
मार्कण्ड दवे।
ओम् सच्चिदानन्देश्वराय नमो नम:
ReplyDeleteRakesh ji!! aapka aabhaar aisa chjintan aur ye vichar sach aaraam se baith kar samjhne yogy hai... Gyanvardhak..
आदरणीय राकेशजी,
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर टिप्पणी हमेशा देर से करता हूँ, लेकिन इसका अर्थ यह मत निकालियेगा कि पढ़ने भी देर से आता हूँ। कई कई बार पढ़ते हैं हम आपकी पोस्ट। विषय गहन, गंभीर और हम चंचल, उच्छृंखल। बार बार पढ़ने से बार बार आनंद भी मिलता है और कुछ सदविचार रिसकर अंतस तक भी पहुँचते हैं। कभी न कभी कुछ पा सकेंगे, यह आशा भी है और विश्वास भी। दैहिक, जैविक, भौतिक ताप के बीच इस सरयू-स्नान ने आत्मा प्रसन्न कर दी। हृदय से आभार मान रहा हूँ।
प्रातकाल सरजू कर मज्जन बैठहिं सभा संग द्विज सज्जन
ReplyDeleteआपकी पोस्ट और टिप्पणियों से कुछ ऐसा ही भाव उमड़ आया है
ज्ञानवर्धक आध्यात्मिक लेख.. धन्यवाद
ReplyDeleteजय राम जी की!
ReplyDelete@... और कोई कोई तो सुनकर भी इसे नहीं जानता
फिलहाल तो अपन शायद इसी श्रेणी में हैं। सुनते रहेंगे तो शायद कुछ बदले। आपका आभार!
सरयू तट पर तो हम भी घूम चुके हैं , डुबकी भी मार चुके हैं और अयोध्या भी देख चुके हैं । आज आपकी आंखों से देखना और महसूसना भी गजब का आनंद दे गया । बहुत ही श्रम से लिखा गया आलेख राकेश भाई । आपके ब्लॉग पर हिंदी ब्लॉगजगत गर्व करके इतरा सकता है , शुभकामनाएं
ReplyDeleteaadarniy sir main to aapke blog par kuchh addhbhut pdhane v pane ke liye aai thi.
ReplyDeleteसुधिजन इस विषय कि 'रामजन्म और राम मंदिर का क्या स्वरुप हो' पर विस्तार से
अपने अपने विचार प्रकट करें तभी इन पोस्टों की सार्थकता का भी अनुभव हो पायेगा.
ओम् सच्चिदानन्देश्वराय नमो नम: han! aapne bilkul sahi likha hai ki hame bhi is asdbhut gyan ki mahima ki varshha karne blog ke liye apne vichar v sahyog jarur prastut karne cahiye.
par sir ,main aapke samane to bilkul hi nagany hun par fir bhi koshish karungi v apne blog mitron se bhi svinamra anurodh kar na chahungi ki vo bhi apna thoda sa bahumulay samay is bolg ki se seva me jarur sarpit karen
shesh aswasthta ke douraan bhi dimag ke gode doudaungi ki main bhi is pawan v vilaxhan blog ke liye thoda bhi bhaut soch v likh paungi to jarur aisa karungi -----sheh sai nath ke haath
sadar abhinandansahit
poonam
hoihein joi ram rachi rakha-------
आदरणीय राकेश जी .....
ReplyDeleteराम... राम!
आपके ब्लॉग पर आकर मन राममय हो गया है. मैंने ये लेख ध्यान से पढ़ा है.पढ़ने के बाद जो ख़ुशी और संतुष्टि महसूस हो रही उसे शब्दों में कहना बहुत ही मुश्किल है.सरल शब्दों के इस लेख को पढ़कर लग रहा है कि अब सरयू जाने की क्या आवश्यकता! एक बेहद उम्दा, जरूरी और सार्थक लेख के लिए आपको बधाई और आभार!
राम के जीवन को केंद्र में रख कर आप जिस तरह आध्यात्मिक प्रेरणा दे रहे हैं उस से हमारा ज्ञान वर्धन हो रहा है.. पौराणिक ज्ञान और चिंतन परंपरा से आप परिचय करा कर बहुत पुनीत कार्य कर रहे हैं वरना हमारी पीढी को कहाँ इतना ज्ञान.... सरयू नदी तो प्रतीक है ... संस्कृति का... और जिस तट पर राम पले बढ़ें हों तो उस नदी की संस्कृति महत्ता और अधिक हो जाती है..बहुत सुन्दर आलेख... देर से आपके ब्लॉग पर आने का लाभ यह होता है कि ज्ञान वर्धक टिप्पणियाँ पढने को मिलती हैं तो आलेख और स्पष्ट हो जाता है.. सादर
ReplyDeleteइस शोधपूर्ण आलेख से बहुत कुछ जानने को मिला।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर आलेख धन्यवाद
ReplyDeleteसौवा कमेन्ट .. इंतजारी है नयी पोस्ट की ..सादर
ReplyDeleteआदरणीय गुरु जी नमस्ते |
ReplyDeleteआपको पढ़कर ऐसा लगता है कि मन आनंद के सागर में उतरता जा रहा है |
इस ज्ञान वर्धक पोस्ट पर कमेंट्स के शतक पूरी होने के लिए बधाई........
उत्तम आलेख....
ReplyDeleteयह लेखन रुका क्यूँ है....लिखिये भाई नया...शुभकामना.
Welcome back !
ReplyDeleteआदरणीय गुरु जी नमस्ते | आपका योरप का टूर कैसा रहा रहा वहाँ की स्थिति के बारे में लिखिए !
ReplyDeleteअब यूरोप के कुछ किस्से और यात्रा वृतांत का इन्तजार रहेगा.
ReplyDeleteआदरणीय राकेश जी,
ReplyDeleteप्रभु का शुक्र है कि आप वापिस लौट आये,महफ़िल सूनी सी लग रही थी,राम जी के दर्शन भी नहीं हो रहे थे.
अब आप आ गए हो तो बहारें भी आ ही जायेंगी.
welcome back.
क्षमा माँगकर मुझे शर्मिंदा मत कीजिये! आप तो नियमित रूप से मेरे ब्लॉग पर आकर टिप्पणी देकर मेरा उत्साह बढ़ाते हैं! मैं समझ सकती हूँ की आप काम में व्यस्त हो गए थे! आपका यूरोप टूर कैसा रहा?
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
आप मेरे शिष्य नहीं बल्कि मैं आपका शिष्य बन जाऊं तो मेरे लिए ये सौभाग्य की बात होगी! आप जैसे महान लेखक से कुछ सिखने को मिले उससे बड़ी बात और क्या हो सकती है!
ReplyDeleteबहुत सी नई जानकारियां मिलीं। मैं पहली बार आपके ब्लाग पर आया हू, मुझे अच्छा लगा।
ReplyDeleteनियमित रूप से मेरे ब्लॉग पर आकर उत्साहवर्धक टिप्पणी देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
ReplyDeleteआपका यूरोप टूर तो बढ़िया रहा! कौन सा जगह आपको सबसे पसंद आया? स्वित्ज़रलैंड या वैटिकन सिटी?
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
"कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है
ReplyDeleteऔर वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भांति
वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति
सुनता है और कोई कोई तो सुनकर भी इसे नहीं जानता "
अनमोल वचन हैं ......
इस पोस्ट पर कुछ कहने के लिए शब्द नहीं मिल रहे हैं .. मन आनन्दित हो गया
एक अनुरोध :
कृपया इस पोस्ट में आपने जिन पुरानी पोस्ट्स का उल्लेख किया है उन्हें हाइपर लिंक बना दें ताकि वहां पहुँचने में पाठकों को सुविधा हो और वो भी इन बेहतरीन पोस्ट्स का आनंद और आसानी से ले सकें
प्रभो कैसे हैं ?
ReplyDeleteआइये कुछ आगे का कारबार चले ...
राकेश जी ...
ReplyDeleteदेरी के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ ..पर पता नहीं आप यकीं करेंगे कि नहीं मैं आपकी इस पोस्ट पर कई बार आई एक बार टिप्पणी दी जिसके बाबत आपको सोचित भी किया था ..दुबारा आई तो अपनी उसी टिप्पणी के शब्दों को खोजती रही क्यूंकि वो टिप्पणी बहुत डूब के दी थी इस सरयू प्रवाह में ..लेकिन वो शब्द खो गए कहीं ..तो मन उदास हो गया .. :) ....और मैंने सोचा कि मैंने तो इस सरयू प्रवाह में मन निर्मल कर लिया..शब्द मिले न मिले क्या फर्क पड़ता है...:) :)
अंतःकरण की सरयू का इतना सुन्दर विवेचन पढ़ कर मन प्रसन्न हुआ ...
आत्मज्ञान के द्वारा हम स्वयं के 'आनंद' स्वरुप का बोध कर पाते हैं .आनंद का अक्षय
स्रोत अंत:करण में ही निहित है. आत्म बोध से 'कारण शरीर' का स्वाभाविक रूप से क्षय होता है.
आत्मज्ञान रुपी विचार प्रवाह से आनंद की तरंगें हृदय में उठने लगतीं हैं. जब यह प्रवाह
हृदय में अनवरत व नित्य प्रकट होने लगता है तो दिव्य सरिता का रूप धारण कर हृदय
की कलुषता का निवारण करता रहता है और हृदय को पवित्र पावन बना देता है,जिससे हृदय
में उपरोक्त वर्णित अवधपुरी का भी वास होने लगता है. यह आत्मज्ञान रुपी विचार प्रवाह की
दिव्य सरिता ही 'सरयू' नदी है.
बहुत शुक्रिया और बधाई
आपने स्वित्ज़रलैंड का इतना सुन्दर वर्णन किया है ऐसा लगा जैसे मैं भी घूमकर आ गयी! मैं तो अभी तक यूरोप नहीं गयी हूँ पर एक न एक दिन ज़रूर जाउंगी ! वेटिकन के चर्च के क्या कहने! देखते हैं कब जाने का मौका मिलेगा!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सार्थक आलेख।
ReplyDeleteआपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
ReplyDeleteआप तो अध्यात्म की काफी गहराई में उतरे हुए हैं. आपके सारे पोस्ट्स को पढने के बाद विस्तार से टिप्पणी दूंगा. फिलहाल इतनी गहरी जानकारी ऑनलाइन उपलब्ध करने के लिए आभार प्रकट करता हूं.
ReplyDelete"कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है
ReplyDeleteऔर वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भांति
वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति
सुनता है और कोई कोई तो सुनकर भी इसे नहीं जानता "
यह समस्त श्रंखला अत्यंत ही बारंबार पठन योग्य, ज्ञानोपयोगी और प्रेरक है. इसके लिये आपको बहुत बहुत धन्यवाद और शुभकामनाएं.
aadeniy rakesh ji...blog jagat ke is adbhut khajane mein sanchit anmol nidhi upyog karke log kritarth ho rahe hain..sarjoo ke ghat se to har saptah gujrana hota hai..kasturi mrig ki tarah khusbhoo apne paas thi per gyan nahi tha..ab sarjoo ke prati dristikon bhi badla aur jaankari bhi..अवधपुरी की स्थापना 'सरयू' जी की कृपा से हमारे हृदय
ReplyDeleteमें ही हो, और 'राम मंदिर' के लिए हमें दर दर न भटकना पड़े. यदि हृदय में 'राम मंदिर'
का सही प्रकार से निर्माण हो जाये तो भौतिक जगत में राम मंदिर कहीं भी हो, इसका कोई
फर्क पड़नेवाला नहीं ..aapki in panktiyon ne aadhytam per bistrit charcha ke sath hi..ek adbhut sandesh bhi hai..aap eun hi likhte rahein..sadar pranam ke sath..
Bahut hi sundar aalekh
ReplyDeleteSaadhuwaad
शायद आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज बुधवार के चर्चा मंच पर भी हो!
ReplyDeleteसूचनार्थ