राम यानि 'सत्-चित-आनंद' का भाव व्यक्ति के ह्रदय में जैसे जैसे घर करने लगता है,
उस व्यक्ति के विचारों, उसके भावों और कर्मों में भी यह भाव परिलक्षित होने लगता है.
वह बोलेगा तो आनंद होगा, वह लिखेगा तो आनंद होगा , वह मूर्ति या चित्र बनायेगा तो
उसकी बनाई मूर्ति या चित्र में भी आनंद द्रष्टिगोचर होगा . आनंद का चिंतन किसी भी
प्रकार से निरर्थक नहीं हो सकता है, अत: आनंद को धारण करना अति आवश्यक है.
हृदय में आनंद का भाव जैसे जैसे किशोर अवस्था को प्राप्त करेगा तो वह व्यक्ति की
दुराशा का भी नाश करेगा. यह दुराशा (wrong expectation) ही 'ताडका' रुपी राक्षसनी है, जो
जीवन में उलझन व भटकाव पैदा करती रहती है. अपनी दुराशाओं की वजह से ही व्यक्ति
अपने अच्छे खासे जीवन को भी नरक बना लेता है,
आनंद का भाव फिर आगे जाकर व्यक्ति की कठोरता, निष्ठुरता का भी अंत कर डालता है.
ये कठोरता और निष्ठुरता ही मानो 'खर-दूषण' हैं ,जो मन रुपी वन में छिपे दुर्दांत राक्षस हैं.
फिर अंत में यही आनंद का भाव उस व्यक्ति के अहंकार यानि 'दशानन' अथवा रावण को भी
मार गिरा कर रामराज्य या पूर्णानंद की स्थापना कर देता है. अहंकार को 'दशानन' इसलिये
कहा कि इसके भी दशों सिर होतें हैं. धन का, बल का , विद्या का , रूप का, यौवन का
आदि आदि. अहंकार के मरे बैगर 'पूर्णानंद' की स्थिति को प्राप्त नहीं किया जा सकता.
यदि हम किसी भी महापुरुष की जीवनी का सूक्ष्म अध्ययन करें तो पायेंगें कि उन
महापुरुष ने जीवन में 'सत्-चित-आनंद' भाव को ही धारण किया और अपनाया था ,जिस
वजह से वे महापुरुष बन सके और जन जन से उनको सम्मान मिला. यह जरूरी नहीं कि
'सत्-चित -आनंद' भाव को केवल रामरूप में ही धारण किया जाये. अपनी अपनी रुचि और
आस्था अनुसार वह कृष्ण, अल्लाह या ईसा आदि भी हो सकता है.
चूँकि इस लेख में हम रामजन्म का आध्यात्मिक चिंतन करने की कोशिश कर रहें हैं,
तो फिर रामजन्म पर ही पुनः विचार करतें हैं. राम के पिता 'दशरथ'जी को व राम की
माता 'कौशल्या' जी को हमने पिछले लेख 'रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन -१' में समझने
का एक प्रयास किया था. मन को यदि 'दशरथ' और बुद्धि को 'कौशल्या' बना लिया जाये
तो राम का जन्म हमारे हृदय में ही संभव है.
कहतें हैं राम का जन्म त्रेता युग में हुआ था. अब हम त्रेता युग में कैसे पहुंचें आईये इस
पर भी विचार करते हैं. गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस के 'उत्तरकांड' के दोहा
संख्या १०३ (ख} से आगे निम्न प्रकार से चारो युगों का निरूपण किया हैं:-
नित जुग धर्म होहिं सब केरे , हृदयँ राम माया के प्रेरे
सुद्ध सत्व समता बिग्याना , कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना
श्रीराम जी की माया से प्रेरित होकर सबके हृदयों में सभी युगों के धर्म नित्य होते रहते हैं.
शुद्ध सत्व गुण , समता ,विज्ञान और मन का प्रसन्न होना ही 'सतयुग' का प्रभाव होता है.
यानि यदि हममें सम्यक ज्ञान है, विवेक है, समता है विज्ञान है और मन भी हमारा प्रसन्न
है तो कहा जा सकता है कि हम 'सतयुग' में जी रहें हैं. गोस्वामी जी आगे लिखते हैं:-
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा , सब विधि सुख त्रेता का धर्मा
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस, द्वापर धर्म हरष भय मानस
सत्वगुण अधिक हो ,कुछ रजो गुण हो ,अर्थात क्रियाशीलता हो, कर्मों में प्रीति हो, सब प्रकार
से सुख हो तो यह त्रेता का धर्म है. यानि सतोगुण के रूप में ज्ञान और विवेक के साथ साथ
कुछ क्रियाशीलता स्वरुप कर्मों में प्रीति होने से हृदय में रजो गुण का भी संचार हो तो कह
सकते हैं कि उस समय हम 'त्रेता युग' में जी रहें हैं
.
परन्तु जब रजोगुण अधिक बढ़ जाये, सत्व गुण के रूप में ज्ञान और विवेक थोडा ही रह जाये
और कुछ तमोगुण के रूप में ह्रदय में आलस्य ,प्रमाद, अज्ञान और हिंसा का भी संचार होकर
मन में कभी हर्ष हो ,कभी भय हो तब कह सकते हैं हम 'द्वापर युग' में जी रहे हैं.
'कलियुग' का निरूपण करते हुए गोस्वामीजी आगे लिखते हैं:-
तामस बहुत रजोगुण थोरा , कलि प्रभाव विरोध चहुँ ओरा
तमोगुण अर्थात आलस्य, अज्ञान, प्रमाद, हिंसा आदि हृदय में बहुत बढ़ जाये ,रजोगुण
अर्थात क्रियाशीलता कम हो जाये, और ज्ञान व विवेक का तो मानो लोप ही हो जाये,
हृदय में चहुँ ओर विरोधी वृत्तियों का ही वास हो, सब तरफ अप्रसन्नता और विरोध हो,
तो कह सकते हैं हम उस समय 'घोर 'कलियुग' में ही जी रहे है.
यदि हम 'कलियुग' में जी रहें हो तो क्या यह संभव है कि हम अपनी मन:स्थिति को "त्रेता
युग' की बना लें. गोस्वामीजी इसका उत्तर इस प्रकार से देते हैं:-
बुध जुग धर्म जानी मन माहीं , तजि अधर्म रति धर्म कराहीं
बुद्धिमान लोग अपने मन का अवलोकन कर यह जान लेते हैं कि उनका मन कब किस
स्थिति में हैं .यानि मन 'कलियुग' में है या द्वापर में . वे मन कि स्थिति में सुधार लाने
के लिए तब अधर्म को तज कर धर्म करने में रूचि लेने लगते हैं. धर्म करने का तात्पर्य यहाँ
उन बातों के पालन करने से है जिससे मन में सतोगुण का उदय होकर ज्ञान और विवेक का
संचार हो और तमोगुण व रजोगुण घटकर 'सत्-चित-आनंद ' भाव को ह्रदय में स्थाई रूप से
धारण किया जा सके.
विभिन्न साधनों जैसे नामजप आदि में सत्संग भी इसके लिए अति उत्तम साधन है.
सत्संग के सम्बन्ध में कुछ विचार मेरी पोस्ट 'बिनु सत्संग बिबेक न होई' में भी किया
गया है. मेरा सुधिजनों से निवेदन है कि सत्संग पर चिंतन के लिए वे मेरी कथित पोस्ट
का अवलोकन कर सकते हैं.
यहाँ पर यह बताना भी मै उचित समझता हूँ कि तीनो गुणों अर्थात सतोगुण, रजोगुण व
तमोगुण के बारें में विस्तृत विवेचना भगवद्गीता के १४ वें अध्याय 'गुणत्रयविभागयोग'
में की गई जिसका सुधिजन अध्ययन कर लाभ उठा सकतें हैं.
इस प्रकार से हम श्री रामचरित्र मानस में और श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित ज्ञान के आधार
पर स्वयं अपने हृदय में ही 'त्रेतायुग' का उदय कर रामजन्म का मार्ग प्रशस्त कर सकतें हैं.
इससे अगली पोस्ट में हम 'अवधपुरी' / 'अयोध्यापुरी' व 'उपवास' आदि पर विचार करने
का प्रयास करेंगे.
मेरी चारों 'युगों' पर जी टीवी के मंथन कार्यकर्म में की गई चर्चा का
कुछ अंश ' http://www.zeenews.com/video/showvideo11180.html ' पर उपलब्ध है.
मेरा शुरू का परिचय ' http://www.zeenews.com/video/showvideo11181.html ' पर
कराया गया है.
उस व्यक्ति के विचारों, उसके भावों और कर्मों में भी यह भाव परिलक्षित होने लगता है.
वह बोलेगा तो आनंद होगा, वह लिखेगा तो आनंद होगा , वह मूर्ति या चित्र बनायेगा तो
उसकी बनाई मूर्ति या चित्र में भी आनंद द्रष्टिगोचर होगा . आनंद का चिंतन किसी भी
प्रकार से निरर्थक नहीं हो सकता है, अत: आनंद को धारण करना अति आवश्यक है.
हृदय में आनंद का भाव जैसे जैसे किशोर अवस्था को प्राप्त करेगा तो वह व्यक्ति की
दुराशा का भी नाश करेगा. यह दुराशा (wrong expectation) ही 'ताडका' रुपी राक्षसनी है, जो
जीवन में उलझन व भटकाव पैदा करती रहती है. अपनी दुराशाओं की वजह से ही व्यक्ति
अपने अच्छे खासे जीवन को भी नरक बना लेता है,
आनंद का भाव फिर आगे जाकर व्यक्ति की कठोरता, निष्ठुरता का भी अंत कर डालता है.
ये कठोरता और निष्ठुरता ही मानो 'खर-दूषण' हैं ,जो मन रुपी वन में छिपे दुर्दांत राक्षस हैं.
फिर अंत में यही आनंद का भाव उस व्यक्ति के अहंकार यानि 'दशानन' अथवा रावण को भी
मार गिरा कर रामराज्य या पूर्णानंद की स्थापना कर देता है. अहंकार को 'दशानन' इसलिये
कहा कि इसके भी दशों सिर होतें हैं. धन का, बल का , विद्या का , रूप का, यौवन का
आदि आदि. अहंकार के मरे बैगर 'पूर्णानंद' की स्थिति को प्राप्त नहीं किया जा सकता.
यदि हम किसी भी महापुरुष की जीवनी का सूक्ष्म अध्ययन करें तो पायेंगें कि उन
महापुरुष ने जीवन में 'सत्-चित-आनंद' भाव को ही धारण किया और अपनाया था ,जिस
वजह से वे महापुरुष बन सके और जन जन से उनको सम्मान मिला. यह जरूरी नहीं कि
'सत्-चित -आनंद' भाव को केवल रामरूप में ही धारण किया जाये. अपनी अपनी रुचि और
आस्था अनुसार वह कृष्ण, अल्लाह या ईसा आदि भी हो सकता है.
चूँकि इस लेख में हम रामजन्म का आध्यात्मिक चिंतन करने की कोशिश कर रहें हैं,
तो फिर रामजन्म पर ही पुनः विचार करतें हैं. राम के पिता 'दशरथ'जी को व राम की
माता 'कौशल्या' जी को हमने पिछले लेख 'रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन -१' में समझने
का एक प्रयास किया था. मन को यदि 'दशरथ' और बुद्धि को 'कौशल्या' बना लिया जाये
तो राम का जन्म हमारे हृदय में ही संभव है.
कहतें हैं राम का जन्म त्रेता युग में हुआ था. अब हम त्रेता युग में कैसे पहुंचें आईये इस
पर भी विचार करते हैं. गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस के 'उत्तरकांड' के दोहा
संख्या १०३ (ख} से आगे निम्न प्रकार से चारो युगों का निरूपण किया हैं:-
नित जुग धर्म होहिं सब केरे , हृदयँ राम माया के प्रेरे
सुद्ध सत्व समता बिग्याना , कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना
श्रीराम जी की माया से प्रेरित होकर सबके हृदयों में सभी युगों के धर्म नित्य होते रहते हैं.
शुद्ध सत्व गुण , समता ,विज्ञान और मन का प्रसन्न होना ही 'सतयुग' का प्रभाव होता है.
यानि यदि हममें सम्यक ज्ञान है, विवेक है, समता है विज्ञान है और मन भी हमारा प्रसन्न
है तो कहा जा सकता है कि हम 'सतयुग' में जी रहें हैं. गोस्वामी जी आगे लिखते हैं:-
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा , सब विधि सुख त्रेता का धर्मा
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस, द्वापर धर्म हरष भय मानस
सत्वगुण अधिक हो ,कुछ रजो गुण हो ,अर्थात क्रियाशीलता हो, कर्मों में प्रीति हो, सब प्रकार
से सुख हो तो यह त्रेता का धर्म है. यानि सतोगुण के रूप में ज्ञान और विवेक के साथ साथ
कुछ क्रियाशीलता स्वरुप कर्मों में प्रीति होने से हृदय में रजो गुण का भी संचार हो तो कह
सकते हैं कि उस समय हम 'त्रेता युग' में जी रहें हैं
.
परन्तु जब रजोगुण अधिक बढ़ जाये, सत्व गुण के रूप में ज्ञान और विवेक थोडा ही रह जाये
और कुछ तमोगुण के रूप में ह्रदय में आलस्य ,प्रमाद, अज्ञान और हिंसा का भी संचार होकर
मन में कभी हर्ष हो ,कभी भय हो तब कह सकते हैं हम 'द्वापर युग' में जी रहे हैं.
'कलियुग' का निरूपण करते हुए गोस्वामीजी आगे लिखते हैं:-
तामस बहुत रजोगुण थोरा , कलि प्रभाव विरोध चहुँ ओरा
तमोगुण अर्थात आलस्य, अज्ञान, प्रमाद, हिंसा आदि हृदय में बहुत बढ़ जाये ,रजोगुण
अर्थात क्रियाशीलता कम हो जाये, और ज्ञान व विवेक का तो मानो लोप ही हो जाये,
हृदय में चहुँ ओर विरोधी वृत्तियों का ही वास हो, सब तरफ अप्रसन्नता और विरोध हो,
तो कह सकते हैं हम उस समय 'घोर 'कलियुग' में ही जी रहे है.
यदि हम 'कलियुग' में जी रहें हो तो क्या यह संभव है कि हम अपनी मन:स्थिति को "त्रेता
युग' की बना लें. गोस्वामीजी इसका उत्तर इस प्रकार से देते हैं:-
बुध जुग धर्म जानी मन माहीं , तजि अधर्म रति धर्म कराहीं
बुद्धिमान लोग अपने मन का अवलोकन कर यह जान लेते हैं कि उनका मन कब किस
स्थिति में हैं .यानि मन 'कलियुग' में है या द्वापर में . वे मन कि स्थिति में सुधार लाने
के लिए तब अधर्म को तज कर धर्म करने में रूचि लेने लगते हैं. धर्म करने का तात्पर्य यहाँ
उन बातों के पालन करने से है जिससे मन में सतोगुण का उदय होकर ज्ञान और विवेक का
संचार हो और तमोगुण व रजोगुण घटकर 'सत्-चित-आनंद ' भाव को ह्रदय में स्थाई रूप से
धारण किया जा सके.
विभिन्न साधनों जैसे नामजप आदि में सत्संग भी इसके लिए अति उत्तम साधन है.
सत्संग के सम्बन्ध में कुछ विचार मेरी पोस्ट 'बिनु सत्संग बिबेक न होई' में भी किया
गया है. मेरा सुधिजनों से निवेदन है कि सत्संग पर चिंतन के लिए वे मेरी कथित पोस्ट
का अवलोकन कर सकते हैं.
यहाँ पर यह बताना भी मै उचित समझता हूँ कि तीनो गुणों अर्थात सतोगुण, रजोगुण व
तमोगुण के बारें में विस्तृत विवेचना भगवद्गीता के १४ वें अध्याय 'गुणत्रयविभागयोग'
में की गई जिसका सुधिजन अध्ययन कर लाभ उठा सकतें हैं.
इस प्रकार से हम श्री रामचरित्र मानस में और श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित ज्ञान के आधार
पर स्वयं अपने हृदय में ही 'त्रेतायुग' का उदय कर रामजन्म का मार्ग प्रशस्त कर सकतें हैं.
इससे अगली पोस्ट में हम 'अवधपुरी' / 'अयोध्यापुरी' व 'उपवास' आदि पर विचार करने
का प्रयास करेंगे.
मेरी चारों 'युगों' पर जी टीवी के मंथन कार्यकर्म में की गई चर्चा का
कुछ अंश ' http://www.zeenews.com/video/showvideo11180.html ' पर उपलब्ध है.
मेरा शुरू का परिचय ' http://www.zeenews.com/video/showvideo11181.html ' पर
कराया गया है.
इस प्रकार से हम श्री रामचरित्र मानस में और श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित ज्ञान के आधार
ReplyDeleteपर स्वयं अपने हृदय में ही 'त्रेतायुग' का उदय कर रामजन्म का मार्ग प्रशस्त कर सकतें हैं.
बहुत सुन्दर जानकारी ...यानि कि हम अपने मन को किसी भी युग में ले जाने में सक्षम हैं ...
सुन्दर लेख, राम में आनन्द है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर जानकारी जी, धन्यवाद
ReplyDeleteतामस बहुत रजोगुण थोरा , कलि प्रभाव विरोध चहुँ ओरा
ReplyDeleteबहुत सुंदर ... राम नाम ही सुखदायी है....
sahitya adhyatm ko hamesha saga samajha hai
ReplyDeletejivan ko sukhi saumya va bhavy banane men adhyatm ko pare nahin kar sakte . aapke chintan ki sarthakata samaj ke hit men hai . bahut sunder ,vicharniya aalekh .aabhar ji .
भाई राकेश जी बहुत सुंदर पोस्ट बधाई और शुभकामनाएं |
ReplyDeleteअद्भुत!
ReplyDeleteइतनी सुंदर विवेचना हमने पहले कभी नहीं पढी थी।
बिल्कुल ही अलग ढ़ंग से आपने चिंतन किया है और उससे हम लाभान्वित हो रहे हैं।
अवसर मिले तो कुछ हमारे ईष्टदेव हनुमान जी पर भी या हनुमान राम संबंध पर भी प्रकाश डालने की कृपा करेंगे।
राम के जीवन की ना जाने किस किस तरह से व्याख्या हो सकती है.. उनके जीवन पर चिंतन के अनगिनत आयाम हो सकते हैं.. आध्यात्मिक चिंतन के बहाने आप राम को जीवन में उतरने की प्रेरणा दे रहे हैं...
ReplyDeleteवाह ! वकील साहेब ,अद्भुत है राम का स्मरण :-
ReplyDelete" मन को यदि 'दशरथ' और बुद्धि को 'कौशल्या' बना लिया जाये तो राम का जन्म हमारे हृदय में ही संभव है ".
आपके सत्संग का लाभ उठा रहे है हम लोग !
@ > प्रिय भाई मनोज कुमार जी,
ReplyDeleteयह मेरा परम सौभाग्य है कि रामजन्म चिंतन आपको पसंद आया.
हनुमान जी महाप्राण के प्रतीक हैं,जो सीधे रामजी से जुड़े हैं.इसीलये रामदूत हैं. पवन पुत्र हैं इसीलिए जप और प्राणायाम द्वारा ही हनुमान जी की आराधना की जा सकती है.क्यूंकि जप और प्राणायाम से शरीर में वायु का आवागमन नियंत्रित होता है ,जिससे मन और बुद्धि की चंचलता कम होकर,अंत:करण पवित्र होता है और फिर प्राण ही महाप्राण का रूप धारण कर शक्ति संपन्न हो महावीर बजरंगी बन हमें रामजी से मिलवा देता हैं.संक्षेप में अपने कुछ विचार प्रस्तुत किये हैं.लेकिन,यह विषय अत्यंत गहन और
गूढ है.सच्ची जिज्ञाषा और राम कृपा से धीरे धीरे सब समझ में आने लगता है.
राकेश जी ,
ReplyDeleteहमारे पौराणिक प्रतीकों द्वारा आपका बिंदु बिंदु आध्यात्मिक चिंतन काबिले तारीफ है ...हमारे पौराणिक चरित्र हमें अनेकों सन्देश देते है किन्तु विरले ही होते हैं जो उन्हें उसी रूप में ग्रहण कर पाने में समर्थ होते हैं ..हम स्वयं को किसी भी युग के अनुकूल बना पाने में समर्थ हैं बस जरूरत है पौराणिक चरित्रों को सिर्फ आँख मांड के पूजे जाने से ऊपर उठ कर उनमें निहित कथाओं को हृदय ,बुद्धि और विवेक की कसौटी पर परख कर आत्मसात करने की.. राम ने मनुष्य रूप में जन्म ले कर कई मानवीय कमजोरियों का स्वयं में होना ,उनके तिलिस्म में फंसा जाना और उनके दुष्परिणाम को भी परिलाक्षित किया है किन्तु हम आस्था के वशीभूत हो कर उन कमजोरियों से पार पाने की कोशिश न करते हुए उनको भगवान के नाम पर जस्टिफाई करने लगते हैं ..
जागरूक आध्यात्मिक चिंतन के लिए बधाई
बुध जुग धर्म जानी मन माहीं , तजि अधर्म रति धर्म कराहीं
ReplyDeleteयदि हम 'कलियुग' में जी रहें हो तो यह संभव है कि हम अपनी मन:स्थिति को "त्रेता युग' की बना लें...
बहुत सुन्दर जानकारी अर्थात हम अपने मन के अवलोकन से मन की स्थिति में सुधार कर उसमें 'सत्-चित-आनंद ' भाव को ह्रदय में स्थाई रूप से धारण कर सकते हैं..
आपका बहुत - बहुत आभार इन अमूल्य विचारों के लिए...
युगों को बहुत सरल भाषा में परिभाषित किया है आपने । यदि सच्चे मन से पालन करें तो त्रेता क्या सतयुग में भी प्रवेश कर सकते हैं । सार्थक लेख राकेश जी ।
ReplyDeleteyes happiness is very important
ReplyDeletelike the example of painter
चित्र बनायेगा तो
उसकी बनाई मूर्ति या चित्र में भी आनंद द्रष्टिगोचर होगा
'सत्-चित-आनंद' ...ही ज़िन्दगी का सार है
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा विश्लेषण किया है,आपने..शुक्रिया
गुरूजी प्रणाम .बहुत सुन्दर ! मानव यदि स्वार्थ और अहंकार त्याग दे ..तो सभी युगों का सठिक आनंद उठा सकता है ! यही सभी के लिए दुष्कर है ! राम के लिए नहीं ! आज - कल राम को खोज पाना , ज़रा मुश्किल है
ReplyDeleteआपके द्वारा की गयी विवेचना अच्छी लगी ! हार्दिक शुभकामनायें !
ReplyDeleteआनंद का भाव फिर आगे जाकर व्यक्ति की कठोरता, निष्ठुरता का भी अंत कर डालता है.
ReplyDeleteये कठोरता और निष्ठुरता ही मानो 'खर-दूषण' हैं ,जो मन रुपी वन में छिपे दुर्दांत राक्षस हैं.
फिर अंत में यही आनंद का भाव उस व्यक्ति के अहंकार यानि 'दशानन' अथवा रावण को भी
मार गिरा कर रामराज्य या पूर्णानंद की स्थापना कर देता है. अहंकार को 'दशानन' इसलिये
कहा कि इसके भी दशों सिर होतें हैं. धन का, बल का , विद्या का , रूप का, यौवन का
आदि आदि. अहंकार के मरे बैगर 'पूर्णानंद' की स्थिति को प्राप्त नहीं किया जा सकता.
shuru se ant tak itna badhiya varnan kiya hai ki
prashansha ke liye shabd nahi dhoond paa rahi ,sachmuch saarthak lekh hai ,mujhe to aanand aa gaya ,bahut sundar
I liked your analytical post very much. Thanks for such a meaningful post.
ReplyDeleteकमाल का चिन्तन है...
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें !
बहुत सुन्दर जानकारी|राम नाम ही सुखदायी है| धन्यवाद|
ReplyDeleteमधुर ज्ञान वर्षा है सरजी, आभार।
ReplyDeleteआपका लेख अद्भुत ज्ञानमयी होता है... आपने जिस प्रकार से ह्रदय में निहित ज्ञान और कर्मों के भेद के हिसाब से युगों की व्याख्या की है ..आपने पाठक के लिए विषयवस्तु सरल बनाने की बहुत अच्छी कोशिश की है .. और एक बहुत गूड ज्ञानवर्धक चिंतन ...मैं चाहूंगी कि हम सत् चित आनंद की अनुभूति करें और उसको अपनाए ... और आने वाली कलियुगी बाला को सतयुग में बदल डालें .. इसके लिए हमें आत्मउत्थान की जरूरत होगी .और सत्संग की ..और आप सत्संग जरूर दे रहें है ..सभी अगर अपनी सोच और कर्मो में शुद्धता और .सतगुणों का संचार करें और पालन करे तो हम सब एक सुरक्षित रामराज्य के वासी होंगे ...आपका आभार इस सुन्दर पोस्ट के लिए...
ReplyDeleteपिछली पोस्ट को भी मैंने पढ़ा किन्तु विडियो लिंक को सर्च करती रह गयी और टिपण्णी नहीं दे पाई... अबकी बार आपका विडियो देखा ... काफी ओजपूर्ण लगा ... पुनः धन्यवाद ...
बेहद सुन्दर लेख है .. पढ़ कर मन को शान्ति मिलती है , मुझे इस लेख में भगवद्गीता का उल्लेख साथ में करना बहुत अच्छा लगा , समय मिलते ही आना जाना लगा रहेगा .. सच्ची :)
ReplyDeleteराकेश जी ,
ReplyDeleteप्रणाम
....बहुत सुन्दर !
राम ने मनुष्य रूप में जन्म ले कर कई मानवीय कमजोरियों का स्वयं में होना ,उनके तिलिस्म में फंसा जाना और उनके दुष्परिणाम को भी परिलाक्षित किया है
बहुत ही अच्छा विश्लेषण किया है,आपन....शुक्रिया
अति-सुन्दर...आप धन्य हैं...उत्तम तात्विक व्याख्या...
ReplyDelete---हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता...
युगों के बारे में मानस का विवेचन बहुत सटीक है....गोस्वामीजी की यह पंक्ति भी उल्लेखनीय है,'कलि कर एक पुनीत प्रतापा,मानस पुन्य होइ नहिं पापा.'
ReplyDeleteआपका प्रयास स्तुत्य है,नई पीढ़ी को भूली-बिसरी संस्कृति याद दिलाने हेतु !
दोबारा चेक कीजिए, अब शायद पूरे प्रोग्राम की रिकार्डिंग डाल दी गई है...
ReplyDeleteइसी तरह आप कल्याणकारी धर्म का अलख जगाते रहिए...
जय हिंद...
सबसे पहले तो ब्लोग पर देरी से आने के लिये माफ़ी चाहती हूँ। उम्मीद है मिल जायेगी।
ReplyDeleteआप बहुत सुन्दरता और सरल तरीके से विवेचन कर रहे हैं और ये विवेचना कोई साधारण इंसान नही कर सकता सिर्फ़ वो ही कर सकता है जो इस आनन्द मे डूबा हो ………………इतना सुन्दर विश्लेषण किया है कि मन आनन्द मे डूब गया……………सत चित आनन्द की बहुत सुन्दर व्याख्या की है और वो भी युगो के संदर्भ मे ये अपने आप मे एक बहुत ही गहन अध्ययन का नतीजा है…………हर दोहे और चौपाई को समझना और उसका विश्लेषण इतना आसान नही होता…………आप तो इस आनन्द मे बहुत गहरी डुबकी लगा चुके हैं अपने अनुभवो से हमे भी लाभान्वित करते रहिये……………आभार्।
बहुत ही अच्छा विश्लेषण किया है...
ReplyDeleteसबसे पहले में आपको प्रणाम करती हूँ वो इसलिए कि आपके विचार बहुत खुबसूरत हैं और आप अपना इतना कीमती समय निकल कर हमें इतनी अच्छी - २ बातें समझने का मौका दे रहें हो | आपकी इस बात से मैं भी सहमत हूँ कि इन्सान किसी भी युग में जी रहा हो अगर वो चाहे तो अपने अच्छे विचारों और संस्कारों द्वारा अपने आप को हर वक़्त शुद्ध रख सकता है फिर महापुरुष कौन से किसी और जगह से आते हैं वो भी तो हममें से ही एक ही तो होतें हैं न ?
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत ज्ञानवर्धक पोस्ट |
आनंद अवस्था जीवन के किसी भी खंड में उपयोगी साबित होकर आसुरी शक्तियों व बुरी प्रवृत्तियों का नाश करने में सक्षम होती है । आभार इस जानकारी का...
ReplyDeleteआपके सत्संग से बातों को महिनी रूप से समझने में आसानी होती है. बहुत ही अच्छा विश्लेषण किया है बिल्कुल ही अलग ढ़ंग से .हार्दिक शुभकामनायें
ReplyDeleteयह दुराशा (wrong expectation) ही 'ताडका' रुपी राक्षसनी है, जो
ReplyDeleteजीवन में उलझन व भटकाव पैदा करती रहती है.
-बहुत ही सटीक एवं उचित विश्लेषण है....आनन्द आ गया आपका चिन्तन इत्मिनान से पढ़कर..इन्हीं इत्मिनान के क्षणों को खोजते देर हुई आने में..क्षमाप्रार्थी!!!
श्री रामनाम उचर मना॥
ReplyDeleteसुन्दर विवेचना, धन्यवाद!
सार्थक राम-चर्चा.
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित आलेख!
ReplyDeleteकलियुग में राम का नाम वेदमन्त्र से कम नहीं है!
राकेश जी, आपने हमारी जिज्ञासा का उत्तर दिया। आभार आपका।
ReplyDeleteअपने-अपने आचार-व्यवहार के अनुसार व्यक्ति अलग-अलग युगों का जीवन जी सकते हैं।
ReplyDeleteआपकी तात्विक विवेचना मन में दिव्य आलोक विसरित करती है।
Well Written Sir
ReplyDeleteराकेश जी ,
ReplyDeleteराम-जन्म पर आध्यात्मिक चिंतन पढने का अवसर मिला , बहुत अच्छा लगा। विस्तार में और बहुत सुन्दर अंदाज़ में , युगों के अनुसार गुणों का विवेचन किया आपने। एक बात ह्रदय से कहूँगी की आपमें 'सत्व' गुण की प्रधानता है।
आभार।
आदरणीय राकेश जी..
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर चित्रण..यहाँ आ कर मुझे बहुत शांति मिलती है..आप के ब्लॉग से प्रेरणा ले कर मैंने विवेकानंद का आध्यत्म दर्शन पढना शुरू किया है..अद्भुत शांति देता है ये आध्यात्म...आशा है भविष्य में भी सुन्दर ज्ञान मिलता रहेगा...
आशुतोष की कलम से....: मैकाले की प्रासंगिकता और भारत की वर्तमान शिक्षा एवं समाज व्यवस्था में मैकाले प्रभाव :
वाकई, बहुत सुन्दर चित्रण किया है. इंसान के भीतर बहुत सी बुराइयाँ छिपी होती हैं. इन्हें आनंद के जरिये ख़त्म किया जा सकता है.
ReplyDeleteMy New Post
मिलिए हमारी गली के महामूर्ख से
युगों का बहुत ही सुन्दर विवेचन किया है आपने...बहुत ही सुन्दर और ज्ञानवर्धक पोस्ट...आभार
ReplyDeleteप्रभु राम को नमन ......जय श्रीराम
ReplyDeleteयह जरूरी नहीं कि 'सत्-चित -आनंद' भाव को केवल रामरूप में ही धारण किया जाये. अपनी अपनी रुचि और आस्था अनुसार वह कृष्ण, अल्लाह या ईसा आदि भी हो सकता है.
ReplyDeleteआदरणीय राकेश जी
आपने राम के माध्यम से अध्यात्म का ऐसा गहन और सार्थक चिंतन किया है कि सहज ही ध्यान ईश्वर की तरफ लग जाता है ....राम शब्द को अगर देखें तो "राम" ....जो रमा हुआ है जिसका कोई आदि मध्य और अंत नहीं है ...जो सृष्टि का कर्ता है ...अगर यह दृष्टिकोण हमारा राम के प्रति है तो फिर हमारे लिए सभी एक ही हैं ...फिर हम चाहे किसी की इबादत कर लें किसी को अपना लें बस नजरिया बदलने की आवश्यकता है ....आपने जो रजोगुण आदि की जो चर्चा की है उनसे नए अर्थ और सन्दर्भ सामने आये हैं ....आपका आभार इस सार्थक और चिंतनीय आलेख के लिए ...!
-------- यदि आप भारत माँ के सच्चे सपूत है. धर्म का पालन करने वाले हिन्दू हैं तो
ReplyDeleteआईये " हल्ला बोल" के समर्थक बनकर धर्म और देश की आवाज़ बुलंद कीजिये...
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क्या यही सिखाता है इस्लाम...? क्या यही है इस्लाम धर्म
aapke blog par pahli baar aana hua ,par bahut hi aadhyatmik baton ki jankari hui ........sahi kaha aapne hum apne hi karmo aur chintan se har yug me ja sakte hain...........jay sree raam
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक एवं गहन विश्लेषण .. आभार इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिये ।
ReplyDeleteRakesh ji ...your post is an example of your vast & deep knowledge. Really beautiful and meaningful description of "RAMJANM". Congrats for this wonderful writing.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteaadarniy sir
ReplyDeletejyon -jyon aapka blog padhti ja rahi hun lagta jaise in sab baato se abhi tak bilkul anjaan thi kyin ki itna vistaar se kabhi padha hi nahi tha. ab lagta hai ki aapke blog par aakr mujhe hi hi ek bahut badi cheej mil gai hai jisse abhi tak main vanchit thi .
aapko bahut dhanyvaad itni achhi va gyan
vardhak jankariyan dene ke liye .
आनंद का चिंतन किसी भी
प्रकार से निरर्थक नहीं हो सकता है, अत: आनंद को धारण करना अति आवश्यक है.
bahut hi sateek avam labhprad baat.
hardik naman
poonam
April 25, 2011 9:09 PM
राम-राम जी,
ReplyDeleteदेर से आने का नुकसान की कहने को कुछ भी नहीं रहता है,
आपकी जानकारी महत्वपूर्ण है
राकेश जी राम -राम....
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर श्री राम जन्म से संबधित जो ये लेख है. इसे पढ़कर मन राममय हो गया है.
आपने विस्तार पूर्वक इस संबध में लिखा है. पढ़कर ज्ञान प्राप्त हुआ.
इतने सुंदर और सार्थक लेख के लिए आपको आभार.
इस चिन्तन मे आनन्द ही आनन्द। एक बार फिर पढूँगी सारी आनन्द कथा जब पूरी हो जायेगी। व्यस्तता के कारण कुछ कम आ पा रही हूँ 2 मई के बाद सक्रीय हो जाऊँगी। शुभकामनायें।
ReplyDeleteआदरणीय राकेशजी,
ReplyDeleteआप के अध्यात्मिक लेखों को जितनी बार भी पढता हूँ,आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है.
सत चित आनंद की जो व्याख्या आप ने की है,सच में अनुपम है.
बहुत अनूठी प्रस्तुति है.राम की लीला को भी सत चित आनंद के रूप में पढ़ बहुत उपकृत हुआ मन.
आनंद ही आनंद झर रहा है इस पोस्ट से.
सत आनंद ,चित आनंद,असीम आनंद,बोध स्वरूपानंद ,ज्ञान स्वरूपानंद, अनिर्वचनीय आनंद,अचिन्त्य आनंद,अपरिमेय आनंद,आनंदमय आनंद,बस आनंद ही आनंद.
आपका कोटि कोटि आभार.
आपके ज्ञान और अनुभव के आगे नतमस्तक हूँ.
बस यही कह सकता हूँ आप जैसे ज्ञानी जनों के बारे में
यदा किन्चिज्ज्ञोहम द्विप इव मदान्धः समभवं,
तदा सर्वज्ञोअस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः.
यदा किन्चित्किंच्द बुधजनसकाशादवगतं
तदा मूर्खोअस्मीति ज्वर इव मदो में व्यपगतः.(नीति शतक)
जब मैं थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त करके हाथी के सामान मदान्ध हो रहा था ,उस समय मेरा मन 'मैं सब जानने वाला हूँ'ऐसा सोच कर घमण्ड से पूर्ण था .परन्तु जब विद्वानों के संग से कुछ कुछ ज्ञान होने लगा ,तब 'मैं तो मूर्ख हूँ'ऐसा समझने के कारण मेरा वह मद ज्वर की तरह उतर गया.
हृदय से आभार.
किसी बात को धारणा, संकल्पना की तरह मानने से बेहतर है उसे समझा जाये। इस तरह ही उस विषय में पैठा जा सकता है।
ReplyDeleteआद. राकेश जी ,
ReplyDeleteआपके प्रवचन को नमन ....
इतनी धार्मिक नहीं हूँ मैं ...
फिर सबके साथ राम नाम जपने में आनंद तो आता ही है ....
आभार ....!!
रामायण के पात्रों का मानव स्वभाव के आधुनिक सन्दर्भ में बहुत सुन्दर विवेचन. अपने मन में त्रेतायुग का प्रादुर्भाव करने का मन्त्र देने का प्रयास सराहनीय है. रामायण पर गहन चर्चा के लिये आभार. आगे की कड़ियों का इंतज़ार रहेगा. सादर
ReplyDeleteआदरणीय राकेश जी ,
ReplyDeleteइतना गहन अध्यात्मिक चिंतन ,वह भी सहज-सरल ग्राह्य रूप में .......मन प्रसन्न हो गया | जीवन का सार तत्व तो यही है | आपकी लेखनी प्रणम्य है |
आदरणीय राकेश जी..... बहुत ही उत्तम विचारों से ओतप्रोत आपका ब्लॉग लगा ....... आता रहूँगा....
ReplyDeleteबाकि राम जी के महिमा है सब -
जय राम जी की.
रामचरित्र का बहुत सुन्दर चित्रण व व्याख्या। मन तो इस परमानंद की गंगा मे डुबकिया लगा रहा है। साधुवाद व हार्दिक आभार। http://ddmishra.blogspot.com/2011/03/blog-post.html
ReplyDeleteआदरणीय गुरु जी सादर नमन है आपको ! मै कुछ कार्यों में व्यस्त होने के कारण देर से उपस्थित हुआ इसके लिया क्षमा चाहूँगा लेकिन इसका ये भी फायदा मिला है की गुनी जन ब्लागरों के विचार भी पढने को मिले. मै इनमे अपने को सबसे बड़ा अज्ञानी मानता हूँ की मैं आपके इस लेख को पूरी तरह समझ नहीं पा रहा हूँ.
ReplyDeleteलगता है इसे बार बार पढना पड़ेगा,
बहुत सी मन में शंकाएं उठ रही हैं ! मैं राम चरित मानस को सही मानू या वाल्मीकि रामायण को?
मन को यदि 'दशरथ' और बुद्धि को 'कौशल्या' बना लिया जाये,यहाँ तक तो बात समझ में आती है
किन्तु यदि मैं राम को आध्यात्मिक दृष्टि से देखता हूँ तो पूरी रामचरित मानस क्या है ?
क्या हम इस आधार पर पुरे राम चरित मानस का विवेचन कर सकते हैं?
@ > प्रिय भाई मदन शर्माजी,
ReplyDeleteआपकी जिज्ञासा लेख को लेकर है या रामचरित्र मानस को लेकर इस बात को मै समझना चाहूँगा.लेख में राम 'सत्-चित-आनंद' भाव का ही प्रतीक हैं ऐसा मैंने स्पष्ट करने की कोशिश की है.
रामचरितमानस के जिन चौपाइयों का लेख में मैंने वर्णन किया है उनके अर्थ और भावार्थ में भी मै समझता हूँ आपको कोई शंका नहीं होगी.
इस विषय में महर्षि दयानन्द सरस्वतीजी की सत्यार्थप्रकाश में दी गई भूमिका में से निम्न की तरफ आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा.
भूमिका में सबसे पहले "ओम् सच्चिदानान्देश्वराय नमो नम:" से शुरू किया गया.यह 'सत्-चित-आनंद' ही मेरे लेख में राम रूप में वर्णित है.
भूमिका में आगे लिखा गया है "यद्धपि आजकल बहुत से विद्वान प्रत्येक मतों में है वे पक्षपात छोड़ सर्वतंत्र सिद्धांत अर्थात जो जो बातें सब के अनुकूल सब में सत्य हैं उनका ग्रहण और जो एक दूसरे से विरुद्ध बातें हैं,उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से बरतें बर्त्तावें तो जगत का पूर्ण हित होवे. क्योंकि विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़कर अनेकविध दुःख की वृद्धि और सुख की हानि होती है."
युगों के सम्बन्ध में मेरे लेख में जो रामचरितमानस में वर्णित सिद्धांत का उल्लेख है वह भगवद्गीता के १४वें अध्याय 'गुण-त्रय विभागयोग 'के आधार पर ही है,जो मै समझता हूँ सभी के अनुकूल,सत्य और ग्रहण किये जाने योग्य ही हैं.
पूरे रामचरित्रमानस की विवेचना यहाँ अभी संभव नहीं है,लेकिन जो जो मैंने अपने पिछले लेखों में और इस लेख में रामचरित्र मानस में से उद्धृत किया है उसका उद्देश्य भी सभी के लिए अनुकूल,सत्य और ग्रहण करने योग्य बातों का होना ही है.
वैसे गोस्वामी तुलसीदासजी की रामचरित्रमानस में अधिकतर बातें
प्रतीकात्मक, गहन और गूढ हैं,जिनकी तरफ अधिकाँश लोग या तो ध्यान ही नहीं देते या उनका बिलकुल गलत अर्थ निकाल लेते हैं.
विडंबना यह है कि बिना सही प्रकार से समझे समझाए केवल रामचरितमानस का 'अखण्ड पाठ' करवा कर लोग अपने को धार्मिक
भक्त और सनातनी होने का झूंठा भ्रम पाले रखते हैं.
आशा है आप जैसे विद्वानों से विचार-विमर्श के द्वारा जो जो भी हितकारी,एक दूसरे के अनुकूल , सत्य और ग्रहण किये जाने योग्य जहाँ भी है उन्ही बातों पर हम अपना ध्यान केंद्रित करते रहेंगे.
A beautiful post that facilitates the spiritual journey, which is so important in today's age when we are forgetting the most important things. I am happy that you've joined blogging and the TV to bring back the focus on our relationship with the almighty in a simple yet profound manner. Thank you very much and God bless you.
ReplyDeleteआदरणीय गुरु जी नमस्ते! आपने मेरी जिज्ञासा को काफी हद तक शांत कर दिया है इसके लिए आपका बहुत धन्यवाद!!
ReplyDeleteमेरी नज़र में राम वह हैं जो संसार के कण कण में रम रहा है, जिसे गुरु नानक जी ने भी माना है,
जो महात्मा कबीर की साखियों में व्यक्त है, तथा जिसे महात्मा गाँधी ने अपनाया है,
तथा वेदों में भी इसका यही अर्थ लिया जाता है. जहाँ तक मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की बात है
उनके आदर्शो को कोई भी नकार नहीं सकता उनके अस्तित्व से कोई भी इनकार नहीं कर सकता
किन्तु तुलसी दास जी ने इन्हें ईश्वर का अवतार बता कर बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी पैदा कर दी है.
एक ओर तो कहते हैं बिन पग चले सुने बिन काना दूसरी ओर उसे आकार वाला भी बताते हैं
एक ओर तो वे नारी को देवी बताते है दूसरी ओर ढोल गंवार शुद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी
अर्थात विरोधाभासी बातें , और ये जगह जगह मिलती हैं
इन्ही सब कारणों से कभी कभी इस तरह के सवाल उठ खड़े होते हैं
कृपया मेरी घृष्टता को बालक समझ क्षमा कीजियेगा.
प्रिय भाई मदनजी,
ReplyDeleteआपकी जिज्ञासा कुछ हद तक शांत हुई इसकी मुझे खुशी है.
मै समझता हूँ कि मेरे लेख में वर्णित तुलसीदास जी के कथनों
से भी आपको कोई आपत्ति नहीं है.
सत्यार्थ प्रकाश की इस बात कि
" जो एक दूसरे से विरुद्ध बातें हैं,उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से बरतें बर्त्तावें तो जगत का पूर्ण हित होवे. क्योंकि विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़कर अनेकविध दुःख की वृद्धि और सुख की हानि होती है."
स्मरण करते हुए आपसे कहना चाहूँगा कि यद्धपि 'ढोल गँवार शुद्र पशु नारी'आदि बातों से मेरे लेख से विषयान्तर होता है तो भी आपकी शंका निवारण हेतू मै आपका ध्यान निम्न बातों की ओर दिलाना चाहूँगा
(१)'ढोल गँवार शुद्र पशु नारी' को नीति वचन मानने की जरूरत नहीं है.जो बातें तुलसीदास जी ने रामजी या खुद न कहकर विभिन्न पात्रो जैसे 'रावण' या 'सूर्पनखा'आदि के मुख से कहलवाई हों उनको नीति वचन नहीं माना जा सकता.'ढोल गँवार... ' की बात समुन्द्र के मुख से क हलवाई गई है जो कि जड़ है,जिसपर रामजी ने क्रोध किया है.अत: उसकी बात यदि विरोधाभासी लगती है तो मानने की कोई आवयश्कता ही नहीं.
(२) 'ढोल गँवार शुद्र पशु नारी' की व्याख्या यदि 'पशु नारी' को साथ लेकर करें तो ऐसी नारी जिसमें पशुपन हो होगा जैसे कि 'सूर्पनखा'आदि.आज भी पशु नारी हमें देखने को मिल जायेंगी.क्या ऐसी नारी ताडना यानि सख्ती से समझाने की अधिकारी नहीं.
मै पुनः आपसे निवेदन करना चाहूँगा कि जो बातें विरोधाभासी सी
दिखाई भी दें ,उनको छोड़ यदि हम परसपर प्रीति बढ़ाने की और ध्यान दें तो ही हम सत्यार्थ प्रकाश के उपरोक्त कथन का अनुसरण
कर पायेंगे.अनेक मत-मतान्तर हैं,हमारी नजर 'सार'और हितकारी पर रहे तो ही परस्पर प्रीति बढ़ सकेगी.
बहुत सुन्दर लेख और आपका धन्यवाद मेरी हौसला अफजाई करने के लिए और आपके इतने सुन्दर ब्लॉग से परिचय करवाने के लिए.....
ReplyDeleteमैं ब्लॉग जगत में व्यस्तता के कारन हमेशा नहीं आ पाती हू पर जब भी समय मिलता जायेगा यहाँ जरूर मिलुंगी
Nice post. Thanks for visiting my blog.
ReplyDeleteराम चरित्र की बड़ी विस्तृत और सुन्दर व्याख्या की है....बहुत आनंद आया,पढ़कर
ReplyDeleteशुक्रिया
आप की बहुत अच्छी प्रस्तुति. के लिए आपका बहुत बहुत आभार आपको ......... अनेकानेक शुभकामनायें.
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आने एवं अपना बहुमूल्य कमेन्ट देने के लिए धन्यवाद , ऐसे ही आशीर्वाद देते रहें
दिनेश पारीक
http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/
http://vangaydinesh.blogspot.com/2011/04/blog-post_26.html
आप की बहुत अच्छी प्रस्तुति. के लिए आपका बहुत बहुत आभार आपको ......... अनेकानेक शुभकामनायें.
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आने एवं अपना बहुमूल्य कमेन्ट देने के लिए धन्यवाद , ऐसे ही आशीर्वाद देते रहें
दिनेश पारीक
http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/
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राम चरित्र की व्याख्या प्रस्तुति से बहुत कुछ नया पता चला विशेष रूप से 'पशु नारी' के बारे में और यही होना भी चाहिए.
ReplyDeleteआदरणीय राकेश कुमार जी नमस्ते! बहुत अच्छा ज्ञान दिया है आपने लेकिन ढोल पशु नारी वाली आपकी बात से मै भी सहमत नहीं हूँ अगर समझाना है तो प्यार से समझाइए फालतू में ताड़ना क्यूँ ? क्या इस लिए की ये सबसे निर्बल हैं ? कृपया तुलसी दास के गलत बातों का आप समर्थन न करें मुझे तो तुलसीदास की अपेक्षा आपकी बातें अधिक ज्ञान युक्त तथा विज्ञानं का समर्थन करती लगती हैं मै मदन जी के सवालों से पूरी तरह सहमत हूँ मेरे ब्लॉग पर आके मेरा उत्साह बढाने के लिए आपका आभार कृपया ऐसा ही प्रेम बनाये रखिये ये भी मेरे लिए पुरस्कार ही है कृपया बहुत देर से आपके पास आने के लिए माफ़ कीजिये कम्प्यूटर पर हिंदी में लिखना भी बहुत मुश्किल काम है नाकों चने चबाना पड़ता है
ReplyDelete'सत्-चित-आनंद' प्राप्त करने भाव ही आत्मा का जीवन लक्षय है।
ReplyDeleteइस प्रकार सद्भाव विवेचना सद्गुण प्रेरक और गुणग्राहक बनती है। 'सत्-चित-आनंद' का सौम्य चिंतन प्रदान करने का आभार!!
ढोल , पशु , स्त्री ताड़ना के अधिकारी हैं , ऐसा तुलसीदास जी ने नहीं लिखा है । यह पंक्ति बाद के टिप्पणीकार द्वारा जोड़ी गयी है । ऐसा मैंने कहीं पढ़ा है।
ReplyDeleteजैसा की मैंने उपरोक्त टिप्पिनियों में पढ़ा, राकेश जी की बातों से निम्नलिखित बातें बिलकुल स्पष्ट हैं-
ReplyDelete१) "ढोल गंवार.." की बात यहाँ इस लेख पर करना उचित नहीं लगता क्योंकि यह लेख के मूल विषय से हटकर है
२) इस बात को तुलसीदास जी ने समुद्र के द्वारा कहलाई है इसलिये इसको नीति वचन मानकर विवाद करना भी उचित नहीं...गौर करिएँ की यह बात समुद्र की जड़ता का भी सूचक हो सकता है
३) "ढोल गंवार शुद्र पशु नारी" में "पशु नारी" की जो विवेचना की गई है उससे स्पष्ट है की "पशु नारी" ऐसी नारी है जिसमे पशुता हो यानि "prominent animal instincts & characteristics" (जैसे हिंसा, कठोरता, अश्लीलता, आलस्य, प्रमाद, किसी भी रिश्ते की कद्र ना करना आदि) और नारी के सुलभ गुण (जैसे की कोमलता, दया, करुणा, ममता, वात्सल्य आदि से वंचित और शून्य होना).क्या इस प्रकार की नारी को ताडना अर्थात विशेष रूप से समझाने की आवश्यकता नहीं है?
४) "ताडना" का अर्थ केवल मार-पीट करना ही लगाया जाये ऐसा उचित नहीं है कभी कभी बच्चों को भी समझाने के लिए उन्हें ताडना दी जाती है, डांटा भी जाता है.
५) "साम दाम दंड भेद" की नीति में दंड अर्थात ताडना भी एक नीति मानी गई है
६) नारी शब्द शास्त्रों में ऐसे व्यक्ति के लिए भी प्रयोग किया गया है जिसमे चंचलता की अधिकता हो फिर चाहे वो पुरुष हो या स्त्री. और तुलसीदास जी ने रामायण में प्रतीकात्मक शब्दों (Metaphors & Similes) का बहुतायत में सहारा लिया है
७) विद्वानों के शोधानुसार तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना में २५० ग्रंथो से अधिक का अध्ययन किया है जिसमे की चारों वेद उपनिषद वाल्मीकि रामायण आदि शामिल हैं.
८) तुलसीदास जी ने भी मानस के शुरू में ही स्पष्ट किया है की जो कुछ भी वो लिख रहें हैं वो प्राचीन ग्रंथो और अपने गुरु की वाणी के आधार पर है. यदि कोई कमी या गल्ती रह गई हो उसके लिए क्षमा भी मांगी है
९) जहाँ तुलसीदास जी की अनेक बातों से हमें शिक्षा मिलती हो तो केवल दृष्टिभ्रम के कारण,या अन्य किसी कारण से कोई बात यदि विरोधाभासी लगती है तो उसको छोड़ा जा सकता है. जगत में ऐसा कोई नहीं है जिसकी सम्पूर्ण बातों से सभी सहमत हों
१०)अंत में "साधू ऐसा चाहिये जैसा सूप सहाय,सार सार को गहि लये थोथा देय उडाय"
I totally agree with Nidhi. Also, it is said that the inspirer for Goswami Tulsidas was his wife who showed him the path of bhakti with Ram.
ReplyDeleteराकेश जी ... ये मेरा अह्ोभाग्य है की खुश्दीप जी के माध्यम से आपसे परिचय हुवा और मेरा सौभाग्य देखिए आपने मेरा सम्मान लिए जो की मेरे लिए बहुत ही सम्मान की बात है .... रामजन्म को लेकर जी टी वी पर ये कार्यक्रम मैने देखा था ... और उसकी पूरी पूरी याद है मेरे मन में ... पता नही कैसे आपका ब्लॉग छूटा हुवा था मेरे से ... चलिए देर आए दुरुस्त आए ... भविष्य में आपकी ज्ञान वर्धक पोस्ट पढ़ने को मिलेंगी ऐसी आशा है ...
ReplyDeleteराकेश जी धार्मिक और अध्यात्मिक बातो में ज्यादा रूचि तो नहीं है इसी कारण गहरे अर्थो को समझ पाना मेरे लिए थोडा मुश्किल है किन्तु फिर भी आप की सरल भाषा में कही गई बात अच्छी लगी |
ReplyDeleteवैसे मेरी म्याऊ और भो की बात खास मतलब से थी जिसे खुशदीप जी ने समझ लिया होगा |
प्रतीक्षा है...
ReplyDeleteआपका ब्लॉग तो राममय है...........यहाँ सार्थक राम चर्चा है......पढ़ कर अच्छा लगा
ReplyDeleteआदरणीय गुरु जी नमस्ते!
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपका
sarthak chintan... achha laga apke blog par aakar ..........aabhar mera blog padhneka ...
ReplyDeleteमैं कुछ ज़रूरी काम में व्यस्त थी इसलिए आपके ब्लॉग पर नहीं आ सकी! काफी दिनों के बाद आपके ब्लॉग पर आकर बहुत अच्छा लगा! बहुत सुन्दर और उम्दा लेख प्रस्तुत किया है आपने जो प्रशंग्सनीय है!
ReplyDeleteमेरे इस ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है-
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com
राकेश कुमार जी नमस्कार ..सबसे पहले मैं बहुत आभारी हूँ आपने मेरी कविता इतनी पसंद की |उससे भी ज्यादा आभार कि आपने अपने ब्लॉग पर आमंत्रित किया जिसकी वजह से ये ज्ञान का अपार भण्डार मुझे मिला ..!!राम जन्म और आपकी चरों युगों की व्याख्या बहुत अच्छी लगी |यहाँ आना सफल हुआ |
ReplyDeleteइसे पढने से कई जानकारी मिली। बहुत बढिया
ReplyDeleteRAKESHJI.
ReplyDeletemain ab tak kyo vanchit rahaa aapke blog par aane se? magar der aaye durust aaye...
abhi dherya aur itminaan se padhhungaa...
sir ji namskar
ReplyDeleteaapke blog par aana accha laga
yaha se ahut kuch sikhe ko milega aasha karta hoo
humari sanskarti humari pahachaan
ReplyDelete.....राम चरित्र की सार्थक, विस्तृत और सुन्दर व्याख्या के लिए आपका आभार.
ReplyDeleteकविता रावत has left a new comment on your post "रामजन्म - आध्यात्मिक चिंतन -२":
ReplyDelete.....राम चरित्र की सार्थक, विस्तृत और सुन्दर व्याख्या के लिए आपका आभार.
Posted by कविता रावत to मनसा वाचा कर्मणा at May 12, 2011 6:26 PM
gehan chitan bhari abhvyakti,sunder visleshan kiya hai....
ReplyDeleteबुध जुग धर्म जानी मन माहीं , तजि अधर्म रति धर्म कराहीं
ReplyDeleteबहुत अच्छा।
आदरणीय सर,इस पोस्ट की जानकारी देने के लिए हार्दिक आभार|
ReplyDeleteबहुत ही गहन चिंतन है-ताडका,खर दूषण,दशानन,दशरथ,कौशल्या
और तीनों युगों को मन के भावों से जोड़कर सरल एवम् ग्राह्य बना दिया
है|बहुत सुन्दर विश्लेषण...आभार|
बहुत सुंदर लेख महोदय जी 🙏😊
ReplyDeleteसार गर्वित