महाबीर बिनवउँ हनुमाना, राम जासु जस आप बखाना
हनुमान जी का चरित्र अति सुन्दर,निर्विवाद और शिक्षाप्रद है, उन्ही के चरित्र की प्रधानता श्रीरामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में सर्वत्र हुई है. सुन्दरकाण्ड का पाठ अधिकतर मानस प्रेमी घर घर में करते-कराते हैं.परन्तु ,सुन्दरकाण्ड के मर्म का चिंतन न कर केवल उसका पाठ यांत्रिक रूप से कर लेने से हमें वास्तविक उपलब्धि नहीं हो पाती है जो कि होनी चाहिये.
रामायण केवल कथा ही नहीं है.इसमें कर्म रुपी यमुना,भक्ति रुपी गंगा और तत्व दर्शन रुपी सरस्वती का अदभुत और अनुपम संगम विराजमान है. आईये इस् पोस्ट में भी हम हनुमान लीला का रसपान करने हेतु श्रीरामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड का तात्विक अन्वेषण करने का कुछ प्रयत्न करते हैं.
भगवान की शरणागति को प्राप्त हो जाना जीवन की सर्वोत्तम और सुन्दर उपलब्धि है. हनुमान की शरणागति सर्वत्र सुंदरता का दर्शन करानेवाली है,जो कि सुन्दरकाण्ड का मुख्य आधार है. इस् काण्ड का नामकरण इसीलिए हनुमानकाण्ड न किया जाकर सुन्दरकाण्ड किया गया है.
सुन्दरकाण्ड में तीन प्रकार की शरणागति का विषद वर्णन हुआ है
सुन्दरकाण्ड का मर्म समझने हेतु शरणागति को समझना अति आवश्यक है.यदि ध्यान से देखा जाए तो शरणागति ही हमारे शास्त्रों का वास्तविक लक्ष्य है. श्रीमद्भगवद्गीता में अपना उपदेश पूरा करने के पश्चात भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को निम्न उपदेश देते हैं .
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हनुमान जी का चरित्र अति सुन्दर,निर्विवाद और शिक्षाप्रद है, उन्ही के चरित्र की प्रधानता श्रीरामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में सर्वत्र हुई है. सुन्दरकाण्ड का पाठ अधिकतर मानस प्रेमी घर घर में करते-कराते हैं.परन्तु ,सुन्दरकाण्ड के मर्म का चिंतन न कर केवल उसका पाठ यांत्रिक रूप से कर लेने से हमें वास्तविक उपलब्धि नहीं हो पाती है जो कि होनी चाहिये.
रामायण केवल कथा ही नहीं है.इसमें कर्म रुपी यमुना,भक्ति रुपी गंगा और तत्व दर्शन रुपी सरस्वती का अदभुत और अनुपम संगम विराजमान है. आईये इस् पोस्ट में भी हम हनुमान लीला का रसपान करने हेतु श्रीरामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड का तात्विक अन्वेषण करने का कुछ प्रयत्न करते हैं.
भगवान की शरणागति को प्राप्त हो जाना जीवन की सर्वोत्तम और सुन्दर उपलब्धि है. हनुमान की शरणागति सर्वत्र सुंदरता का दर्शन करानेवाली है,जो कि सुन्दरकाण्ड का मुख्य आधार है. इस् काण्ड का नामकरण इसीलिए हनुमानकाण्ड न किया जाकर सुन्दरकाण्ड किया गया है.
सुन्दरकाण्ड में तीन प्रकार की शरणागति का विषद वर्णन हुआ है
(१) हनुमान की शरणागति
(२) विभीषण की शरणागति
(३) समुन्द्र की शरणागति.
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम व्रज
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:
सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा.मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा.
यह श्लोक शरणागति का गहन रहस्य प्रकट करता है.सम्पूर्ण धर्मों के त्याग का अर्थ यहाँ सम्पूर्ण धर्मों के आश्रय के त्याग से है.अपने सभी धर्मों को निष्ठापूर्वकनिभाएं यथा अपने शरीर पालन करने का धर्म,माता पिता के प्रति संतान होने का धर्म,संतान के प्रति माता-पिता होने का धर्म,भ्राता धर्म,मित्र धर्म, देश और लोक के प्रति देश धर्म,लोक धर्म, आदि आदि,परन्तु, सभी धर्मों का आश्रय केवल परमात्मा यानि सत्-चित-आनन्द को पाना हो तो ही जीवन में भटकाव दूर हो जीव का उद्धार हो सकता है. परमात्मा की शरण में आने से जीव निर्भय और पापरहित होकर सत्-चित -आनन्द में रमण करने का अधिकारी हो जाता है. परन्तु,यदि आश्रय सत्-चित-आनन्द का न होकर अन्यत्र हो तो जीवन में ठहराव नहीं आने पाता है, भटकन बनी रहती है और अंततः ठोकरे ही लगती हैं .
अध्यात्म में समुन्द्र देह अभिमान का प्रतीक है.यानि हम अजर,अमर ,नित्य आनंदस्वरूप आत्मा होते हुए भी
स्वयं को देह माने रहते है. विनयपत्रिका में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है 'कुणप -अभिमान सागर
भयंकर घोर', यानि देह का अभिमान घोर और भयंकर सागर है.हम सब में जो थोड़ी थोड़ी साधना करने वाले हैं वे सब जानते हैं कि भरसक प्रयत्न करने के बाबजूद भी हम देहाभिमान के किनारे ही खड़े रह जाते हैं.
जैसे कि सीता जी की खोज करते हुए सभी वानर समुन्द्र के किनारे खड़े हुए समुन्द्र को लाँघने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं.परन्तु,हनुमानजी जो केवल रामजी के ही शरणागत हैं,जपयज्ञ और प्राणायाम स्वरुप हैं,इस देहाभिमान रुपी समुन्द्र को राम काज करने हेतु लाँघने में समर्थ होते हैं.सीता की खोज यानि परमात्मा को प्राप्त करने की परम चाहत की खोज ,.जो अहंकार रुपी रावण की नगरी में कैद हुई है, ही 'राम काज' है.शरणागति और रामकाज की बात सुन्दरकाण्ड में हनुमान जी के मुख से 'बार बार रघुबीर संभारी','राम काज किन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम' आदि वचनों द्वारा सुन्दर प्रकार से वर्णित हुई है.
जब हनुमान जी लंका दहन कर राम जी के पास आये तो राम जी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा 'प्रति उपकार करौं का तोरा, सन्मुख होइ न सकत मन मोरा' यानि हनुमान जी, मैं आपका कोई प्रति उपकार करने लायक नहीं हूँ ,यहाँ तक कि मेरा मन भी तुम्हारी ओर नहीं देख पा रहा है,तुम्हारा सामना नहीं कर पा रहा है.
यह निरभिमानी के लिए अति कठिन परीक्षा है.परन्तु,राम जी के इन वचनों को सुनकर भी निरभिमानी हनुमान प्रेमाकुल हो उनके चरणों में पड़कर त्राहि त्राहि करने लगे.'चरण परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत', मैं आपकी शरण में हूँ,मुझे बहुत जन्म हो गए हैं गिरते पड़ते,ऐसी बातें कहकर मुझे अपनी माया में न उलझाईये,मुझे बचा लीजिए,बचा लीजिए. अपने किये हुए काज का किंचितमात्र भी अभिमान नहीं है हनुमान जी में. हनुमान जी की शरणागति सम्पूर्ण और अनुपम शरणागति है.
जब सीता जी ने 'अजर अमर गुननिधि सुत होहू, करहूँ बहुत रघुनायक छोहू' का आशीर्वाद हनुमान जी को दिया तो भी वे राम जी के निर्भर प्रेम में मगन हो गए. ' 'करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना,निर्भर प्रेम मगन हनुमाना'. इसके बाद ही शरीर धर्म के पालन हेतु उन्होंने सीता जी से आज्ञा माँगी 'सुनहु मातु मोहि अतिशय भूखा,लागि देख सुन्दर फल रूखा'.राम काज के लिए उन्होंने मान अपमान की भी कोई परवाह नहीं की.मेघनाथ के ब्रह्मास्त्र से जानबूझ कर बंधकर,राक्षसों की लात घूंसे खाते हुए घसीट कर ले जाते हुए भी रावण की सभा में वे गए,रावण को समझाने की कोशिश की ,वह नहीं माना तो लंका दहन किया.'कौतुक कहँ आये पुरबासी,मारहिं चरन करहिं बहु हांसी,बाजहिं ढोल देहीं सब तारी ,नगर फेरि पुनि पूंछ प्रजारी'.हनुमान जी की शरणागति श्रीमद्भगवद्गीता के उपरोक्त श्लोक को पूर्णतया चरितार्थ करती है.सभी धर्मो का पालन करते हुए भी उनका आश्रय केवल राम जी के शरणागत रहना ही है.
विभीषण जी ऐसे विवेक का प्रतीक हैं जो 'अहंकारी' रावण का छोटा भाई बन उसकी लंका नगरी में रह रहा है. हैं.उनकी शरणागति हनुमान जी की शरणागति से निचले स्तर (lower level)की है. जो शुरू में राम जी की भक्ति लंका का राज्य प्राप्त करने हेतु कर रहे थे और अधर्मी रावण की लंका नगरी भ्रात धर्म,देश धर्म आदि के कारण छोड़ नहीं पा रहे थे..जैसे कि कोई व्यक्ति जीवन में भगवान की भक्ति से केवल भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त कर अधर्म पर आधारित सांसारिक धर्मों का ही निर्वाह करना चाहता है.परन्तु,हनुमान जी के दर्शन,सत्संग और मार्ग दर्शन से विभीषण की शरणागति भी अंततः उच्च स्तर (high level) की हो गयी. जब उन्होंने भ्रात धर्म आदि के मोह से मुक्त हो लंका का त्याग किया और राम जी का साक्षात्कार किया.उन्होंने राम जी के समक्ष स्वीकार किया भी 'उर कछु प्रथम बासना रही,प्रभु पद प्रीति सरित सो बही'.विभीषण की शरणागति पहले वासना सहित थी ,जो हनुमान जी की कृपा से वासना रहित हो गयी. यदि हम विभीषण जैसी स्थिति में हैं और ईश्वरभक्ति केवल भौतिक सुख सम्पदा पाने के लिए, अधर्म का और रिश्ते नातों का गलत प्रकार से पोषण करने के लिए कर रहें हैं, तो हनूमंत सत्संग की हमें भी परम आवश्यकता है.
समुन्द्र वाली शरणागति मजबूरी की डंडे वाली शरणागति है.'बिनय न मानत जलधि जड ,गए तीनि दिन बीति ,बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति'. जो परिस्थिति को नहीं समझता,पाप -पुण्य,भला बुरा नहीं समझता,धर्मों की मर्यादा के बहानों में बंधा रह कर ही 'राम काज' में निमित्त भी नहीं बनना चाहता,उसे जब ठोकरें लगें और डर कर वह प्रभु की शरण में आये तो ऐसी शरणागति निम्नतम स्तर (lowest level) की शरणागति है.यदि जीवन में ऐसी शरणागति भी हो सके तो इसे प्रभु की कृपा ही समझनी चाहिए.
अंत में आप सभी सुधि जनों को मैं अपनी पोस्ट 'वंदे वाणी विनयाकौ' की पोड कास्ट जो कि अर्चना चाओ जी ने अपनी सुमुधुर वाणी में बनाई है को सुनवाना चाहूँगा.सुनने के लिए निम्न पर क्लिक कीजियेगा
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जैसे कि सीता जी की खोज करते हुए सभी वानर समुन्द्र के किनारे खड़े हुए समुन्द्र को लाँघने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं.परन्तु,हनुमानजी जो केवल रामजी के ही शरणागत हैं,जपयज्ञ और प्राणायाम स्वरुप हैं,इस देहाभिमान रुपी समुन्द्र को राम काज करने हेतु लाँघने में समर्थ होते हैं.सीता की खोज यानि परमात्मा को प्राप्त करने की परम चाहत की खोज ,.जो अहंकार रुपी रावण की नगरी में कैद हुई है, ही 'राम काज' है.शरणागति और रामकाज की बात सुन्दरकाण्ड में हनुमान जी के मुख से 'बार बार रघुबीर संभारी','राम काज किन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम' आदि वचनों द्वारा सुन्दर प्रकार से वर्णित हुई है.
जब हनुमान जी लंका दहन कर राम जी के पास आये तो राम जी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा 'प्रति उपकार करौं का तोरा, सन्मुख होइ न सकत मन मोरा' यानि हनुमान जी, मैं आपका कोई प्रति उपकार करने लायक नहीं हूँ ,यहाँ तक कि मेरा मन भी तुम्हारी ओर नहीं देख पा रहा है,तुम्हारा सामना नहीं कर पा रहा है.
यह निरभिमानी के लिए अति कठिन परीक्षा है.परन्तु,राम जी के इन वचनों को सुनकर भी निरभिमानी हनुमान प्रेमाकुल हो उनके चरणों में पड़कर त्राहि त्राहि करने लगे.'चरण परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत', मैं आपकी शरण में हूँ,मुझे बहुत जन्म हो गए हैं गिरते पड़ते,ऐसी बातें कहकर मुझे अपनी माया में न उलझाईये,मुझे बचा लीजिए,बचा लीजिए. अपने किये हुए काज का किंचितमात्र भी अभिमान नहीं है हनुमान जी में. हनुमान जी की शरणागति सम्पूर्ण और अनुपम शरणागति है.
जब सीता जी ने 'अजर अमर गुननिधि सुत होहू, करहूँ बहुत रघुनायक छोहू' का आशीर्वाद हनुमान जी को दिया तो भी वे राम जी के निर्भर प्रेम में मगन हो गए. ' 'करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना,निर्भर प्रेम मगन हनुमाना'. इसके बाद ही शरीर धर्म के पालन हेतु उन्होंने सीता जी से आज्ञा माँगी 'सुनहु मातु मोहि अतिशय भूखा,लागि देख सुन्दर फल रूखा'.राम काज के लिए उन्होंने मान अपमान की भी कोई परवाह नहीं की.मेघनाथ के ब्रह्मास्त्र से जानबूझ कर बंधकर,राक्षसों की लात घूंसे खाते हुए घसीट कर ले जाते हुए भी रावण की सभा में वे गए,रावण को समझाने की कोशिश की ,वह नहीं माना तो लंका दहन किया.'कौतुक कहँ आये पुरबासी,मारहिं चरन करहिं बहु हांसी,बाजहिं ढोल देहीं सब तारी ,नगर फेरि पुनि पूंछ प्रजारी'.हनुमान जी की शरणागति श्रीमद्भगवद्गीता के उपरोक्त श्लोक को पूर्णतया चरितार्थ करती है.सभी धर्मो का पालन करते हुए भी उनका आश्रय केवल राम जी के शरणागत रहना ही है.
विभीषण जी ऐसे विवेक का प्रतीक हैं जो 'अहंकारी' रावण का छोटा भाई बन उसकी लंका नगरी में रह रहा है. हैं.उनकी शरणागति हनुमान जी की शरणागति से निचले स्तर (lower level)की है. जो शुरू में राम जी की भक्ति लंका का राज्य प्राप्त करने हेतु कर रहे थे और अधर्मी रावण की लंका नगरी भ्रात धर्म,देश धर्म आदि के कारण छोड़ नहीं पा रहे थे..जैसे कि कोई व्यक्ति जीवन में भगवान की भक्ति से केवल भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त कर अधर्म पर आधारित सांसारिक धर्मों का ही निर्वाह करना चाहता है.परन्तु,हनुमान जी के दर्शन,सत्संग और मार्ग दर्शन से विभीषण की शरणागति भी अंततः उच्च स्तर (high level) की हो गयी. जब उन्होंने भ्रात धर्म आदि के मोह से मुक्त हो लंका का त्याग किया और राम जी का साक्षात्कार किया.उन्होंने राम जी के समक्ष स्वीकार किया भी 'उर कछु प्रथम बासना रही,प्रभु पद प्रीति सरित सो बही'.विभीषण की शरणागति पहले वासना सहित थी ,जो हनुमान जी की कृपा से वासना रहित हो गयी. यदि हम विभीषण जैसी स्थिति में हैं और ईश्वरभक्ति केवल भौतिक सुख सम्पदा पाने के लिए, अधर्म का और रिश्ते नातों का गलत प्रकार से पोषण करने के लिए कर रहें हैं, तो हनूमंत सत्संग की हमें भी परम आवश्यकता है.
समुन्द्र वाली शरणागति मजबूरी की डंडे वाली शरणागति है.'बिनय न मानत जलधि जड ,गए तीनि दिन बीति ,बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति'. जो परिस्थिति को नहीं समझता,पाप -पुण्य,भला बुरा नहीं समझता,धर्मों की मर्यादा के बहानों में बंधा रह कर ही 'राम काज' में निमित्त भी नहीं बनना चाहता,उसे जब ठोकरें लगें और डर कर वह प्रभु की शरण में आये तो ऐसी शरणागति निम्नतम स्तर (lowest level) की शरणागति है.यदि जीवन में ऐसी शरणागति भी हो सके तो इसे प्रभु की कृपा ही समझनी चाहिए.
अंत में आप सभी सुधि जनों को मैं अपनी पोस्ट 'वंदे वाणी विनयाकौ' की पोड कास्ट जो कि अर्चना चाओ जी ने अपनी सुमुधुर वाणी में बनाई है को सुनवाना चाहूँगा.सुनने के लिए निम्न पर क्लिक कीजियेगा
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इस पोस्ट को प्रकाशित करने में हुई देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ.
आप सभी को अक्षय तृतीया, श्री परशुराम जयंती की हार्दिक शुभकामनाएँ.
आहा, आनंद आ गया राकेश जी, तीनों तरह की शरणागति का इतना सुंदर वर्णन पढ कर । हनुमान जी की शरणागति सर्वोत्तम है और समुद्र की सबसे हलकी । हम तो शरणागत ही नही हैं, सिर्फ अपने कष्ट निवारण के लिये प्रभु को याद करते हैं । इसकी जड में हमारा अहंकार है या आलस्य या निर्धार की कमी.......कुछ तो है ही ।
ReplyDelete...बिना स्वार्थ शरणागत होना ज़्यादा अच्छा है.विभीषण के स्वार्थ को जानकर भी प्रभु ने उन्हें अपनाया.उनकी शरण में जाते ही हर तरह के पाप धुल जाते हैं.
ReplyDeleteहनुमानजी से बढ़कर उनके प्रभु के बारे में कौन जानता है ?
क्या बात है ,अध्यात्म चिंतन का कोई सानी नहीं और वह आप जैसे मृदुल व्यक्तित्व से संचरित हो ,क्या कहने / रस-सिक्त करता भक्ति प्रवाह ......
ReplyDeleteहनुमान की भक्ति और समर्पण समझना अपने आप में परमानन्द है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ||
ReplyDeleteसुन्दरकाण्ड के नामकरण के बारे में अपने दो अग्रजों से पिछले दिनों ही सवाल-जवाब हुए थे। और अब इतनी जल्दी यह सुन्दर आलेख पढकर मन प्रसन्न हुआ। इस व्याख्या के लिये आपका हार्दिक आभार राकेश जी! ज्ञानगंगा इसी प्रकार बहती रहे!
ReplyDeleteआभारी हैं हम आपके ..इतना सुन्दर लेख देने के लिए..
ReplyDeleteशरणागति के भेद एकदम सरल तरीके से जानने को मिले, निस्संदेह हनुमान जी वाला भाव उत्तम है| इसके अतिरिक्त ' सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम व्रज, अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:' में प्रयुक्त 'धर्म' का सही परिपेक्ष्य में सही अर्थ जाना| आभार इस मंगलमयी प्रस्तुति के लिए|
ReplyDelete्बेहद उम्दा और संग्रहणीय पोस्ट है ………बस शरणागति मे ही तो उसकी प्राप्ति है। जिस दिन हम ये बात समझ जाते हैं उसी दिन से जीवन परिवर्तित हो जाता है………मन , वचन और कर्म से सम्पूर्ण समर्पण ही पूर्ण शरणागति है।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका.............
ReplyDeleteसुंदर लेख.....आनंदित हूँ.
सादर.
अनु
हनुमान जी की भक्ति भाव से अति आनंद की प्राप्ति होती है और यहाँ आकर और भी आनंद मिला |
ReplyDeleteachchha laga...
ReplyDeleteबेहद श्रमसाध्य पोस्ट होती हैं आपकी.
ReplyDeleteसुन्दर वर्णन.
परमात्मा की शरण में आने से जीव निर्भय और पापरहित होकर सत्-चित -आनन्द में रमण करने का अधिकारी हो जाता है. परन्तु,यदि आश्रय सत्-चित-आनन्द का न होकर अन्यत्र हो तो जीवन में ठहराव नहीं आने पाता है, भटकन बनी रहती है और अंततः ठोकरे ही लगती हैं .
ReplyDeleteबहुत सुंदर ! कितने सरल शब्दों में आपने अध्यात्म का सार बता दिया है. हनुमान की शरणागति सर्वोच्च है ही,आभार
बहुत आतुरता से प्रतीक्षा थी आपकी पोस्ट की ... सम्पूर्ण शान्ति और सुख का आभास हो जाता है पढ़ के ...
ReplyDeleteहनुमान जी की लीला है या प्रभू राम की लीला .. कौन लीला कर रहा है समझने के आस नहीं रहती पढते हुवे ...
शरणागत ... आपने जिस मन्त्र पे इतना बल दिया है और वो मन्त्र साध ले इंसान तो जीवन सफल है ...
आपका बहुत बहुत आभार इस क्रम को बढाने के लिए ...
बहुत ही उपयोगी और हनुमानजी की उपयोगिता से परिपूर्ण ....कमाल हैं पवन -पुत्र का ..
ReplyDelete'बार बार रघुबीर संभारी','राम काज किन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम' ....
achha motivation laga.
ReplyDeleteआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति
ReplyDeleteबुधवारीय चर्चा-मंच
पर है |
charchamanch.blogspot.com
Bahut sundar, Rakesh Kumarji. Apne kitni saral bhasha main teeno prakar ki sharnagatiyo ka matlab samjhaya hain... Padhkar, man anandit ho gaya. Dhanyavaad is anupam prastuti ke liye, aneko aneko aabhar.
ReplyDeleteबहुत आभार राकेश जी - आपकी लेखनी से भक्तिरस की मधु बून्दें यूँ ही टपकती रहे - और हम सब उसका लाभ लेते रहे |
ReplyDeleteजय श्री राम |
आनंददायक विवरण......
ReplyDeleteइसका कुछ अंश भी हम अपने में उतार सकें तो जीवन धन्य समझिए.....!
बजरंग बली को नमन
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको भी..... मन को आनंदित करते इस विवेचन के लिए आभार ....
ReplyDeletebahut hi badhia post
ReplyDeletebahut acchi baate pata chali is post ke dwara
dhanaywaad
aapko bhi prashuraam jayanti aur akshay tritya ki badhaai
हनुमन लीला अपरम्पार है...
ReplyDelete
राकेश जी, आपका स्वास्थ्य अब कैसा है...
जय हिंद..
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ...आभार आपका इस उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए
ReplyDeleteTeen levels ki sharnagati (surrender) bahut acche udaharan se ramayan me batlaayi aapne....vastav me jeevan me bhi bahut se steps par hume surrenders dekhne ko mil jaate hai chahe wo verbal, mental ya sirf physical hi ho. Thosa sa online search karte time padha ki Ramayan ko 'Sharnagati shastra' bhi batlaya gaya hai and Saranagathi means absolute self surrender (eg dropadi, prahalad, shabri, Bharat). Yanni Ramayan hume alag alag tareeke ke bhagwaan ke prati sharan me hona sikhata hai - it highlights the concept of Sharanagati. Aur further Bhagwat Geeta ka gyan bhi Arjuna ke sharnagat hone par hi saamne aata hai.
ReplyDeleteहनुमान की शरणागति सात्विक सोच का ही दूसरा नाम है .
ReplyDeleteअधिकांश लोग विभीषण रुपी राजसी सोच के साथ जीते हैं . इसीलिए मंदिर , मस्जिद अदि जाकर ईश्वर/ अल्लाह से अपने लिए मन्नत मांगते हैं .
आपकी धार्मिक व्याख्या कमाल की है .
बहुत बढ़िया .
जय हनुमान जी की ।मेरे नए पोस्ट पर आने की कृपा करें । धन्यवाद ।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ...आभार .....
ReplyDeleteअध्यात्म में समुन्द्र देह अभिमान का प्रतीक है.यानि हम अजर,अमर ,नित्य आनंदस्वरूप आत्मा होते हुए भी
ReplyDeleteस्वयं को देह माने रहते है. विनयपत्रिका में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है 'कुणप -अभिमान सागर
भयंकर घोर', यानि देह का अभिमान घोर और भयंकर सागर है.हम सब में जो थोड़ी थोड़ी साधना करने वाले हैं वे सब जानते हैं कि भरसक प्रयत्न करने के बाबजूद भी हम देहाभिमान के किनारे ही खड़े रह जाते हैं.
बहुत बढ़िया व्याख्या ,देही अभिमानी बन तू प्राणी देह - अभिमानी मत बन .यही जीवन का सार है अपने को स्थूल शरीर ही न समझ इसमें सूक्ष्म शरीर (चेतन ऊर्जा ,आत्मा )का भी वास है .
वाह सुंदर काण्ड की भी अपनी ही महत्ता है
ReplyDeleteबहुत भक्ति मय श्री हनुमान जी और सुन्दर काण्ड की सुन्दर व्याख्या तीन शरणागति का विश्लेषण बहुत आध्यात्मिक अनुभूति होती है आपके ब्लॉग पर आकर ...आभार जय श्री राम जय हनुमान
ReplyDeleteइस उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए आभार ,....जय श्री राम जय हनुमान
ReplyDeleteMY RESENT POST .....आगे कोई मोड नही ....
प्रभु शरणागत होने में ही जीवन सार है ...उद्धार है ...हनुमान जी जैसा भक्त हो तो प्रभु कृपा मिल ही जायेगी ...
ReplyDeleteआनंदित हुआ मन आपका आलेख पढ़कर ...!
देर से आने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ ...!!
क्या बात है राकेश भाई २४ तारीख से कुछ नही लिखा इंडिया से बाहर चले गये थे क्या?
ReplyDeleteचित्त शांत हो जाता है यहाँ आकर.
ReplyDeleteEnlightening and I heard the audio too...It was good...:)
ReplyDeleteराकेश जी आपकी बात सही है कि जो ज्ञान और दर्शन व चरित्रों का निरूपण और आदर्श रामायण में मिलता है वह कहीं और नहीं.
ReplyDeleteआपकी व्याख्या क्षमता अद्भुत है और इसे वही कर सकता है जो खुद समर्पण भाव में आनन्द पाए या कहे तो शरणागति को जा चूका है प्रभु की.
आभार अध्यात्म चिंतन के लिये.
बहुत भक्ति मय और सुन्दर .......
ReplyDeleteआप डूब कर लिखते हैं ...प्रभावशाली संकलन योग्य रचना भाई जी !
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
जय वीर बजरंग बली की .....
ReplyDeleteआभार और शुभकामनाएँ !
ये तो आवश्यक है ही कि हम श्री राम के मंगलमय विधान की मंगलमय व्यवस्था के अंदर ही रहें . अपने को उनके चरणों में पूर्णतया समर्पित कर दें .कातर प्रार्थना से ही वासना रहित हुआ जा सकता है .पुनः अद्भुत अध्यात्म चिंतन के लिये आभार .
ReplyDeleteआप का आलेख एक दूसरे ही लोक में ले जाता है...बहुत भक्तिमय और रोचक प्रस्तुति..आभार
ReplyDeleteआपने जिस मन्त्र पे इतना बल दिया है और वो मन्त्र साध ले इंसान तो जीवन सफल है ...
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत आभार इस क्रम को बढाने के लिए ...
बहुत सुंदर सार्थक प्रस्तुति // //
MY RECENT POST ....काव्यान्जलि ....:ऐसे रात गुजारी हमने.....
इस अलौकिक विवेचना ने आत्मा तृप्त कर दिया ...
ReplyDeleteह्रदय से आभार आपका...
राकेश जी सुन्दर काण्ड की बहुत सुन्दर व्याख्या देखने मिली आज मन प्रफुल्लित हो गया... बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ इसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ ... आपका ह्रदय से आभार...
ReplyDeleteसंकटमोचन की बात ही अलग है
ReplyDeleteबहुत बडिया प्रस्तुती धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
sir---aaj to aapne sundar -kand ki puri vykhya bahut saral shabdo me ki hai.bbahut bahut hi achha laga padh kar.kyunki sundar kand ka paath main bhi mangalvaar vshanivaar ko karti hun.
ReplyDeletehan!main khud hi aapse xhama chahti hunkyonki main bhi idhar kaffi dino par hi blog par aati hun is liye aapke blog par nahi aapaati hun.
punah xhama prarthana ke saath
mujhe to lagta tha ki aap sabhi meri itni lambi anupasthiti me mujhe bhul gaye honge par bahut hi achha laga ki aap sabhi ka sneh mere saath juda hua hai
poonam
तीनों तरह की शरणागति पूरी तरह से समझ में आ गई...अब सुंदरकाण्ड का मर्म समझने में आसानी हो रही है...इस भक्तिमय पोस्ट के लिए सादर आभार !!!
ReplyDeleteसंग्रहणीय पोस्ट..
ReplyDeleteइस ज्ञान गंगा के हम भी साक्षी हुए .......धन्य हुए !
ReplyDeleteइस ज्ञान गंगा के हम भी साक्षी हुए .......धन्य हुए !
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा पढकर ! हनुमान जी की जय । मेरे नए पोस्ट पर आपकी प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद ।
ReplyDeleteलाजवाब प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपका इंचजार रहेगा । धन्यवाद । ।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ...आभार..
ReplyDeleteभगवान की शरणागति को प्राप्त हो जाना जीवन की सर्वोत्तम और सुन्दर उपलब्धि है. हनुमान की शरणागति सर्वत्र सुंदरता का दर्शन करानेवाली है,जो कि सुन्दरकाण्ड का मुख्य आधार है....bahut hi gyanpurn nd ruchivardhak jankari dhanyavad nd aabhar rakesh jee....
ReplyDeleteबहुत लाजबाब संग्रहणीय प्रस्तुति,....
ReplyDeleteWELCOME TO MY RECENT POST....काव्यान्जलि ...: कभी कभी.....
बहुत सुन्दर जानकारी और वर्णन .
ReplyDeleteसुन्दर कांड का महत्व समझ आया. विभीषण की भूमिका रावण वध के लिए तो आवश्यक थी, और इसी लिए कहा भी गया है घर का भेदी लंका ढाहे. परन्तु बाद में विभीषण का आतंरिक परिवर्तन जो आपने बताया वो विचारनिए है. बहुत अच्छी समीक्षा प्रस्तुत की है आपने, बधाई.
ReplyDeleteशरणागति की विषद व्याख्या...!
ReplyDeleteशरणागतवत्सल प्रभु और भक्तों की जय!
यह सत्संग सदैव चलता रहे!
बहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
शरणागति का बहुत ही सूक्ष्म विवेचन किया है आपने..... और साथ में ये भी बताया है की परमात्मा की प्राप्ति हेतु अपने अहं भाव को मिटाना परम आवश्यक है। वस्तुतः यही शाश्वत सत्य है...
ReplyDeleteप्रेम गली अति साँकरी ,ता में दो न समाहि
.....मनोहारी है ये लेख
सर, मैने हाल ही में ब्लोग जगत में पदार्पण किया है। अतः आपसे अनुरोध है कि मेरे ब्लोग पर पधार कर मेरा मार्गदर्शन करें।
निर्मल औ निःस्व भक्ति का नाम है -हनुमान !
ReplyDelete" परमात्मा की शरण में आने से जीव निर्भय और पापरहित होकर सत्-चित -आनन्द में रमण करने का अधिकारी हो जाता है.!' गुरु जी प्रणाम ! बहुत ही सुन्दर और सुयोग्य प्रस्तुति !लेट के लिए क्षमाप्रार्थी ! ग्रीष्मकाल छुट्टी जो है ! मेरे ब्लॉग पर भी पधारे और अपने अनुभव से अवगत कराएँ !
ReplyDeleteहनुमानजी से बढ़कर उनके प्रभु के बारे में कौन जानता है ? नए पोस्ट पर इंतजार रहेगा ।
ReplyDeleteबहुत प्यारी पोस्ट है आपकी... देर से आना हुवा ...पर इतनी देर भी नहीं जितनी देर में मैं जवाब दे रही हूँ.... समयाभाव की वजह से पूरी पोस्ट टुकड़ों टुकड़ों में पढ़ी... आज मैंने इस पोस्ट को फिर से पूरी तरह से पढ़ा ..मन आनंदित हो गया .... शरणागति को बखूबी आपने अलग अलग पादानो में रख कर उनको दोहों सहित समझाया है ... उदहारण भी अच्छे लगे... काश की हम हनुमान जी की तरह शरणागति को प्राप्त हों ... आपका आभार ... आपकी पोस्ट पर आना और उसे समझना हमें अच्छा लगता है... भले ही विलम्ब हो .. शुभदिवस
ReplyDeleteमेरी टिपण्णी यहाँ पर नहीं दिखाई दे रही है... राकेश जी क्या आपको मेरी कल की गयी टिपण्णी मिली...सादर
ReplyDeleteHappy to read you :)
ReplyDeleteWatched your discussion on blogging on ITV Gold. It was great listening you and Saru! :)
Thank you so much for encouraging me with your comments :)
My best wishes to you...
Happy Blogging
भगवान की शरणागति को प्राप्त हो जाना जीवन की सर्वोत्तम और सुन्दर उपलब्धि है.
ReplyDeletebahut hi achha likha hai, aapke blog mein aakar hriday saral anand se bhar uthta hai.
shubhkamnayen
भगवान की शरणागति को प्राप्त हो जाना जीवन की सर्वोत्तम और सुन्दर उपलब्धि है.
ReplyDeletebahut hi achha likha hai, aapke blog mein aakar hriday saral anand se bhar uthta hai.
shubhkamnayen
बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....
ReplyDeleteहैल्थ इज वैल्थपर पधारेँ।
राकेश जी, आपको कोटि कोटि धन्यवाद... इस तरह के विषय पर लिखने के लिए...
ReplyDeletehardik dhanyvaad ---sir
ReplyDeletebahut hi achha laga jo aap mere blog par aaye
poonam
राकेश जी , आपके ब्लॉग को पढाने का आनंद ही कुछ और है...कुछ देर के लिए सांसारिकता छोड़ कर मन राममय होगया... बहुत ही सुन्दर भाव!
ReplyDeleteजय बजरंग बलि ......... बहुत दिन के बाद फिर आपके चरण में आया हूँ
ReplyDeleteकृपा बनाये रखियेगा
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राकेश भाई शिकायत है आपसे , आप नहीं आते छोटे भाई के ब्लॉग पे .मेरे ब्लॉग पे आएगा
आज भारत बंद है
प्रगतिशील सरकार की पहचान !
आदरणीय राकेश जी आजकल आपके आलेख बहुत दिनों में आते हैं ऐसा क्यों? श्रंखला का अगला अंक प्रस्तुत कीजिये. धन्यबाद.
ReplyDeleteबहोत अच्छे
ReplyDeleteHindi Dunia Blog (New Blog)
नए पोस्ट पर इंतजार रहेगा...राकेश जी
ReplyDeleteHunuman ji ki bhakti mujhe bachpan se prerit karti hai, use phir se yaad dilaane ke dhanywaad, sir! Mera naam bhi unki maata ji jaisa hai :-) :-)
ReplyDeleteबहुत ही खुशी हुई अंजना जी आपको यहाँ देखकर.
ReplyDeleteगहन अर्थ संजोये है आपका नाम.
आपका नाम सच में पवित्र और पूजनीय है.
bahut din ho gaye mere naye post aapke intjaar me....
ReplyDeleteबहुत दिनों से मेरे पोस्ट पर नही आए इन्तजार है,,,,,
ReplyDeleteMY RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: विचार,,,,
Stutya kaarya kar rahe hain..
ReplyDeletebahut Sunder blog hai..
badhai...
air
ReplyDeleteshri hanumaan ji ki bhakti ke bare me me padh kar aur jyaada jaankaari prapt hoti hai aapke blog par aakar .aap ki lekhni yun hi nirantar chalti rahe aur ham sabhi iska labh uthyen----
bahut bahut badhiya v bhakti -may post
hardik naman
poonam
बहुत अच्छी रोचक प्रस्तुति। धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार राकेश जी ....
ReplyDeleteदेह का अभिमान घोर और भयंकर सागर है.हम सब में जो थोड़ी थोड़ी साधना करने वाले हैं वे सब जानते हैं कि भरसक प्रयत्न करने के बाबजूद भी हम देहाभिमान के किनारे ही खड़े रह जाते हैं........
भौतिक नश्वर शरीर का अभिमान भौतिक सांसारिक वस्तुओं के प्रति राग ही संसार में दुखों का कारण ओर मुक्ति मार्ग में बाधक है......
आपको अत्यंत भक्ति भाव पूर्ण अध्यात्मिक आलेख के लिए साधुवाद !
मन को आनंदित करने वाला लेख।
ReplyDeleteभक्तिरस की बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteVery analytical post, got to understand a lot of things about the true meaning of Shri Hanuman and his bhakti.
ReplyDeletethanks....Anonymous ...ji/
ReplyDeleteबहुत सुन्दर विश्लेषण ...सच कहूँ तो इन दिनों मन को इसी प्रकार की सामग्री की आवश्यकता थी अब शायद वापस अपने कर्म की ओर उन्मुख हो सकूँ
ReplyDeletekya bat hai rakesh ji koi narajgi ...?
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन रचना....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
हनुमान लीला अदभुत रूप से कल्याणकारी है.
ReplyDeleteजितना समझने का प्रयास करता हूँ,उतना कुछ
और नया पाता हूँ.
महावीर विक्रम बजरंगी
कुमति निवार सुमति के संगी.
मन को भक्ति रस से आच्छादित करती रचना जो इस संसार सागर की तपिश को शांत करने एमं प्रभावी है, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम
mythology+ knowledge..
ReplyDeletethis is what I always get from here :)
a thought provoking read as always :)
राकेश जी,
ReplyDeleteमेरे व्याख्यान का वीडियो आप इस लिंक पर देखें...
http://amirrorofindianhistory.blogspot.in/
Bahut khub sir. Dhanyavad.
ReplyDeleteThanks for sharing, nice post! Post really provice useful information!
ReplyDeleteFadoExpress là một trong những top công ty chuyển phát nhanh quốc tế hàng đầu chuyên vận chuyển, chuyển phát nhanh siêu tốc đi khắp thế giới, nổi bật là dịch vụ gửi hàng đi nhật và gửi hàng đi pháp và dịch vụ chuyển phát nhanh đi hàn quốc uy tín, giá rẻ