जय जय जय हनुमान गोसाँई, कृपा करहु गुरुदेव की नाईं
मेरी पोस्ट ' हनुमान लीला भाग -१' में हनुमान जी के स्वरुप का चिंतन करते हुए मैंने लिखा था
' हनुमान जी वास्तव में 'जप यज्ञ' व 'प्राणायाम' का साक्षात ज्वलंत स्वरुप ही हैं.साधारण अवस्था में हमारे मन, बुद्धि,प्राण अर्थात हमारा अंत:करण अति चंचल हैं जिसको कि प्रतीक रूप मे हम वानर या कपि भी
कह सकते हैं. लेकिन जब हम 'जप यज्ञ' व 'प्राणायाम ' का सहारा लेते हैं तो प्राण सबल होने लगता है.
'हनुमान लीला भाग -२' में यह चर्चा की थी कि
जीव जब दास्य भाव ग्रहण कर सब कुछ राम को सौंप केवल राम के कार्य यानि आनंद का संचार और विस्तार करने के लिए पूर्ण रूप से भक्ति,जपयज्ञ , प्राणायाम व कर्मयोग द्वारा नियोजित हो राम के अर्पित हो जाता है तो उसके अंत: करण में 'मैं' हनुमान भाव ग्रहण करने लगता है. तब वह भी मान सम्मान से परे होता जाता है और 'ऊँ जय जगदीश हरे स्वामी जय जगदीश हरे ...तन मन धन सब है तेरा स्वामी सब कुछ है तेरा, तेरा तुझ को अर्पण क्या लागे मेरा ..' के शुद्ध और सच्चे भाव उसके हृदय में उदय हो मानो वह हनुमान ही होता जाता है.
'हनुमान लीला भाग -३' में मोह और अज्ञान का जिक करते हुए लिखा था
समस्त अनिश्चिंतता,भय संदेह ,असुरक्षा का कारण 'मोह' अर्थात अज्ञान है,अज्ञान के साथ अभिमान
अर्थात यह मानना कि मुझे किसी आश्रय की आवश्यकता नही है अत्यंत शूलप्रद और कष्टदायी होता है
'हनुमान लीला भाग-४' में वर्णन किया था
हनुमान जी का चरित्र अति सुन्दर,निर्विवाद और शिक्षाप्रद है,
भगवान की शरणागति को प्राप्त हो जाना जीवन की सर्वोत्तम और सुन्दर उपलब्धि है. हनुमान की शरणागति सर्वत्र सुंदरता का दर्शन करानेवाली है,
उपरोक्त बातों को अपने मन मे रखकर , हनुमान जी का गुरु रूप में ध्यान करते हुए,इस पोस्ट में मैं श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १५ के श्लोक ५ में वर्णित तथ्यों और व्याख्या का अवलंबन करते हुए' हनुमान लीला द्वारा कैसे परम पद यानि परमानन्द की स्थिति तक पहुँचा जा सकता है, उस साधना का उल्लेख करना चाहूँगा. परम पद या परमानन्द की यह स्थिति अव्यय है, अर्थात सदा ही बनी रहने वाली है. यह पद व्यय रहित है इसीलिए 'अव्यय' कहलाता है ,कभी भी क्षीण होने वाला नही है.जबकि सांसारिक हर सम्पदा या पद कभी न कभी क्षीण हो जाने वाला होता है .यहाँ तक कि 'स्वर्ग' लोक तक का सुख भी एक दिन पुन्य कर्मों के व्यय हो जाने पर क्षीण हो जाने वाला है.इसलिए इस व्यय रहित परमानन्द रुपी अव्यय पद तक पहुंचना हम सबका ध्येय होना चाहिए.
श्रीमद्भगवद्गीता का श्लोक निम्न प्रकार से है :-
निर्मानमोहा जित संगदोषा, अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदु:खसंज्ञैर ,गच्छ्न्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्
श्लोक की टाइपिंग में हुई त्रुटि के लिए क्षमा चाहूँगा.उपरोक्त श्लोक में 'गच्छ्न्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्' के द्वारा अमूढ़ (मूढता का सर्वथा त्याग करते हुए)होकर 'अव्यय पद' तक पहुँचने की साधना वर्णित है,जिसकी व्याख्या निम्न प्रकार से की जा सकती है.
निर्मान्-
पहली साधना है मान रहित होने की.जैसा कि हमने जाना कि हनुमान जी सदा मान रहित हैं.हमें भी अपने
चंचल कपि रूप चित्त को हनुमान जी का ध्यान करते हुए मानरहित करने का प्रयास करते रहना चाहिए.
अपने को मान देने की प्रक्रिया हमें लक्ष्य से भटका देती है.हम जिस भी इष्ट का ध्यान करते हैं,उसी के हम में
गुण भी आ जाते हैं.हनुमान जी का ध्यान करने से 'मान रहित' होने का गुण निश्चितरूप से हम में आ जाएगा,
मन में ऐसी आस्था और विश्वास रखकर हमें 'हनुमान जी' के मानरहित स्वरूप का निरंतर चिंतन करना चाहिये.
अमोहा -
दूसरी साधना है मोह रहित होने की.अर्थात 'अमोहा' होने की. हनुमान जी 'ज्ञानिनामग्रगण्यम ' व 'बुद्धिमतां वरिष्ठम्'हैं.बालकाल में ही उन्होंने 'सूर्य' को मधुर फल जान कर भक्षण कर लिया था.'सूर्य' ज्ञान का प्रतीक है.सूर्य के भक्षण का अर्थ है उन्होंने ज्ञान विज्ञान को बाल काल में ही पूर्णतया आत्मसात कर लिया था.जैसा की 'हनुमान लीला भाग -३' की पोस्ट में भी कहा गया था कि'समस्त अनिश्चिंतता,भय संदेह ,असुरक्षा का कारण 'मोह' अर्थात अज्ञान है' इसलिए उस अव्यय पद यानि परमानन्द की स्थिति तक पहुँचने के लिए 'मोह' से निवृत्त हो जाना भी अत्यंत आवश्यक है. इसके लिए हमें हनुमान जी का 'ज्ञानिनामग्रगण्यम ' व 'बुद्धिमतां वरिष्ठम्' रूप ध्यान में रख कर ज्ञान अर्जन की साधना निरंतर करते रहना चाहिये.
जित संग दोषा-
संग दोष विषयों के संग व आसक्ति के कारण उत्पन्न होता है.श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय २, श्लोक ६२ में
वर्णित है 'ध्यायतो विषयां पुंस: संगस्तेषूपजायते ...'. विषयों का ध्यान करने वाले पुरुष का उन विषयों से संग अथवा विषयों से आसक्ति हो जाती है. जिस कारण उसके मन में विषय की कामना उत्पन्न हो जाती हैं,कामना में विघ्न पड़ने पर क्रोध की उत्पत्ति होती है.क्रोध से मूढ़ भाव अर्थात अज्ञान की प्राप्ति होती है,मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है,जिससे बुद्धि अर्थात ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है.बुद्धि का नाश होने से पुरुष अपनी स्थिति से ही गिर जाता है.अर्थात परम पद की ओर बढ़ने के बजाय वह पथ भ्रष्ट हो भटकाव की स्थिति में आ जाता है.इसलिए परम पद की यात्रा की ओर अग्रसर होने में संग दोष को जीतना अतिआवश्यक है.हनुमान जी 'जितेन्द्रियं' व 'दनुजवनकृशानुं ' हैं अर्थात उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की हुई है उनमें 'समस्त विकारों,अधम वासनाओं को भस्म करने की सामर्थ्य है. वे विषयों का ध्यान करने के बजाय सदा राम जी (परम पद ) का ही ध्यान करते हैं.विषयों के ध्यान से चित्त को हटा परमात्मा का ध्यान करने से धीरे धीरे 'संग दोष' पर विजय प्राप्त की जा सकती है.
अध्यात्मनित्या-
हम अधिकतर बाहरी जगत का चिंतन करते रहते है.अपने स्वरुप का चिंतन 'अध्यात्म' के नाम से जाना जाता है.आंतरिक चिंतन अर्थात अपने स्वरुप का नित्य चिंतन करने से भी हम परम पद की ओर अग्रसर होते हैं.जीवात्मा परमात्मा का अंश है अर्थात वह भी सत्-चित-आनन्द स्वरुप ही है. परन्तु,जीवात्मा के मन,बुद्धि और इन्द्रियाँ ब्राह्य प्रकृति में अत्यंत व्यस्त हो जाने के कारण उसे अपने स्वरुप का ध्यान लोप हो जाता है.नित्य प्रति स्वयं के स्वरुप का साक्षी भाव से चिंतन व ध्यान करना ही 'अध्यात्मनित्या' है.हनुमान जी 'अध्यात्म नित्या' के कारण ही' सकलगुणनिधानं व वानरणामधीशं हैं.
उपरोक्त श्लोक में वर्णित शेष तीन साधनाओं ( विनिवृत्तकामाः, द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदु:खसंज्ञैर ) की व्याख्या मैं अपनी अगली पोस्ट में करूँगा.आशा है सभी सुधि जन अपने अपने विचार उपरोक्त साधनाओं के सम्बन्ध में अवश्य प्रस्तुत करेंगें.
पिछले महीने अमेरिका के टूर पर गया हुआ था.इस कारण और अपनी व्यस्तता के कारण यह पोस्ट देर से लिख पाया हूँ.इसके लिए सभी जिज्ञासु सुधि जनों से क्षमाप्रार्थी हूँ, विशेषकर उनका जिन्होंने मुझे हनुमान लीला पर पोस्ट लिखने के लिए बार बार प्रोत्साहित किया है.
अमेरिका में वहाँ की एक विख्यात हिंदी चैनल ITV के लिए ITV के Director श्री अशोक व्यास जी ने श्रीमती सरू सिंघल जी (ब्लॉग 'words') और मुझे लेकर एक इंटरव्यू लिया था. उसका youtube लिंक है http://youtu.be/IcWHN6UzHKI
श्रीमती सरू सिंघल (Saru singhal) जी ने अपने ब्लॉग words पर ' "Discussion on Blogging on ITV Gold": एक पोस्ट भी लिखी है.
सुधिजन इन लिंक्स का अवलोकन कर सकते हैं.मुझे जब भी समय मिलेगा तो मैं भी अलग से पोस्ट लिखूंगा.
अभी आप अपने विचार 'Followers' की ब्लॉग्गिंग में क्या महत्ता है पर भी प्रकट कर सकते हैं.
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मेरी पोस्ट ' हनुमान लीला भाग -१' में हनुमान जी के स्वरुप का चिंतन करते हुए मैंने लिखा था
' हनुमान जी वास्तव में 'जप यज्ञ' व 'प्राणायाम' का साक्षात ज्वलंत स्वरुप ही हैं.साधारण अवस्था में हमारे मन, बुद्धि,प्राण अर्थात हमारा अंत:करण अति चंचल हैं जिसको कि प्रतीक रूप मे हम वानर या कपि भी
कह सकते हैं. लेकिन जब हम 'जप यज्ञ' व 'प्राणायाम ' का सहारा लेते हैं तो प्राण सबल होने लगता है.
'हनुमान लीला भाग -२' में यह चर्चा की थी कि
जीव जब दास्य भाव ग्रहण कर सब कुछ राम को सौंप केवल राम के कार्य यानि आनंद का संचार और विस्तार करने के लिए पूर्ण रूप से भक्ति,जपयज्ञ , प्राणायाम व कर्मयोग द्वारा नियोजित हो राम के अर्पित हो जाता है तो उसके अंत: करण में 'मैं' हनुमान भाव ग्रहण करने लगता है. तब वह भी मान सम्मान से परे होता जाता है और 'ऊँ जय जगदीश हरे स्वामी जय जगदीश हरे ...तन मन धन सब है तेरा स्वामी सब कुछ है तेरा, तेरा तुझ को अर्पण क्या लागे मेरा ..' के शुद्ध और सच्चे भाव उसके हृदय में उदय हो मानो वह हनुमान ही होता जाता है.
'हनुमान लीला भाग -३' में मोह और अज्ञान का जिक करते हुए लिखा था
समस्त अनिश्चिंतता,भय संदेह ,असुरक्षा का कारण 'मोह' अर्थात अज्ञान है,अज्ञान के साथ अभिमान
अर्थात यह मानना कि मुझे किसी आश्रय की आवश्यकता नही है अत्यंत शूलप्रद और कष्टदायी होता है
'हनुमान लीला भाग-४' में वर्णन किया था
हनुमान जी का चरित्र अति सुन्दर,निर्विवाद और शिक्षाप्रद है,
भगवान की शरणागति को प्राप्त हो जाना जीवन की सर्वोत्तम और सुन्दर उपलब्धि है. हनुमान की शरणागति सर्वत्र सुंदरता का दर्शन करानेवाली है,
उपरोक्त बातों को अपने मन मे रखकर , हनुमान जी का गुरु रूप में ध्यान करते हुए,इस पोस्ट में मैं श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १५ के श्लोक ५ में वर्णित तथ्यों और व्याख्या का अवलंबन करते हुए' हनुमान लीला द्वारा कैसे परम पद यानि परमानन्द की स्थिति तक पहुँचा जा सकता है, उस साधना का उल्लेख करना चाहूँगा. परम पद या परमानन्द की यह स्थिति अव्यय है, अर्थात सदा ही बनी रहने वाली है. यह पद व्यय रहित है इसीलिए 'अव्यय' कहलाता है ,कभी भी क्षीण होने वाला नही है.जबकि सांसारिक हर सम्पदा या पद कभी न कभी क्षीण हो जाने वाला होता है .यहाँ तक कि 'स्वर्ग' लोक तक का सुख भी एक दिन पुन्य कर्मों के व्यय हो जाने पर क्षीण हो जाने वाला है.इसलिए इस व्यय रहित परमानन्द रुपी अव्यय पद तक पहुंचना हम सबका ध्येय होना चाहिए.
श्रीमद्भगवद्गीता का श्लोक निम्न प्रकार से है :-
निर्मानमोहा जित संगदोषा, अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदु:खसंज्ञैर ,गच्छ्न्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्
श्लोक की टाइपिंग में हुई त्रुटि के लिए क्षमा चाहूँगा.उपरोक्त श्लोक में 'गच्छ्न्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्' के द्वारा अमूढ़ (मूढता का सर्वथा त्याग करते हुए)होकर 'अव्यय पद' तक पहुँचने की साधना वर्णित है,जिसकी व्याख्या निम्न प्रकार से की जा सकती है.
निर्मान्-
पहली साधना है मान रहित होने की.जैसा कि हमने जाना कि हनुमान जी सदा मान रहित हैं.हमें भी अपने
चंचल कपि रूप चित्त को हनुमान जी का ध्यान करते हुए मानरहित करने का प्रयास करते रहना चाहिए.
अपने को मान देने की प्रक्रिया हमें लक्ष्य से भटका देती है.हम जिस भी इष्ट का ध्यान करते हैं,उसी के हम में
गुण भी आ जाते हैं.हनुमान जी का ध्यान करने से 'मान रहित' होने का गुण निश्चितरूप से हम में आ जाएगा,
मन में ऐसी आस्था और विश्वास रखकर हमें 'हनुमान जी' के मानरहित स्वरूप का निरंतर चिंतन करना चाहिये.
अमोहा -
दूसरी साधना है मोह रहित होने की.अर्थात 'अमोहा' होने की. हनुमान जी 'ज्ञानिनामग्रगण्यम ' व 'बुद्धिमतां वरिष्ठम्'हैं.बालकाल में ही उन्होंने 'सूर्य' को मधुर फल जान कर भक्षण कर लिया था.'सूर्य' ज्ञान का प्रतीक है.सूर्य के भक्षण का अर्थ है उन्होंने ज्ञान विज्ञान को बाल काल में ही पूर्णतया आत्मसात कर लिया था.जैसा की 'हनुमान लीला भाग -३' की पोस्ट में भी कहा गया था कि'समस्त अनिश्चिंतता,भय संदेह ,असुरक्षा का कारण 'मोह' अर्थात अज्ञान है' इसलिए उस अव्यय पद यानि परमानन्द की स्थिति तक पहुँचने के लिए 'मोह' से निवृत्त हो जाना भी अत्यंत आवश्यक है. इसके लिए हमें हनुमान जी का 'ज्ञानिनामग्रगण्यम ' व 'बुद्धिमतां वरिष्ठम्' रूप ध्यान में रख कर ज्ञान अर्जन की साधना निरंतर करते रहना चाहिये.
जित संग दोषा-
संग दोष विषयों के संग व आसक्ति के कारण उत्पन्न होता है.श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय २, श्लोक ६२ में
वर्णित है 'ध्यायतो विषयां पुंस: संगस्तेषूपजायते ...'. विषयों का ध्यान करने वाले पुरुष का उन विषयों से संग अथवा विषयों से आसक्ति हो जाती है. जिस कारण उसके मन में विषय की कामना उत्पन्न हो जाती हैं,कामना में विघ्न पड़ने पर क्रोध की उत्पत्ति होती है.क्रोध से मूढ़ भाव अर्थात अज्ञान की प्राप्ति होती है,मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है,जिससे बुद्धि अर्थात ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है.बुद्धि का नाश होने से पुरुष अपनी स्थिति से ही गिर जाता है.अर्थात परम पद की ओर बढ़ने के बजाय वह पथ भ्रष्ट हो भटकाव की स्थिति में आ जाता है.इसलिए परम पद की यात्रा की ओर अग्रसर होने में संग दोष को जीतना अतिआवश्यक है.हनुमान जी 'जितेन्द्रियं' व 'दनुजवनकृशानुं ' हैं अर्थात उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की हुई है उनमें 'समस्त विकारों,अधम वासनाओं को भस्म करने की सामर्थ्य है. वे विषयों का ध्यान करने के बजाय सदा राम जी (परम पद ) का ही ध्यान करते हैं.विषयों के ध्यान से चित्त को हटा परमात्मा का ध्यान करने से धीरे धीरे 'संग दोष' पर विजय प्राप्त की जा सकती है.
अध्यात्मनित्या-
हम अधिकतर बाहरी जगत का चिंतन करते रहते है.अपने स्वरुप का चिंतन 'अध्यात्म' के नाम से जाना जाता है.आंतरिक चिंतन अर्थात अपने स्वरुप का नित्य चिंतन करने से भी हम परम पद की ओर अग्रसर होते हैं.जीवात्मा परमात्मा का अंश है अर्थात वह भी सत्-चित-आनन्द स्वरुप ही है. परन्तु,जीवात्मा के मन,बुद्धि और इन्द्रियाँ ब्राह्य प्रकृति में अत्यंत व्यस्त हो जाने के कारण उसे अपने स्वरुप का ध्यान लोप हो जाता है.नित्य प्रति स्वयं के स्वरुप का साक्षी भाव से चिंतन व ध्यान करना ही 'अध्यात्मनित्या' है.हनुमान जी 'अध्यात्म नित्या' के कारण ही' सकलगुणनिधानं व वानरणामधीशं हैं.
उपरोक्त श्लोक में वर्णित शेष तीन साधनाओं ( विनिवृत्तकामाः, द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदु:खसंज्ञैर ) की व्याख्या मैं अपनी अगली पोस्ट में करूँगा.आशा है सभी सुधि जन अपने अपने विचार उपरोक्त साधनाओं के सम्बन्ध में अवश्य प्रस्तुत करेंगें.
पिछले महीने अमेरिका के टूर पर गया हुआ था.इस कारण और अपनी व्यस्तता के कारण यह पोस्ट देर से लिख पाया हूँ.इसके लिए सभी जिज्ञासु सुधि जनों से क्षमाप्रार्थी हूँ, विशेषकर उनका जिन्होंने मुझे हनुमान लीला पर पोस्ट लिखने के लिए बार बार प्रोत्साहित किया है.
अमेरिका में वहाँ की एक विख्यात हिंदी चैनल ITV के लिए ITV के Director श्री अशोक व्यास जी ने श्रीमती सरू सिंघल जी (ब्लॉग 'words') और मुझे लेकर एक इंटरव्यू लिया था. उसका youtube लिंक है http://youtu.be/IcWHN6UzHKI
श्रीमती सरू सिंघल (Saru singhal) जी ने अपने ब्लॉग words पर ' "Discussion on Blogging on ITV Gold": एक पोस्ट भी लिखी है.
सुधिजन इन लिंक्स का अवलोकन कर सकते हैं.मुझे जब भी समय मिलेगा तो मैं भी अलग से पोस्ट लिखूंगा.
अभी आप अपने विचार 'Followers' की ब्लॉग्गिंग में क्या महत्ता है पर भी प्रकट कर सकते हैं.
.
समस्त अनिश्चिंतता,भय संदेह ,असुरक्षा का कारण 'मोह' अर्थात अज्ञान है,अज्ञान के साथ अभिमान
ReplyDeleteअर्थात यह मानना कि मुझे किसी आश्रय की आवश्यकता नही है अत्यंत शूलप्रद और कष्टदायी होता है
.......moh se picha chudana hi to mushkil lagta hai .....
जी हाँ निशा जी,मोह से पीछा छुडाना मुश्किल है पर नामुमकिन नही.
Deleteनिशा के बाद उषा भी आ ही जाती है,यदि हनुमान जी गुरु हो जाएँ हमारे.
हार्दिक आभार जी.
सार्थक श्रृंखला
ReplyDeleteब्लॉग पर दर्शन देने के लिए आभार,वंदना जी.
Deleteअगली पोस्ट आने तक इस पोस्ट में वर्णित गुणों को समझने, सीखने की कोशिश करेंगे|
ReplyDeleteआपकी पोस्ट का इन्तजार हमें भी था|
संजय जी,आप प्रेम से जो भी लिख देते हैं,बहुत ही अपनापन लगता है उसमें मुझे.
Deleteपोस्ट में श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक का वर्णन किया गया है.हम सभी को श्रीमद्भगवद्गीता
को पढ़ने और समझने की कोशिश करनी चाहिए.अमूल्य जीवन सार छिपा है श्रीमद्भगवद्गीता में.
हार्दिक आभार.
सभी शब्दों के सार्थक वर्णन से श्लोक का गूढ़ तत्व समझने में आसानी हुई...आभार !!
ReplyDeleteसूरज निगलकर हनुमान जी ने ज्ञान-विज्ञान को आत्मसात कर लिया था...यह बात बहुत अच्छी लगी|
ऋता जी,आपके अध्यात्म प्रेम से बहुत खुशी मिलती है मुझे.
Deleteअज्ञान का प्रतीक अन्धकार है,तो ज्ञान का प्रतीक प्रकाश है.
'भा' का अर्थ प्रकाश है और सूर्य को 'भास्कर' यानि प्रकाश
करने वाला कहा गया है.श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण
कहते हैं कि 'अविनाशी ज्ञान योग' को उन्होंने सूर्य से कहा था.
सूरज का निगलना इसी परिपेक्ष में मुझे 'ज्ञान विज्ञान' को पूर्णतया
आत्मसात करना ही लगता है.अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण ने 'भारत'
कहा है जिसका अर्थ है जो अज्ञान के अन्धकार से ज्ञान के
उजाले में आने के लिए रत हो रहा है.हमारे देश का नाम 'भारत'
भी तभी सार्थक हो पायेगा जब हम सब अज्ञान के अन्धकार से
निकल कर ज्ञान के प्रकाश में आने कि चेष्टा करें.
आपकी सुन्दर टिपण्णी के लिए बहुत बहुत आभार जी.
I think I have to re-read some of your posts Sir. Sorry couldn't do certain things as promised to you, little occupied with book release. Will write to you soon.:)
ReplyDeleteI understood some of the things here but will read the entire series again.
सरू जी, आपकी व्यस्तता मैं समझ सकता हूँ.इसके बाबजूद भी आप मेरी पोस्टों को दुबारा
Deleteपढ़ने की सोच रही हैं,और मेरी बातों को भी ध्यान में रक्खे हुए हैं,यह आपका बड़प्पन
ही है.आप जैसी निष्ठावान ब्लोगर ब्लॉग जगत का अनमोल नगीना हैं.
बहुत बहुत शुक्रिया और आभार आपका.
सकलगुणनिधानं वानरणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि !!
ReplyDeleteगंगा, जमुना, सरस्वती....
सब यहीं मिल जाती है...!!
पूनम जी,आपके निश्छल हृदय के सुन्दर उदगार मुझे बहुत भाते हैं.
Deleteआपके शब्द अति हर्ष उत्पन्न करते हैं.
हार्दिक आभार.
कितना सार्थक विवेचन किया है आनन्दित हो गयी लफ़्ज़ों मे बयान नही कर सकती बस नमन है आपकी लेखनी को। हार्दिक आभार इस ज्ञान गंगा मे डुबाने के लिये।
ReplyDeleteवन्दना जी,मैं बहुत सौभाग्यशाली हूँ कि आपका सत्संग मुझे मिलता रहता है.
Deleteआपकी बातों से मुझे श्रीमद्भगवद्गीता का निम्न श्लोक स्मरण हो जाता है.
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च.
हार्दिक वंदन और नमन आपको.
सादर नमन ||
ReplyDeleteरविकर जी,आपकी अनुपम काव्यात्मक शैली की चुटीली टिपण्णी से मैं
Deleteक्यूँ वंचित हो रहा हूँ जी.
प्लीज,कुछ और भी कहियेगा न.
गुणी और ज्ञानी भतीजे को प्रणाम !
ReplyDeleteपढ़ेगें, समझने की कोशिश करेंगे ...
जय जय वीर हनुमान !
अज्ञानी चाचू :-)))
यार चाचू,
Delete'अज्ञानी चाचू का गुणी ग्यानी भतीजा'
वाह! चाचू हो तो आप जैसा.
आपकी 'यादें...' झकझोर देती हैं.
सुन्दर गूढ़ विवेचना!
ReplyDeleteIt was great to listen to the you tube link provided in the post!
you must have had a great journey!
Regards,
बहुत बहुत आभार,अनुपमा जी.
Deleteआभार, प्रणाम | बड़े दिनों बाद आपकी पोस्ट आई भैया :)
ReplyDeleteप्रणाम.
Deleteजी हाँ शिल्पा बहिन.
क्षमा प्रार्थी हूँ.
अच्छा लगा जान कर आपकी यात्रा सार्थक रही ...यू ट्यूब पर आपकी चर्चा सुनी ...बहुत बधाई ..अब अगली पोस्ट का इंतेज़ार है और मेरे ब्लोग पर भी बहुत सारी कवितायें आपकी प्रतिक्रिया जानना चाहती हैं ...कृपया ज़रूर पधारें...!!
ReplyDeleteआभार .
आपके ब्लॉग पर जाकर मुझे बहुत अच्छा लगता है.
Deleteआपकी हर कविता दिल को झंकृत कर देती है.
आभार.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (30-06-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ...!
बहुत बहुत आभार,शास्त्री जी.
Deletebahut sundar anupam prastuti.. aabhar!
ReplyDeleteआप अपना कीमती समय निकाल कर मेरे ब्लॉग पर आईं,
Deleteइसके लिए हृदय से आभारी हूँ आपका,कविता जी.
जब भी आपकी पोस्ट पर आता हूं राकेश भाई तो यकीन मानिए मेरे दिमाग में पहली बात यही आती है कि यकीनन आप एक नायाब ई ग्रंथ का निर्माण कर रहे हैं । आपकी व्याख्या इतनी अदभुत है कि मुझे लगता है कि कल को कोई प्रकाशक इस बात की अनुमति जरूर ले रहा होगा कि क्या इसे प्रिंट रूप दिया जाए । बहुत बहुत शुभकामनाएं आपको ।
ReplyDeleteअजय जी,
Deleteयह आपका बडप्पन है कि आप मुझे इतना मान दे रहे हैं.
सार्थक और जीवनोपयोगी बातों का प्रचार प्रसार हो ऐसा
करना ईश्वरीय कार्य ही है.हम सभी को इसके लिए कोशिश
करनी चाहिये.
बहुत बहुत आभार जी.
U tube par bahut hi sundar sarthak vaarta dekhne ko mili..aabhar!
ReplyDeleteयू ट्यूब पर वार्ता आपने देखी,इसके लिए हार्दिक आभार.
Deleteआपका यह पोस्ट पढ़ कर हनुमान जी के प्रति मन असीम भक्ति भाव से भर जाता है । सुन्दर प्रस्तुति... आभार। मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है। धन्यवाद ।
ReplyDeleteआभार,प्रेम सरोवर जी.
Deleteॐ हनुमते नमः
ReplyDeleteप्यारे प्यारे चैतन्य को बहुत बहुत प्यार और आशीर्वाद.
Deleteसुंदर विवेचन....आभार
ReplyDeleteआभार,मोनिका जी.
Deleteअध्यात्म का रस शायद बहुत गाढ़ा होता है , पिया नहीं जाता , आज के शीतल पेय मन माफिक होते हैं ,जो नयी पीढ़ी को शायद ज्यादा पसंद हैं .../ पर राम- रस {अध्यात्म रस } वही पिया जिसको परमात्मा ने दिया / आप सौभाग्यशाली हैं जो आपको मिला / जिसको आप विनयशीलता से सस्नेह बितरित कर रहे हैं ....... आपके भाग्य और यश में शत-ब्रिद्धि हो......
ReplyDeleteआदरणीय उदय जी,
ReplyDeleteआपके प्रेरक सुवचन मेरे लिए अनमोल हैं.
बहुत बहुत आभार जी
Introspection at regular intervals in vital for building up a good character... or in a way good human being..
ReplyDeleteLovely read as ever !!!
ज्योति,आप मेरे ब्लॉग पर आतीं है,बहुत अच्छा लगता है मुझे.
Deleteआभार.
सुन्दर सार्थक श्रृंखला..सुंदर विवेचन....आभार
ReplyDeleteआभार,महेश्वरी जी.
Deleteसार्थक वर्णन.....बड़े दिनों बाद आपकी पोस्ट आई राकेश जी
ReplyDeleteजी,देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ.
Deleteबहुत ही सार्थक प्रयास है आपका ... इसके उत्कृष्ट लेखन के लिए आभार
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार,सदा जी.
Deleteकेवल एक श्लोक में इतना ज्ञान छुपा है ...
ReplyDeleteअभी तो आपने केवल चार ही अव्यय के बारे में लिखा है ...
महान हैं हमारे ग्रन्थ और उनको लिखने वाले जिनको आज हम भूलते जा रहे हैं ... आपका आभार है बहुत बहुत इस ज्ञान को बांटने का ...
आप जैसे गुणग्राही ही हमारे ग्रंथों की महिमा समझ सकते है.
Deleteआपकी सुन्दर टिपण्णी से मेरा बहुत उत्साहवर्धन होता है.
हार्दिक आभार,दिगम्बर जी.
आपके सुन्दर विवेचन से इस गूढ़ श्लोक को समझना काफी आसान हो गया ...श्लोक में वर्णित शेष तीन साधनाओं ( विनिवृत्तकामाः, द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदु:खसंज्ञैर ) की व्याख्या का इंतजार है... बहुत-बहुत आभार एवं शुभकामनायें
ReplyDeleteआपकी अध्यात्म जिज्ञाषा के लिए आभार संध्या जी.
Deleteमान रहितता, मोहनाश और सत्संग हमें परमानंद की ओर ले जाता है...बहुत सुंदर विचार, अगली पोस्ट की प्रतीक्षा है.
ReplyDeleteअनीता जी आपका संग सुन्दर सत्संग कराता है.
Deleteआपकी सुन्दर टिपण्णी के लिए हार्दिक आभार.
aaderneey bhi sabheb..aapkee poston ka besabri se intezaar rahta hai..chauthi post kaise choot gayee maloom nahi par hanumaan leela 5 maine dekh lee thee par padhnahi paaya..darasal aapki sabhi post bahut kuch sikhati hain..adbhut jaankariyon se ot prot hoti hain..adhaytm ke naye sutron se jodne ka karya kartee hain..isliye tamam aaur posts ke tarah aapkee post chalte firte nahi padhi jaa sakti hai..main aapki post pure itmeenaan se padhta hoon..aaj hee hanum leela bhag 4 ka bhee anand liya,,nirmaan amoha jaise tamam gudon ka vikas manav ke utthaan ke prakriya me ek bahut baddi kadi hain...hanumaan kee sarnagati, bibheeshan kee sarnagati evam samudra kee sarnagati ke chupe itne bareek rahsya evam usme unnayan ke adhar ko bhee samjha..bina ram kee kripa ke samudra ke kinaare khade bandar dal aaur raam ki kripa ke sath samudra paar karte hanuman ka sandarbh behad bhaya.....aapkeee lekhni ko punah pranam...aapke agli post ke intezaar me
ReplyDeleteआदरणीय आशुतोष जी,
Deleteमैं अपने को धन्य समझता हूँ जो आप जैसे ज्ञानीजन
का साथ मुझे ब्लॉग जगत में प्राप्त हुआ है.
आपकी सुन्दर सार्थक भावमयी टिपण्णी का हृदय से
आभारी हूँ.
बहुत सुन्दर......
ReplyDeleteअगली पोस्ट की प्रतीक्षा में..
सादर
अनु
अनु जी,
Deleteआपका expression सुन्दर लगता है.
आभार.
शरणागत तत्काल ही न जाने कितनी चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है।
ReplyDeleteप्रवीण जी आपकी बात सोलह आने सच है.
Deleteआभार.
मान से रहित, अमोह यानि किसी भी चीज के मोह से भी रहित विषयों के संग से दूर यह सब हनुमान जी का ध्यान करने से सहज साध्य होगा ।
ReplyDeleteमान मोह और विषय यही तो हैं जो हमें सांसारिक बातों में लिप्त रखते हैं । किसीने कुछ कह दिया तो हमारे मान सम्मान को ठेस पहुँच गई, मोह तो क्या कहें जो नई चीज देखी वह मुझे चाहिये और वह मिल गई तो वह मेरी और सिर्फ मेरी है विषयों का तो कहना ही क्या............
हम जैसे अज्ञ लोगों को आपका यह आध्यात्मिक ज्ञान कुछ तो सुधारेगा ही । बहुत आभार ।
आदरणीय आशा जी,
Deleteसत्संग में सार्थक चर्चा से हम सभी में अवश्य ही सुधार होगा.
आपकी सुन्दर टिपण्णी मुझमें उत्साह और आशा का संचार
कर देती है.
हार्दिक आभार जी.
निर्मान्, अमोहा,जित संगदोषा,अध्यात्मनित्या जैसे अव्यय प्राप्ति साधनगुणों की इतनी सुंदर व ज्ञानमयी चर्चा हेतु हार्दिक आभार।
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी,
Deleteआपका मेरे ब्लॉग पर आना बहुत अच्छा लगता है.
सुन्दर टिपण्णी के लिए आभार.
बहुत बढ़िया बाते सीखने को मिलती रहती है..
ReplyDeleteआपकी पोस्ट से...
आपको नमन..
आभार :-)
रीना जी,एक दुसरे से ही हम सब सीख रहे हैं.
Deleteहार्दिक आभार.
बहुत गहन और ज्ञानप्रद व्याख्या...आभार
ReplyDeleteकैलाश जी,आपके शब्द मेरे लिए अनमोल उपहार है.
Deleteआभार.
आज आपका कार्यक्रम भी देखा यू ट्यूब पर अच्छा लगा आपको बधाई ।
ReplyDeleteआशा जी,आपने अपना बहुमूल्य समय निकाल कर कार्यकर्म देखा,
Deleteइससे बहुत ही खुशी मिली मुझे.सच में आप खुशी और आशा का
संचार कर देती हैं.
सच मुच चित्त को प्रसन्न मन को प्रसान्त बनाने वाली है हनु मान लीला ,शिष्य भाव से जीना सिखलाती है हनुमान लीला . .कृपया यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteram ram bhai
रविवार, 1 जुलाई 2012
कैसे होय भीति में प्रसव गोसाईं ?
डरा सो मरा
http://veerubhai1947.blogspot.com/
वीरुभाई.
Deleteराम राम भाई.आपकी राम राम और आपसे राम राम हृदय में आनन्द का संचार कर देती है.
आपके लेख अच्छी उपयोगी जानकारी देने वाले होते हैं.
फिर से राम राम भाई.
हनुमान जी का चरित्र अति सुन्दर,निर्विवाद और शिक्षाप्रद है,,,,,
ReplyDeleteMY RECENT POST...:चाय....
धीरेन्द्र जी,
Deleteआपकी चाय बहुत भाय जी.
आभार.
aadarniy sir
ReplyDeletehanumaan ji ki lila waqi
hriday se naman karne yogy hai---
un jaisa bhakt to koi virla hiba sakta hai.
aapki prastuti jitna padho utna hi gyan ka vistaar hota jaata hai.
sadar naman ke saath
poonam
पूनम जी,
Deleteआपके निर्मल प्रेम और स्नेह के समक्ष नतमस्तक हूँ मैं.
आपके दर्शन से मेरा ब्लॉग पवित्र हो उठता है.
हार्दिक नमन आपको.
aadarniy sir
ReplyDeletehanumaan ji ki lila waqi
hriday se naman karne yogy hai---
un jaisa bhakt to koi virla hiba sakta hai.
aapki prastuti jitna padho utna hi gyan ka vistaar hota jaata hai.
sadar naman ke saath
poonam
बहुत गंभीर व मनन योग्य व्याख्या है |प्रशंसनीय प्रस्तुति |
ReplyDeleteसुधाकल्प जी,
Deleteआपने दर्शन देकर मुझे कृतार्थ किया.
सुन्दर टिपण्णी के लिए आभार जी.
संग्रहनीय प्रसंग धन्यवाद।
ReplyDeleteआदरणीय निर्मला जी,
Deleteआपके यहाँ आने से मैं निर्मल और गौरान्वित महसूस करता हूँ.
आपकी कृपा का सदा आकांक्षी हूँ जी.
सादर नमन.
I read your post interesting and informative. I am doing research on bloggers who use effectively blog for disseminate information.My Thesis titled as "Study on Blogging Pattern Of Selected Bloggers(Indians)".I glad if u wish to participate in my research.Please contact me through mail. Thank you.
ReplyDeletehttp://priyarajan-naga.blogspot.in/2012/06/study-on-blogging-pattern-of-selected.html
Priyaranjan ji,
DeleteThanks for the comment.Wish you all the best for
your research.I would try to contact you.
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआपके ब्लॉग की ज्ञान गंगा के आगे नतमस्तक हो कर सर नवाना ही अच्छा लगता है | लम्बी टिपण्णी - यहाँ - करना मेरी काबिलियत से बाहर की बात है | यहाँ मैं एक नहीं, कई कई बार पढ़ कर जाती हूँ - टिप्पणियां भी हर बार पढ़ जाती हूँ, परन्तु अपने आप को कुछ कहने योग्य मैं स्वयं को नहीं समझ पाती - सो अक्सर चुप ही लौट जाती हूँ |
ReplyDeleteआपकी अध्यात्म में रूचि है,यह मैं अच्छी तरह से जानता हूँ.आपके पास सुंदर सार्थक भाव और विचारों की भी कमी नही है.आपका यूँ छोटी सी टिपण्णी करके चले जाना मुझे नही भाता.इसके लिए मैं आपका कोई भी तर्क मानने को तैयार नही हूँ.आप मुझे और मेरी पोस्ट को सम्मान देतीं हैं, इसके लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूँ.पर मेरी पोस्ट पर जो भी आप दिल से लिखेंगीं वह मुझे अच्छा लगेगा. आपके और हमारे सद्भाव,ज्ञान और सद्विचारों को विस्तार मिले,मेरे लिए तो यही ब्लॉग्गिंग का वास्तविक उद्देश्य है.औपचारिकता वश टिपण्णी भी मुझे अच्छी लगती है,पर आपसे मेरी उम्मीद कहीं ज्यादा है.
ReplyDeleteAs always very insightful and thoughtful presentation, Rakesh ji.
ReplyDeleteNirmaan ka vyakyaan bahut prena denewala aur vicharsheel laga. Is sundar prastuti ke liye aneko dhanyavaad. Agli post ka intezaar rahega.
Apka aur saru ji ka video dekha. Dekhkar aur ap donoke vichaar sunkar bahut prasannta hui... Congratulations, Rakeshji. Aneko badhaiyaan...
आरती ...जी,
Deleteआपका अध्यात्म से अदभुत प्रेम है,ऐसा अनुभव मुझे हर बार होता है.
आपकी सशक्त लेखनी ने आपको और अब आपके साथ हम सब को
भी जापान की सैर करवा दी है.आपकी प्रस्तुति बेमिसाल होती है.
आपने विडियो देखा,मुझे बहुत अच्छा लगा.
आपके नाम के साथ 'जी' लिखने का मन करता है.
बुरा न मानियेगा,प्लीज.
बहुत बहुत हार्दिक आभार आपका.
सुंदर गुणों का विवेचन श्लोकों का गूढ़ मंतव्य ग्राह्य योग्य है. अभी लिंक्स जो अपने दिया है नहीं देख पाई हूँ उसे देखकर दोबारा आउंगी.
ReplyDeleteधन्यबाद इस श्रंखला को आगे बढ़ाने के लिये.
रचना जी,
Deleteमेरे ब्लॉग पर आपके आने का आभारी हूँ.
आपके दुबारा आने का इन्तजार रहेगा मुझे.
आभार.
bahut sunder likha hai aur aapka interview dekh kar bhi bahut hi achchha laga .aap yahan aake chale gaye us smy me bharat me thi nahi to baat hi ho jati.
ReplyDeleteaapko bahut bahut badhai
saader
rachana
Rachana ji,
ReplyDeleteआप यहाँ भारत में आईं और मैं यू एस में.
ऐसा भी होता है.भारत में आप कहाँ कहाँ गयीं.
मैं यू एस में न्यूयॉर्क,न्यूजर्सी,लॉस वेगास,लॉस एंजल्स,सेन डियागो,सेन फ्रांसिस्को,ओरलांडो(फ्लोरिडा)
आदि घूम कर आया.
अभी जब फिर से आपका भारत
आना हो तो जरूर बताईयेगा.या यू एस का पता बताईयेगा. मेरा बेटा न्यूयॉर्क/न्यू जर्सी में है.
आपसे बातें व मुलाकात करके मुझे बहुत ही खुशी मिलेगी.
मेरे ब्लॉग पर आपके आने का बहुत बहुत हार्दिक आभार.
भैया - वैसे तो मैं यहाँ कुछ लिखने की अधिकारी ही नहीं हूँ, ऐसे सत्संग में चुप चाप सुन कर लाभ लेना उचित होता है | फिर भी - आप मेरे शब्दों को इतना महत्त्व दे रहे हैं - इसलिए कुछ कहती हूँ | हनुमान जी पर तो नहीं, परन्तु हाँ - भक्ति पर | हनुमान नाम ही भक्ति का समानार्थी है - इसीलिए |
ReplyDeleteभक्ति क्या है ? क्यों की जाती है ? इससे क्या प्राप्त होगा ? मैं यह क्यों करूँ ? मैं यह कैसे करूँ ? ये सब प्रश्न अक्सर सुनती हूँ, विशेषरूप से जहां आंजनेय की, या मीरा की, या शबरी आदि की बातें हों | इसलिए आज आपकी इस सुन्दर कथा के सुरम्य स्थान पर कहती हूँ, मेरे कान्हा जी मुझे बताएं की मैं क्या लिखूं |
प्रेम स्वयं का ही expansion है - जब तू भी मैं हो, तब प्रेम प्रेम है | जब प्रेम दिव्यता से हो जाए, तो वह प्रेम है भक्ति | हनुमान आदि का प्रेम दिव्य है | वे भक्ति-वक्ति नहीं करते, यह तो हमारी परिभाषाएं हैं की वे भक्ति कर रहे हैं | क्योंकि उनके लिए भक्ति कोई पृथक वस्तु होती ही नहीं | वे अपने आराध्य से इतने गहरे प्रेम में हैं, की आराधना करनी नहीं होती, उनका अस्तित्व ही आराधना - अर्चना बन जाता है | मुझे तो "भक्ति करना" कहना सुनना भी बड़ा अजब सा लगता है | जब वे अपने प्रभु को फूल चढाते हैं - तो वे स्वयं ही फूल बन कर उन पर अर्पित हो जाते हैं | जल चढ़ा रहे हों, तो जलधारा उनके 'आप' ही है - अलग नहीं | थोड़े ही शबरी ने कोई बेर खिलाये थे राम को - उसने तो अपना दिल ही निकल कर अर्पित कर दिया था - और राम ने भी उस भेंट को ही स्वीकारा था | continued
continued ..
ReplyDeleteजब एक साल का बच्च अपनी माँ को सोचता है - तो क्या वह "भक्ति" करता है ? न - उसका समूचा अस्तित्व माँ ही होती है - संसार है, चांदी का झूला है, सोने की रेल है, मोतियों का झुनझुना | परन्तु उसे यह सब बिलकुल नहीं खींचते - क्योंकि उसका मन सिर्फ माँ को खोज रहा है | माँ ही उसके पूजा है , माँ ही उसकी पूज्य भी | वह माँ को कुछ खाने को नहीं ढूंढ रहा - पेट भरा हुआ भी हो तब भी उसे माँ चाहिए | न माँ के बिना वह सो पाता है - आँखों में नींद भरी हो - पर माँ नहीं हो, तो रोता रहता है, सो नहीं पाता | मीरा का प्रेम भी अपने कान्हा को वैसे ही खोजता है, हनुमान भी अपने राम को वैसे ही पूजते हैं | उनसे अलग तो वे हैं ही नहीं - हो ही नहीं सकते |
वायु वाले पिछले भाग में मैंने वायु तत्व का मिथिकीय सम हनुमान को इसीलिए कहा था | वे पवन ही जैसे सर्वज्ञानी, अपरिमित बलधाम हैं, परन्तु वे आकाश (अपने राम) से न अलग थे, न हैं, न होंगे | पृथक हो कर भी वे राम में समाहित हैं, और राम उनमे | फिर से प्रश्न ले रही हूँ -
भक्ति क्या है ? --- सर के बल खड़ा अपेक्षायुक्त प्रेम, जब प्रत्फल की आस से अलग हो जाए और सिर्फ प्रेम का अमृत रह जाए जिसमे कुछ पाने की लालसा न रहे - तब वह भक्ति है | लालसा में अपने आराध्य को पाने की लालसा भी शामिल है | भक्त को आराध्य को पाना नहीं है - वह पा ही चुका - आराध्य उसके मन मंदिर में हैं - अब क्या और किसे पाना है ?
भक्ति क्यों की जाती है ? ---- नहीं, यह की नहीं जाती - यह बाहर से नहीं आती - यह तो हो जाती है |
इससे क्या प्राप्त होगा ? --- प्रेम से क्या प्राप्त होता है ? ---- यह तो abstract है | जिसने प्रेम किया हो - वही बता सकता है की प्रेम से क्या मिलता है | जब माँ रत में अपने लाडले के सोते हुए चेहरे को निहारती है, उस पर हाथ फेरती हा, उसके बाल सहलाती है - तो क्या मिलता है ? कुछ नहीं | बस - जो कुछ उसमे मिलता है - वही भक्ति से | जो प्रेम कुछ पाने को हो, वह प्रेम नहीं, और भक्ति भी | भक्ति स्वयं ही अपना फल है | उसकी राह ही उसकी मंजिल है - कोई पृथक मंजिल नहीं होती |
मैं यह क्यों करूँ ? मैं यह कैसे करूँ ? ---- न - यदि यह प्रश्न है - तो यह मत करो | जब हो जायेगी - तब हो जायेगी |क्या मजनू ने पूछा होगा की मैं लैला से प्रेम क्यों करूँ, कैसे करूँ ? हां यह कैसे होगी यह पूछा जा सकता है | कैसे हुई थी इनमे से किसी को भी भक्ति ? एक झलक देख कर ? अपने प्रिय के बारे में देख कर ? सुन कर ? अपनी किसी भी एक इन्द्रिय से - जिस से आप सबसे अधिक जुड़े हों (कोई सुनना पसंद करता है, कोई देखना, तो कोई छूना ) उसे गोचर करो जो प्रेम के योग्य हो, जो आपका ही आप हो, तो प्रेम अपने आप हो जाता है | महिवाल ने सोनी को बस देखा ही था न ?
तो प्रभु तो सर्व आकर्षक हैं - नाम ही तो है न उनका एक यह - कृष्ण ? तो किसी भी इन्द्रिय को उनसे छूवा दीजिये - प्रेम उसी दरवाजे से भीतर आ जाएगा | भक्ति करनी न पड़ेगी - वह तो हो जायेगी | कभी मानस के पन्नो को पढ़ते हुए राम से एकत्व करें, कभी भागवत के कलश से कृष्ण का अमृत चखें, प्रेम तो हो ही जाएगा | न हो - ऐसी तो कोई संभावना है ही नहीं | क्योंकि वह हर एक का आप है, हर एक का extension , तो उससे प्रेम न हो - यह हो ही नहीं सकता | किसी रूप में होगा | हाँ - शर्त सिर्फ इतनी है की सौदेबाजी के लिए उसके द्वार पर न जाओ |वह तो फिर भो प्रेम करेगा - वह प्रेम ही तो ठहरा - परन्तु तब आप प्रेम न कर पाओगे |
हे भगवान् - क्या क्या लिख गयी हूँ ?
शिल्पा बहिन,
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.
आप जो भी लिख गयीं हैं,उसी ने तो लिखवाया है आपसे.आपने स्वयं को सौपा उसको,तो वह आपके दिल,दिमाग में बैठ कर आपके हाथों से लिखवा गया.
आपकी इन निश्छल,भोली भाली बातों में समझने के लिए बहुत कुछ छिपा है.
आभार ही नही शाबाश आपको.
Bahut Khhob likha hai. Saadar naman
ReplyDeleteआभार,Sniel Shekhar जी.
Deleteआंजनेय पर इस प्रकार गरिमामयी पोस्टें लिखना अपने आपमें किसी साधना से कम नहीं है. ज्ञानवर्धन तो निश्चित ही हो रहा है परन्तु आत्मसात कितना कर पायेंगे कहा नहीं जा सकता. बड़ी ग्लानि हो रही है.
ReplyDeleteP.N. Subramanian ji,
ReplyDeleteयह आपका बड़प्पन है कि आप मुझे मान दे रहें हैं.
आपको ग्लानि का अनुभव होना इस बात का सूचक है कि आप हनुमान भाव को प्राप्त हो रहे हैं.
जब हनुमान जी लंका में विभीषण जी से मिले तो उन्हें भी स्वयं पर ग्लानि हुई.वे कहते हैं
'कहहु कवन मैं परम कुलीना,कपि चंचल सब विधि हीना
प्रात लेइ जो नाम हमारा,तेहि दिन ताहि न मिले
अहारा'
'अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर
किन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर'
ऐसा मान रहित हनुमान भाव सच में बहुत ही दुर्लभ है.
मनुष्य का शारीर पाकर जीव अपनी ही शक्ति-संचय करना भूल जाते हैं ..ये तो सत्य है कि सही आध्यात्मिक चोट पड़ने पर शक्ति पुन: जागृत एवं संचित होने लगती है..जो साधारण लोगों से संभव नहीं है. लेकिन आप कुछ ऐसा ही कर रहें हैं...इसके लिए ह्रदय से आभार..
ReplyDeleteअमृता तन्मय जी,
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी का मुझे बहुत बेसब्री से इन्तजार रहता है.
आपकी हर बात में गूढता,गहनता और सार्थकता
होती है. हृदय से आभारी हूँ आपका.
बड़े दिनों बाद आपकी पोस्ट आई
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
जी sm जी.
Deleteमेरे ब्लॉग पर आने का आभार जी.
"अपने स्वरुप का नित्य चिंतन करने से भी हम परम पद की ओर अग्रसर होते हैं.जीवात्मा परमात्मा का अंश है अर्थात वह भी सत्-चित-आनन्द स्वरुप ही है."
ReplyDeleteआध्यात्म का यथार्थ स्वरूपण!!
राकेश जी आपका आध्यात्म चिंतन उत्कृष्ट दशा को प्राप्त है। आपके निष्कर्षों में अद्भुत आस्था अनुभव होती है।
सुज्ञ जी,
Deleteआपके प्रेरक वचन मुझ में हर्ष का संचार कर देते हैं.
हार्दिक आभार.
धन्य हैं आप ...
ReplyDeleteइतनी विषद चर्चा कभी नहीं पढ़ी !
आभार आपका !
सतीश भाई,
Deleteआपके शब्द मेरे लिए अनमोल हैं.
आभार.
गुरूजी प्रणाम ...इतने व्यापक अर्थ सिर्फ भारतीय संस्कृति के शव्दों में ही मिल सकते है ! अतिसुन्दर अवलोकन !
ReplyDeleteभाई गोरख नाथ जी,
Deleteआप को मेरा सादर प्रणाम.
बहुत बढ़िया प्रस्तुति |गहन अध्यन का ही परिणाम हो सकती है साधुवाद |
ReplyDeleteआशा
आदरणीय आशा जी,
Deleteमेरा उत्साहवर्धन करने के लिए आपका आभारी हूँ.
विषयांतर कीजिए। मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद।
ReplyDeleteप्रेम सरोवर जी,
Deleteजब सब विचार धाराओं का अंतर समाप्त हो
पाता है तो ही प्रेम सरोवर होता है.
घूम फिर कर मेरा तो एक ही विषय है 'सत्-चित-आनन्द'.
आभार.
इस ब्लोग पर आकर चित्त प्रसन्न हो जाता है...सब कुछ भक्तिमय हो गया है सर
ReplyDeleteआभार
आपका नाम महान है जी.
Delete'अंजनी' पुत्र पवन सुत नामा
की शरण में आ सब कुछ
भक्तिमय हो जाता है जी.
आदरणीय राकेश कुमारजी,
ReplyDeleteप्रणाम ..
आपकी पोस्ट में बहुत ही सार्थक शब्दों में विवेचन किया है और बहुत सुन्दर प्रस्तुति... आभार....देरी के लिए क्षमा करें! ... आपका सवाई
जय हनुमान..
ReplyDeleteसवाई जी
Deleteजय जय हनुमान.
मेरे ब्लॉग पर आपके आने का आभारी हूँ.
बहुत लंबे अंतराल के बाद आप ने यह पोस्ट लिखी है..यकीनन बड़े श्रम और लगन से लिखी गयी है.
ReplyDeleteमैं शाम को इसे आराम से पढ़ कर अपने विचार यहाँ व्यक्त करूँगी.
आभार
अल्पना जी,
Deleteमेरे ब्लॉग पर आपका आना मुझे बहुत अच्छा लगता है.
आभार.
सार्थक विवेचन .......
ReplyDeleteआभार,निवेदिता जी.
DeleteRakesh ji ..badhaayee .
ReplyDeletebahut acchhee lagi aap kii TV par baatchit.
Aur bloggers ki importance ke naye aayaam dekhne ko mile...abhaar.
आपकी सुन्दर टिपण्णी का आभारी हूँ अल्पना जी.
Deleteप्रस्तुत पोस्ट को पढ़कर मुझे बहुत आनंद आया..जैसे कि किसी सत्संग में बैठी सुन रही हूँ.
ReplyDeleteबहुत सी नयी बातें मालूम हुई /नए अर्थ ज्ञात हुए.
बहुत ही अच्छा लगा यह लेख.
संग्रहणीय .
आप के ब्लॉग जैसे ब्लॉग वाकई न के बराबर हैं जो इस तरह का गूढ़ और सार्थक ज्ञान देते हों.
आभार.
अल्पना जी,
Deleteआपकी उपस्थिति और विवेचना से मुझे सुन्दर सत्संग की प्राप्ति हो रही है.
हार्दिक आभार.
सार्थक और सामयिक , आभार .
ReplyDeleteशुक्ला जी,
Deleteबहुत बहुत आभार आपका.
सूर्य भक्षण से हनुमान जी ने बाल्यकाल में ही ज्ञान विज्ञान को आत्मसात कर लिया था और अज्ञान (मोह) ही परमानंद की राह में सबसे बड़ी बाधा है .......
ReplyDeleteकाफी सार्थक एवं ज्ञानपूर्ण प्रस्तुति !!
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद !!
साभार !!
शिवनाथ जी,
Deleteकहते हैं शिव ही हनुमान जी के रूप में अवतरित हुए थे.
आभार जी.
सूर्य भक्षण से हनुमान जी ने बाल्यकाल में ही ज्ञान विज्ञान को आत्मसात कर लिया था और अज्ञान (मोह) ही परमानंद की राह में सबसे बड़ी बाधा है .......
ReplyDeleteकाफी सार्थक एवं ज्ञानपूर्ण प्रस्तुति !!
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद !!
साभार !!
विद्वत्तापूर्ण विवेचन - सार्थक और ग्रहण करने योग्य चिन्तन !
ReplyDeleteआदरणीय प्रतिभा जी,
Deleteसादर आभार.
Rakesh Ji ...
ReplyDeleteNamaskar...
Apki Yah Post atyant manohari, gyanvardhak hai..
isme koi shak nahin ..
parantu mare jaise praniyon ke liye yah bhasha thodi typical hai..
Dhayavad..
श्रवण सोम जी,
Deleteअपनी भाषा आसान बनाने की कोशिश करूँगा.
आपकी सुन्दर टिपण्णी के लिए आभार.
Sundar jaankaari mili is post se...adbhut hai ki kis tarah geeta gyan UNIVERSAL hai....kaal se pare yeh kisi bhi yug, avastha, sambandh me apply ho jaata hai...Sach hai ki hum log abhi tak hanuman ji ki pooja karna har mangalwaar ko mandir jaane tak aur bhagwad geeta ko mandir me sajane tak me hi santusht ho jaatien hai...hum sab ki koshish honi chahiye ki hum apne hindu dharm ke is anmol gyan ke khajane ko khole aur samjhien...
ReplyDeleteनिधि जी,
Deleteसचमुच गीता ज्ञान अदभुत और अनुपम है.
आशा है आप भी इसको समझ कर अपने
अमूल्य विचारों से हम सभी को अवगत
करती रहेंगीं.
बहुत उत्तम लेख. आपकी व्याख्या बहुत ज्ञानवर्धक होती है. ज्ञानीजनों के लिखे एक एक शब्द में गहरे अर्थ होते हैं, जो इंसान के जीवन-मंत्र है. धन्यवाद.
ReplyDeleteडॉ. जेन्नी जी,
Deleteउत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार जी.
आपकी लेखनी अनुपम और बेमिशाल है.
मन को शंति प्रदान करने वाला उत्तम आलेख।
ReplyDeleteसच कहूं तो आपके पोस्ट संग्रहणीय है।
ReplyDeleteकुछ व्यस्तताओं के चलते मैं यहां आ नहीं
पाया, लेकिन मैं आपके ब्लाग का वाकई प्रशंसक हूं।
जो अलख आप जगा रहे हैं, इससे वाकई अच्छी जानकारी हाथ लगती है
आप जैसा ज्ञान नहीं..इतने सुन्दर छंद नहीं..बस इतना ही जानती हूँ की बजरंग जी जैसा सेवक न कोई हुआ न होगा ..कलमदान पर पधारने के लिए आभार
ReplyDeleteसादर
ऋतू
ऐसा कुछ नहीं है बहुत दिनो से आपकी पोस्ट का कोई अपडेट दिख ही नहीं रहा था इसलिए आज फिर से दुबारा follow कर रही हूँ उम्मीद है अब संवाद बना रहेगा। रही बात आपकी पोस्ट की तो आज सावन सोमवार है आज के पवित्र दिन यहाँ विदेश में बैठकर भी आपके ब्लॉग के माध्यम से इतना कुछ जानने और पढ़ने को मिला की बस मन प्रसन्न हो गया आभार। आप भी आते रहीयेगा मेरी पोस्ट पर, धन्यवाद....
ReplyDeleteसुन्दर आलेख के लिए बधाई...
ReplyDeleteकाफी दिन एक हफ्ता ब्लॉग जगत से दूर रही । सबसे पहले आपके मनसा वाचा कर्मणा पर ही आई । नई पोस्ट तो नही थी, पर टिप्पणियां पढ कर ही बहुत आनंद आया खास तौर पर शिल्पाजी की टिप्पणी । आपकी नई पोस्ट के प्रतीक्षा में ।
ReplyDeleteकाफ़ी मननपूर्वक आपका आलेख पढ रहा हूं, ऐसा खो गया हूं जैसे किसी सत्संग में बैठा सुन रहा हूं. काफ़ी सुकून और जानकारी में वृद्धि होती आप द्वारा लिखे गये आलेखों, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
ताऊ श्री ,
Deleteसादर नमन और चरण स्पर्श जी.
अनुपम है आपका उत्साहवर्धन.
Bhaisaab, sunder lekhan aur sunder interview! Anand ke baare mein aapki soch bahut sunder lagi. Dhanyawaad
ReplyDeleteअंजना बहिन,
Deleteआपको मेरी 'आनन्द की सोच'अच्छी लगी,
क्यूंकि आप 'Peace' और आनन्द बांटने
में निमग्न है.आपके नाम में मुझे असीम
श्रद्धा और शान्ति का अनुभव होता है.
हार्दिक आभार.
nice blog...
ReplyDeleteहार्दिक आभार,नीलिमा जी.
Deleteबहुत बढ़िया प्रस्तुती, ज्ञानवर्धक आलेख,
ReplyDeleteआपके पोस्ट के अपडेट् न मिलने के कारण फिर से फालो कर रहा हूँ
RECENT POST काव्यान्जलि ...: आदर्शवादी नेता,
धीरेन्द्र जी,
Deleteमेरा ब्लॉग फालो करने के लिए हार्दिक
आभार.समय मिलने पर आपकी पोस्ट
पढता रहूँगा.बहुत अच्छा लगता है मुझे
आपकी दिलचस्प प्रस्तुतियाँ पढकर.
अव्यय ,अमोहा ,और अध्यात्म साधना अंगों की बड़ी सटीक बोध गम्य व्याख्या आपने की है शुक्रिया ... . कृपया यहाँ भी दस्तक देवें -
ReplyDeleteram ram bhai
सोमवार, 23 जुलाई 2012
कैसे बचा जाए मधुमेह में नर्व डेमेज से
कैसे बचा जाए मधुमेह में नर्व डेमेज से
http://veerubhai1947.blogspot.de/
वीरुभाई जी,
Deleteआपकी पोस्ट पढकर सुन्दर और
उपयोगी जानकारी मिलती है.
हार्दिक आभार.
आदरणीय श्रीराजेशजी,
ReplyDeleteमेरे ख़राब स्वास्थ्य की वजह से ब्लॉगिंग पर असर हुआ है,जैसी ईश्वर की इच्छा..!! आप का इन्टरव्यु बह्त अच्छा रहा और आनंद आ गया । आप के कुशल-मंगल की शुभ कामना के साथ अस्तु।
मार्कण्ड दवे ।
आदरणीय दवे जी,
Deleteआपके पूर्ण स्वस्थ होने के लिये दुआ और
मंगल कामना करता हूँ.आपकी ब्लोगिंग
मुझे बहुत अच्छी लगती है.समय मिलने पर
लिखते रहिएगा.
आपके सुवचनों के लिए हार्दिक आभार.
अति सुंदर।
ReplyDelete............
International Bloggers Conference!
अर्शिया जी,
Deleteमेरे ब्लॉग पर आपके आने का आभारी हूँ.
Actually this post is for me. I wanted to know and read the gist of each post and I will start from here. It was like the lesson you gave me in Flushing temple, will help me in understanding the deeper meaning easily. Thank you for this one Sir.:)
ReplyDeleteसरू,
Deleteमैं आपको बार बार सारु कहता रहा,
फिर भी आपने सहन किया और बुरा नही
माना.यह आपका बडप्पन था.
Flushing temple में आपसे
हुई बातें आपको याद है,जानकर खुशी
हुई.आप पढकर अपने सुविचारों से भी
अवगत कराती रहिएगा.
आभार.
सच कहूं तो आपके पोस्ट संग्रहणीय है।
ReplyDeleteकुछ व्यस्तताओं के चलते मैं यहां आ नहीं
पाया, काफी सार्थक एवं ज्ञानपूर्ण प्रस्तुति !!
मदन भाई,
Deleteबहुत दिनों बाद आपके दर्शन हुए.
आपके आने से मेरा उत्साहवर्धन
होता है.
आभार.
rakesh ji aapkee ब्लॉग post me bhara aadhyatm sangrahniy hai aapke ब्लॉग ke avlokan me hamse deri hui iske liye kshma prarthi hoon.aage bhi aapke ब्लॉग par ऐसी aadhytm poorn prastuti milengi aur ham unka adhyan kar labhanvit honge ऐसी आशा hai.aabhar
ReplyDeleteशालिनी जी.
Deleteबहुत बहुत शुक्रगुजार हूँ मेरे ब्लॉग
पर आपके आने के लिए और सुन्दर
टिपण्णी देने के लिए.
मैं आपकी आशा पर खरा उतरने के
लिए प्रयास करता रहूँगा.
आध्यात्मिक चिंतन से कितने सारे गूढ़ रहस्य अनावृत्त कर देते हैं आप !
ReplyDeleteआपकी मेधा को प्रणाम !
महेंद्र जी,
Deleteमेरा आपको सादर नमन.
आपकी एक एक प्रस्तुति
निति और निर्मल ज्ञान से
ओतप्रोत होती है.आपसे मुझे
बहुत प्रेरणा मिलती है.
राकेश जी , आपकी विद्वत्ता और साहित्यिक ज्ञान के आगे नतमस्तक हूँ . आपके पाठकों और टिप्पणीकारों के विचार पढ़कर भी आनंद आता है .
ReplyDeleteलेकिन आपसे एक अनुरोध है -- कृपया विषयों में विविधता लायें ताकि और भी विषयों पर आपके उत्तम विचारों से लाभान्वित हो सकें . शुक्रिया और शुभकामनायें भाई जी .
आभार,डॉ.साहिब.
Deleteविषयों में विविधता लाने के लिए भी कोशिश करूँगा.
मुझे लगता है अभी अधिकाँश पाठक अध्यात्म के
विषय पर ही पढ़ना पसंद कर रहे हैं.
vistrit vivechan .aabhar .
ReplyDeletenice .thanks
TIME HAS COME ..GIVE YOUR BEST WISHES TO OUR HOCKEY TEAM -BEST OF LUCK ..JAY HO !
रफ़्तार जिंदगी में सदा चलके पायेंगें
धन्यवाद,शिखा.
Deleteदेर आयद दुरुस्त आयद ....माफ़ी राकेश जी बहुत दिनों बाद आना हुआ ...पर आ ही गई .एक साथ दो -दो विषय पढने को मिले ..धन्यवाद !
ReplyDeleteआपकी आस्था और ज्ञान को नमन..
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