मन के स्पंदन वाणी के माध्यम से मुखरित होते हुए इस ब्लॉग जगत में मै सर्वत्र देख पा रहा हूँ .कहीं आशा के उजाले से घनीभूत, कहीं निराशा की रात्रि से ओतप्रोत , कहीं यथार्थ की कड़वाहट में भी हास्य रस की फुहार से गुदगुदाते हुए, कहीं ज्ञान और विज्ञानं की अनुपम छठा बिखेरते हुए ज्ञानीजन के मानस से उत्सर्जित. शायद इसीलिए ही मुझे अपने ब्लॉग का नाम "मनसा वाचा कर्मणा' रखना अब सार्थक लग रहा है. जब सभी सुधिजन ब्लोगर्स मनरूपी भाव समुंदर में गोते लगा रहे है तो क्यूँ न मै भी उनके साथ इस बहाने कुछ गोते लगाने का आनंद ले लूँ. मेरी पहली पोस्ट 'ब्लॉग जगत में मेरा पदार्पण' और फिर दूसरी पोस्ट 'जीवन की सफलता अपराधबोध से मुक्ति' पर जो टिप्पणियां मुझे मिली और मिल रही है उससे भी मेरा उत्साह वर्धन हुआ है. इसीलिए अब इस पोस्ट को लिखने का मै साहस कर पा रहा हूँ जो मेरे ब्लॉग 'मनसा वाचा कर्मणा' की मनसा के अनुरूप है.
कहते है ' मन के हारे हार है, मन के जीते जीत. परमारथ को पाइए मन ही के परतीत '
यानि सफलता और परमार्थ को पाने का मनसा यानि मन एक सशक्त साधन है. मन दिखलाई तो नहीं पड़ता पर हम सब के पास है, ऐसा अनुभव हम सभी को है. परमारथ का मतलब जीवन के परम अर्थ ' परमानन्द' से है. ऐसा आनंद जो स्थाई हो जो किसी भी बाहरी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति ,स्थान, या समय पर निर्भर न करे परमानन्द कहलाता है.इस मन के द्वारा ही सुख और दुख का अनुभव किया जाता है. मन यदि अतिशय दुःख की स्थिति में है तो कह सकते है हम नरक में जी रहे है और यदि मन सुख का अनुभव कर रहा है तो स्वर्ग में.अब यदि ऐसे कोई लोक होते हो जहाँ स्वर्ग या नरक अलग से होते हो तो वहां भी मन के बैगर वे सब निरर्थक ही है. अत: मन के बारे में जानना अति आवश्यक है.
भगवान कृष्ण गीता में मन की स्थिति इस प्रकार से बताते है :" इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर अर्थात शक्तिशाली कहते है और इन्द्रियों से भी पर या शक्तिशाली मन है. मन से भी पर बुद्धि है और बुद्धि से भी अत्यंत पर हमारी आत्मा है यानि हम खुद है. क्योंकि हम स्वयं ही अपने स्थूल शरीर, मन और बुद्धि के मालिक है."(गीता अध्याय ३ श्लोक ४२)
उपरोक्त श्लोक के अनुसार मन की स्थिति शरीर और इन्द्रियों से ऊपर है. वास्तव में मन ही इन्द्रियों से सन्देश प्राप्त कर हमारा बाहरी जगत से परिचय और अनुभव कराता है और हमारी भावनाओ को भी इन्द्रियों के माध्यम से प्रकट करता है.मन में असंख्य भाव समाहित है इसीलए इसको मानव को प्रकृति की ओर से दी गयी अनुपम भेट कह सकते है जो अति सूक्षम उपकरण (सोफ्ट वेयेर ) के रूप में है.
मन में ही भाव समुन्द्र लहरे मारता रहता है.जिसमे तरह तरह के भाव उदय होते रहते है और अस्त भी. यदि मन में आनंद और शांति के भाव उदय होते है तो हम आनंदित और शांत रहते है और यदि दुःख और अशांति के तो हम तकलीफ में रहते है. अब चूँकि बुद्धि की स्थिति मन के ऊपर है,जो प्रकृति द्वारा मानव को सोचने समझने की शक्ति के रूप में प्रदान की गयी है तो मन के भावो का नियंत्रण बुद्धि के द्वारा किया जा सकता है.परन्तु समस्या यह है कि मन अति चंचल है.इसको कैसे नियंत्रण में रखा जाये. इस बारे में भगवान कृष्ण गीता में कहते है "हे महाबाहु (अर्जुन) निस्संदेह मन अति चंचल है और कठिनता से वश में होने वाला है. परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है".(गीता अध्याय ६ श्लोक स० ३५)
यानि बुद्धि की विचार शक्ति के द्वारा निरंतर सुविचारो के अभ्यास से इस चंचल मन में भी सदभावो का उदय हो सकता है. वैराग्य का तात्पर्य यहाँ संसार से पलायन नहीं वरन उन कुविचारो को त्यागने से है जो मन को चंचल बनाते है.अत: बुद्धि अर्थात विवेक और विचार की शक्ति के द्वारा यदि केवल आनंद का ही चिंतन किया जाये और कुविचारो का त्याग किया जाये तो यह पक्का है कि मनरूपी भाव समुन्द्र में भी आनंद की लहरें अवश्य उठने लगेंगी.
हमारे शास्त्रों में ईश्वर की धारणा "सत चित आनंद" के रूप में ही दरसाई गयी है. इसलिए आनंद का चिंतन करते रहना ही हमारा वास्तविक धर्म और कर्तव्य है. जब आनंद का चिंतन 'मनसा वाचा कर्मणा' के माध्यम से निरंतर प्रकट होने लगेगा तो मन में भी आनंद के हिलोरे स्थायी रूप से रह जाने वाली है और हम मुक्ति का अनुभव कर सकते है. मुक्ति कहीं मरने के बाद मिलनेवाली है ऐसा केवल भ्रम मात्र ही है. अशांत मन से तो मुक्ति न इस जीवन में मिलनेवाली है और नाही मरने के बाद. इन्द्रियों को ' गो ' भी कहा गया है जिनको सही प्रकार से चराना मन का ही काम है . सैदेव शांत ओर आनंदमय मन ही गोपाल है जो इन्द्रियों को सही प्रकार से चरा सकता है. जिसका हमे निरंतर भजन करना चाहिए और ऐसा ही मन है मुक्ति का द्वार.
तो लगे रहो मुन्ना भाई सत के चिंतन में .............."ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान"
कहते है ' मन के हारे हार है, मन के जीते जीत. परमारथ को पाइए मन ही के परतीत '
यानि सफलता और परमार्थ को पाने का मनसा यानि मन एक सशक्त साधन है. मन दिखलाई तो नहीं पड़ता पर हम सब के पास है, ऐसा अनुभव हम सभी को है. परमारथ का मतलब जीवन के परम अर्थ ' परमानन्द' से है. ऐसा आनंद जो स्थाई हो जो किसी भी बाहरी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति ,स्थान, या समय पर निर्भर न करे परमानन्द कहलाता है.इस मन के द्वारा ही सुख और दुख का अनुभव किया जाता है. मन यदि अतिशय दुःख की स्थिति में है तो कह सकते है हम नरक में जी रहे है और यदि मन सुख का अनुभव कर रहा है तो स्वर्ग में.अब यदि ऐसे कोई लोक होते हो जहाँ स्वर्ग या नरक अलग से होते हो तो वहां भी मन के बैगर वे सब निरर्थक ही है. अत: मन के बारे में जानना अति आवश्यक है.
भगवान कृष्ण गीता में मन की स्थिति इस प्रकार से बताते है :" इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर अर्थात शक्तिशाली कहते है और इन्द्रियों से भी पर या शक्तिशाली मन है. मन से भी पर बुद्धि है और बुद्धि से भी अत्यंत पर हमारी आत्मा है यानि हम खुद है. क्योंकि हम स्वयं ही अपने स्थूल शरीर, मन और बुद्धि के मालिक है."(गीता अध्याय ३ श्लोक ४२)
उपरोक्त श्लोक के अनुसार मन की स्थिति शरीर और इन्द्रियों से ऊपर है. वास्तव में मन ही इन्द्रियों से सन्देश प्राप्त कर हमारा बाहरी जगत से परिचय और अनुभव कराता है और हमारी भावनाओ को भी इन्द्रियों के माध्यम से प्रकट करता है.मन में असंख्य भाव समाहित है इसीलए इसको मानव को प्रकृति की ओर से दी गयी अनुपम भेट कह सकते है जो अति सूक्षम उपकरण (सोफ्ट वेयेर ) के रूप में है.
मन में ही भाव समुन्द्र लहरे मारता रहता है.जिसमे तरह तरह के भाव उदय होते रहते है और अस्त भी. यदि मन में आनंद और शांति के भाव उदय होते है तो हम आनंदित और शांत रहते है और यदि दुःख और अशांति के तो हम तकलीफ में रहते है. अब चूँकि बुद्धि की स्थिति मन के ऊपर है,जो प्रकृति द्वारा मानव को सोचने समझने की शक्ति के रूप में प्रदान की गयी है तो मन के भावो का नियंत्रण बुद्धि के द्वारा किया जा सकता है.परन्तु समस्या यह है कि मन अति चंचल है.इसको कैसे नियंत्रण में रखा जाये. इस बारे में भगवान कृष्ण गीता में कहते है "हे महाबाहु (अर्जुन) निस्संदेह मन अति चंचल है और कठिनता से वश में होने वाला है. परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है".(गीता अध्याय ६ श्लोक स० ३५)
यानि बुद्धि की विचार शक्ति के द्वारा निरंतर सुविचारो के अभ्यास से इस चंचल मन में भी सदभावो का उदय हो सकता है. वैराग्य का तात्पर्य यहाँ संसार से पलायन नहीं वरन उन कुविचारो को त्यागने से है जो मन को चंचल बनाते है.अत: बुद्धि अर्थात विवेक और विचार की शक्ति के द्वारा यदि केवल आनंद का ही चिंतन किया जाये और कुविचारो का त्याग किया जाये तो यह पक्का है कि मनरूपी भाव समुन्द्र में भी आनंद की लहरें अवश्य उठने लगेंगी.
हमारे शास्त्रों में ईश्वर की धारणा "सत चित आनंद" के रूप में ही दरसाई गयी है. इसलिए आनंद का चिंतन करते रहना ही हमारा वास्तविक धर्म और कर्तव्य है. जब आनंद का चिंतन 'मनसा वाचा कर्मणा' के माध्यम से निरंतर प्रकट होने लगेगा तो मन में भी आनंद के हिलोरे स्थायी रूप से रह जाने वाली है और हम मुक्ति का अनुभव कर सकते है. मुक्ति कहीं मरने के बाद मिलनेवाली है ऐसा केवल भ्रम मात्र ही है. अशांत मन से तो मुक्ति न इस जीवन में मिलनेवाली है और नाही मरने के बाद. इन्द्रियों को ' गो ' भी कहा गया है जिनको सही प्रकार से चराना मन का ही काम है . सैदेव शांत ओर आनंदमय मन ही गोपाल है जो इन्द्रियों को सही प्रकार से चरा सकता है. जिसका हमे निरंतर भजन करना चाहिए और ऐसा ही मन है मुक्ति का द्वार.
तो लगे रहो मुन्ना भाई सत के चिंतन में .............."ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान"
गुरुवाणी कहती है
ReplyDelete"मन तू जोत सरूप है"
....आपने विश्लेषण करते हुए जो निष्कर्ष दिए है ...सही मायने में सही है ...मन मुक्ति का द्वार है ..और हम तन से ज्यादा, मन से जीते हैं ...आपका आभार इस सार्थक पोस्ट के लिए ....
@ >> Keval Ram ji,
ReplyDeleteBahut bahut shukria itni jaldi meri post padhne ke liye aur us per apne bahumulaya bhav prakat karne ke liye.Yadi "jot se jot jalate jaye" to manjil aur bhi aasan ho jayegi.
हमें यही प्रयास करना चाहिए की "इन्द्रियों का निग्रहण" कर सकें । यदि मन रुपी उभयेंद्रिय वश में रहेगी , तो बहुत से अनर्थों पर विराम लग सकता है ।
ReplyDeleteThanks for this beautiful post !
ReplyDelete@ >>Dr.Divya ji
ReplyDeleteBilkul theek kaha apne.Man ek ubhayendri hi hai.
Jo prakriti ke saath kriya pratikrriya me lipt rehata hai.Geeta ke adhyaya 15 shloka 7 me lika hai"Mana shisthani-indryani prakirtisthani karshiti" yani man 6th indri hai jo pancho indriyon ke saath prakriti me aakirshit-pratiakirshit hota hai."aur yahi
man hi pancho indriyon ka raja bhi hai*
Thanks.
ज्ञान का व्यापार मनसा वाचा कर्मणा ही होता है, बहुत ही उपयुक्त शीर्षक।
ReplyDeleteमन ही तो है हर रोग की जड
ReplyDeleteमन ही तो है वियोग की जड
सब मन से ही है मगर मन को साधना पडता है तप की कसौटी पर तभी ये काबू मे आता है और तप है इंद्रियो का संयम जब एक बार हम ये धारणा कर लें तो मन को साधना दुष्कर नही रहता मगर उसके साथ निरन्तर चिन्तन बना रहना चाहिये नही तो विषय जब चाहे इसे फिर आकर्षित कर लेते हैं…………मन को मारा नही जा सकता सिर्फ़ साधा जा सकता है और उसके बाद भी निरन्तर साधन मे लगाये रखना पडेगा तभी काबू मे रहता है।
बहुत ही सुन्दर व्याख्या..... आपके अनुभव पर आधारित
Deleteतोरा मन दर्पण कहलाए
ReplyDeleteतोरा मन दर्पण कहलाए
भले बुरे सारे कर्मों को
देखे और दिखलाए.
तोरा मन दर्पण कहलाए...
जय हिंद...
सच कहा आपने आनंद एक मानसिक स्तिथि है... जिसे पाने के लिए अधिक प्रयास की जरूरत नहीं होती...सिर्फ अपना दृष्टिकोण बदलने की आवशयकता होती है...बस. अपने साथ और अपने आस पास होती घटनाओं को देखने की दृष्टि बदलें और परमानन्द को प्राप्त हो जाएँ...
ReplyDeleteनीरज
@ >>Aadarniya Vandanaji,
ReplyDeleteAapka yeh kehna sahi hai ki man ko mara nahi ja
sakta keval saadha ja sakta hai."Man hi hai aanand ka dhaam,jo nitya karm karen niskam",karat karat
abhyaas ke jadmati hot sujan.
@ > Khush deep Bhai,
Yeh man darpan hi to hai jisme uth rahe bhav ko hum dekh bhi sakte hai aur dikhla bhi sakte hai.
अशांत मन से तो मुक्ति न इस जीवन में मिलनेवाली है और नाही मरने के बाद.
ReplyDeleteआपने इस आलेख का एक एक शब्द चुन च्गुन कर लगाया है. और मुक्ति के लिये जो भ्रम आदमी पाल कर रखता है उसको आपके उपरोक्त एक वाक्य ने पूरी व्याख्या दे दी है. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
@ >>Shri Praveen ji
ReplyDelete@ >>Shri Neeraj ji
@ >>Pyare taushree ji
Aap sabhi ke mulyavan vicharik sahayog ke liye bahut bahut aabhari hun.
Very true! Great Post!!! Thank you
ReplyDeleteEnlightening one. Good. Go on.
ReplyDeleteआदरणीय राकेश जी ,
ReplyDeleteआपकी की टिप्पणी की बदौलत आपके ब्लॉग पर आना हुआ .आपकी तीनो पोस्टें पढ़ीं.आपका लेखन एक प्रतिभाशाली व्यक्तित्व की पहचान है.मेरा सौभाग्य है कि मैं आपके ब्लॉग का अनुसरण कर रहा हूँ.
मन की अवस्था का आपने बहुत ही सुन्दर विश्लेषण किया है.
" बुद्धि की विचार शक्ति के द्वारा निरंतर सुविचारो के अभ्यास से इस चंचल मन में भी सदभावो का उदय हो सकता है. वैराग्य का तात्पर्य यहाँ संसार से पलायन नहीं वरन उन कुविचारो को त्यागने से है जो मन को चंचल बनाते है.अत: बुद्धि अर्थात विवेक और विचार की शक्ति के द्वारा यदि केवल आनंद का ही चिंतन किया जाये और कुविचारो का त्याग किया जाये तो यह पक्का है कि मनरूपी भाव समुन्द्र में भी आनंद की लहरें अवश्य उठने लगेंगी."
बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने.
अभ्यास के द्वारा ही मन की स्विच आफ,स्विच आन वाली अवस्था भी प्राप्त की जा सकती है.जिस के द्वारा आप किसी भी स्तिथि में आनंद मग्न रह सकते हैं.
बहुत ही शुभ कामनाएं.
सलाम.
@ > Anjana(Gudia)ji
ReplyDelete@ > Jagdish Bali ji
@ > Sagebob ji
Aap sabhi sudhijan ki udaar tippinion se mera utsaaha vardhan hua hai.Agli post ke liye shighra koshish karoonga.Sagebob ji aapne jo man ko switch off switch on ki awastha ko prapt karne ki baat bataai wahi 'Karm yog' aur 'Karm sanyaas' ki awastha hai,jinko sahi prakaar se apnaane se kisi bhi sthiti me aanand magn reh sakte hain.
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत. परमारथ को पाइए मन ही के परतीत '
ReplyDeleteman prasnn ho utha is lekh ko padhkar ,upyukt shirshak diya hai ,ashant lahro ki tarah uchhlate huye man ke liye yahi rah uttam hai .aapki aabhari hoon aane ke liye .
@ > Jyoti Singh ji
ReplyDeleteAapka mere blog par aane ke liye bahut bahut dhanyavaad.Aapki sashakt bhava-abhivyakti ka mai
kaayal hun.Aasha hai aapse subh prerna milti rahegi.
your new post is awaited ..regards ,
ReplyDelete@ > Dr.Divya ji,
ReplyDeleteAapke aadesh ka palan karte hue naveen post 'mo ko kahan dhundhta re bande' jaari kar di hai.Feb.-March ka samay atyant vyastta ka hone ke karan hi new post nahi likh paa raha tha.
sacchi post , umda lekh k l iye badhai sweekar karein
ReplyDeleteईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान
ReplyDeleteAmazing Post Sir...
सर!बहुत अच्छा लगा आपका आलेख .
ReplyDeleteसादर
मन ही मुक्ति का द्वार है, आपने सरलता से इस विषय को उदाहरणों के द्वारा प्रस्तुत किया है... गोपाल तक आते आते लेख और सुंदर हो गया है... बधाई!
ReplyDeleteयानि बुद्धि की विचार शक्ति के द्वारा निरंतर सुविचारो के अभ्यास से इस चंचल मन में भी सदभावो का उदय हो सकता है. वैराग्य का तात्पर्य यहाँ संसार से पलायन नहीं वरन उन कुविचारो को त्यागने से है जो मन को चंचल बनाते है...
ReplyDeleteसार्थक बात ...अच्छा लेख ..
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
ReplyDeleteआप जैसे ज्ञानी इंसान का मेरे ब्लॉग पर आना और उत्साहवर्धन करना यक़ीनन ख़ुशकिस्मती की बात है ..
aap ka lekh bahut hi manohar raha,
ReplyDeleteaap ke vicharon ko mera naman.
bahut sahi kaha...
ReplyDelete''मन के हारे हार है, मन के जीते जीत. परमारथ को पाइए मन ही के परतीत''
aapke lekh saamayik hain. jivan ko samajhne ke liye kai jawaab mil rahe hain. aapke blog ka naam saarthak aur anuroop hai. shubhkaamnaayen.
बहुत ही उच्च कोटि का प्रयास है आपका :) :)
ReplyDeleteऔर ये पंक्तियाँ तो बहुत ही पसंद आई क्योंकि ये हमे बहुत प्रेरणा देती हैं "' मन के हारे हार है, मन के जीते जीत. परमारथ को पाइए मन ही के परतीत "