जब जाना कि बुद्धि द्वारा मन को वश में लाया जा सकता है, तो हमने भी मन को वश में करने की कोशिश शुरू की. अनेक उपाय किये, लेकिन यह क्या ? मन पर जब जब लगाम लगाने का प्रयत्न किया, मन महाराज तो बन्दर की तरह उछल कूद मचाने में लग गए. तो हमने केवल राम जी, वंदनाजी और दिव्याजी की मेरी पोस्ट 'मन ही मुक्ति का द्वार है' पर की गयी टिप्पणिओं को ध्यान में रख कबीर जी के इस दोहे को याद किया...
" बाजीगर का बंदरा ऐसे मन जिउ साथ , ना ना नाच नचाइके राखे अपने हाथ "
हम यह सोचने लगे कि कैसे बुद्धि को बाजीगर बनाया जाये जिससे विचारों द्वारा इस मन के बन्दर को ना ना नाच नचा के भी अपने हाथ में रखा जा सके. ताकि यह उछल कूद भी मचाये तो बाजीगर के कहे अनुसार मनोरंजन करते हुए .
शास्त्रों को जानने की कोशिश की तो पता चला ईश्वर का ध्यान करना चाहिए, जो "सत-चित-आनंद"
स्वरुप है और यह भी कि जीव ईश्वर का अंश है . अर्थात जीव में भी ' सत-चित -आनंद ' का भाव होना ही चाहिए. तो मिल गया हमें भी सूत्र बुद्धि की बाजीगिरी करने का.
एकांत में बैठ गए और लगे ध्यान करने ईश्वर का और अपने खुद के स्वरुप का. सारा ध्यान बाहर से हटा, अन्दर की तरफ लगा, पहले तो मन को फुसलाया यह कह कर ' कि हे मेरे मन तू ही सत स्वरुप है ,तू कल भी था ,आज भी है, और कल भी रहेगा क्योंकि तेरा मालिक मै और मेरा मालिक वह ईश्वर ' सत ' हैं जो हमेशा से थे, हमेशा से हैं और हमेशा ही रहेंगे , तेरा कभी मरण नहीं है, मरण है तो केवल इस शरीर का .' इतना बार बार कहने से मन महाराज की गुत्थी कुछ कुछ ढीली पड़ने लगी .बहुत डरा हुआ था मरने से . अब मन को हमने आगे बहलाना शुरू किया
' कि हे मेरे मन तू ही चित स्वरुप है , तेरे में से ही चेतना की शक्ति प्रस्फुटित होती है क्योंकि तेरा मालिक मै और मेरा मालिक ईश्वर 'चित' अर्थात चेतन स्वरुप है,तू ही जोत स्वरुप है, जो अंतर में प्रकाशित है ' मन में अब ऐसा लगने लगा कि कुछ जागर्ति सी आ रही है और चेतना से ओतप्रोत होता जा रहा है मन मेरा. मै उत्साहित हो गया और फिर मन से मैं यह कहने लगा ' हे मेरे मन तू ही तो आनंद स्वरुप है, क्योंकि तेरा मालिक मैं और मेरा मालिक वह ईश्वर केवल ' आनंद ' स्वरुप ही तो हैं. तू कहाँ दर दर की ठोकरें खाता फिर रहा है. तू ही तो आनंद का सागर है. तेरा आनंद निर्बाध है यह ना किसी वस्तु पर निर्भर करता है ना किसी व्यक्ति पर और ना ही किसी स्थान पर. तू जिस वस्तु में आनंद मानता है वह वस्तु आनंद देने लगती है, जिस व्यक्ति में आनंद मानता है वह व्यक्ति आनंद देता नजर आता है जिस स्थान में तू आनंद मानता है वह स्थान आनंदमय लगने लगता है, समस्त आनंद की लहरें तो तेरे में ही तो उठ रहीं है .' अब मन का बन्दर कुछ और शांत सा हुआ और धीरे धीरे लगा शान्ति के साथ आनंद का भी अनुभव करने. बुद्धि की इस बाजीगिरी पर नाज हो आया हमको . हालांकि यह मन का आनंद कुछ समय का ही हुआ लेकिन बुद्धि की बाजीगिरी के द्वारा मन ने स्वाद तो चखा ही. . हालाँकि आसान नहीं है बुद्धि की बाजीगिरी करना,पर अभ्यास से कुछ तो होता ही है . शास्त्रों के अनुसार समस्त आनंद मन ही में विद्यमान है .
इसीलिए कबीर जी ने कहा "मो को कहाँ ढूंढता रे बन्दे मै तो तेरे पास में .ना मैं मंदिर ना मै मस्जिद ना काबा कैलाश में ". अब आप ही बताएं कुछ और बुद्धि की बाजीगिरी और मन के आनंद के सम्बन्ध में.
शास्त्र अनुसार बुद्धि की उपरोक्त बाजीगिरी के बारे में यदि आप कुछ सहमत से हों , तो आइये मिलकर गायें और गुनगुनाएं
"भज गोविन्दम , भज गोविन्दम , गोविन्दम भज मूड मते "
आनंदम आनंदम आनंदम
हालाँकि आसान नहीं है बुद्धि की बाजीगिरी करना,पर अभ्यास से कुछ तो होता ही है . शास्त्रों के अनुसार समस्त आनंद मन ही में विद्यमान है . bahut sundar abhibyakti aap ne ki hai. kabir ke doho ke kaphi karib bhi raha hun, mere dadaji ke chote bhayi kabir panthi hai.unase bahut kuchh sunane ko mil jata hai.bahut -bahut dhanyabad sir.
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर विचार जी धन्यवाद
ReplyDeleteसुंदर सार्थक विचार......
ReplyDeleteमैंने तो यही जाना है की कलयुग में "नाम" ही एक मात्र सहारा है आध्यात्मिक उत्थान का....आपसे पूरी तरह सहमत...
ReplyDeleteप्रणाम.
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ReplyDeleteरमेश जी ,
एक बेहद उम्दा , शोधपरक एवं विश्लेषणात्मक लेख के लिए बधाई।
जब भी कभी हम मानसिक द्वन्द में होते हैं तो हमारे अन्दर से दो प्रकार कि आवाजें आती हैं , एक 'मन' कि होती है दूसरी 'आत्मा' कि । मन बार-बार कुछ करने कों कहता है , जो लालसा के वशीभूत होकर दबाव डालता है । लेकिन आत्मा कि आवाज़ सिर्फ एक बार आती है , जो हमको आगाह करती है कि "ये अनुचित है , ऐसा मत करो " । अक्सर हम आत्मा कि बात अनसुनी कर देते हैं और लालच के वशीभूत होकर मन मर्जी कर लेते हैं । कुछ भी अनुचित करने के बाद हमारी आत्मा निरंतर हमें कचोटती रहती है ।
इसलिए यदि अभ्यास किया जाए तो , मन रुपी उभयेंद्रिय का निग्रहण किया जा सकता है ।
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शास्त्रों के अनुसार समस्त आनंद मन ही में विद्यमान है .
ReplyDeleteसत्य वचन...मन चंगा तो कठौती में गंगा....
नीरज
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (24-2-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
जो अन्दर बैठा है उसे घर से बाहर ढूढ़ रहे हैं सब।
ReplyDelete.
ReplyDelete@-आपने मेरा नामकरण 'राकेश' से 'रमेश' किया यह भी अच्छा लगा .
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Rakesh ji ,
I humbly apologize for writing the incorrect spelling of your kind name .
Indeed Rakesh is far more sweeter than Ramesh .
Smiles .
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जीवन दर्शन से परिपूर्ण रोचक लेख के लिए बधाई।
ReplyDeleteजीवनोपयोगी शोधपरक लेख ....
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार
आदरणीय राकेशजी,
ReplyDeleteआपकी पोस्ट कई बार पढी.मन के बारे में आप का चिंतन लाजवाब है.
पर क्या एकांत में बैठने से और ईश्वर का ध्यान करने से मन स्थिर हो जाता है.इसकी भटकन तो रुकती ही नहीं है.थोड़ी देर तो ध्यान स्थिर होता है फिर पता नहीं कहाँ चल देता है.
कई बार तो लगता है दो मन हैं ,एक तो चिंतन कर रहा होता है दूसरा इधर उधर भटक रहा होता है.
मैं शब्दों का खिलाड़ी तो नहीं हूँ,इस लिए अपनी बात को सीधे साधे शब्दों में लिख रहा हूँ.
कृपया मन को लगाने का तरीका बताईये.
आभारी रहूँगा.
सलाम.
@ > sagebob ji,
ReplyDeleteआपने अति सुंदर प्रश्न किया है .वास्तव में ध्यान योग की प्रक्रिया को ही कुछ सरल करके मैंने लिखने की कोशिश की है .जो की भगवद गीता का अध्याय ६ है.इस प्रक्रिया का सफलतम प्रयोग तब हो सकेगा जब हम 'विषाद योग','सांख्य योग','कर्म योग','ज्ञान योग ' और 'कर्म संन्यास योग' की प्रक्रीयाओं को भी क्रमानुसार ठीक से समझे और अपनाएँ.क्योंकि मन शुरू में विषादग्रस्त होता है ,ऐसे में सीधे ध्यान योग का प्रयोग करने में कठनाई तो आती ही है .फिर भी यदि थोड़ी देर भी मन स्थिर होता है ,तो वह भी एक सार्थक अनुभव ही हुआ. बाहर की सब बातों को मन से निकालकर यदि अच्छे एकांत वातावरण में ध्यान करने का नित्य अभ्यास किया जाए तो कुछ न कुछ आनंद/शान्ति का अनुभव अवश्य होने लगेगा.आनंद की मात्रा व्यक्ति- व्यक्ति की मानसिक स्थति पर भी निर्भर करती है .आप के प्रश्न का अभी कुछ समाधान मै कर पाया या नहीं,कृपया बताएँ.चर्चा आगे भी चलती रहेगी.धन्यवाद .
@ >sagebob ji,
ReplyDeleteआपने जो दो मन होने की बात कही वह यह है कि ध्यान की स्थति में आप अपनी बुद्धि और मन दोनों के ही दृष्टा हैं.दोनों ही चंचल हैं.जहाँ आप बुद्धि में विचारोँ को आता जाता देख रहें हैं वहीँ आप मन में उदय और अस्त होते हुए भावों को भी.मन और बुद्धि की ये दो क्रियाएँ ही शायद आपको दो मन के रूप में प्रतीत होती हों.बुद्धि में "सत्-चित -आनंद"का विचार जितना गहरा व स्थाई होता जाएगा तभी वह मन में आनंद का भाव उदय कर पायेगा और फिर आपही की कविता के अनुसार 'पहाडी गांव के अकेले कमरे के अंधरे सन्नाटे में'सब कुछ में केवल आनंद रह जाएगा,वर्ना यदि विचार भटकता है तो सब कुछ में कुछ का कुछ दिखलाई पड़ सकता है.
@ > Rajesh Kumar 'Nachiketa' ji
ReplyDeleteराजेश जी आपने ठीक ही कहा है की नाम नाम जप आज के समय में बहुत बड़ा सहारा है .हमारे मन बुद्धि और प्राण जगत की घटनाओं से इतने ज्यादा त्रसित व ग्रसित होते रहते हैं कि सकारात्मक सोच और ध्यान करने कि सामर्थ हममें नहीं रह पाती.ऐसे में नाम जप जहाँ हमारी प्राण शक्ति को बढाता है वहीँ बुद्धि और मन दोनों को स्थिर करने में भी सहायक होता है .इसीलिये कहा भी गया है 'कलियुग केवल नाम अधारा,सुमरि सुमरि नर उतरें पारा'
आदरणीय राकेशजी,
ReplyDeleteआपने मेरी टिप्पणी पर बहुत ही गहन विचार किया है.आभारी हूँ.
दो मन होने का विश्लेषण जो आपने किया उस से मेरी बताई समस्या का काफी हद तक समाधान हो गया है.
मैं बहुत ही छोटा व्यक्ति हूँ.अध्यात्म पथ के व्यवहारिक पक्ष को ढूंढता रहता हूँ.
इस पथ पर शब्दों के ढेर लगे हुए हैं.लेकिन व्यवहारिक पक्ष ढूंढें नहीं मिलता है.
लोगों की भीड़ जुटी रहती है महात्माओं के आस पास,लेकिन देखता हूँ कि व्यवहार तो बदलता नहीं.न महात्माओं का न भक्तों का.
ज़्यादा तर झोलियाँ खाली ही हैं.
मैंने सुना था कि जिस पेड़ को फल लग जाते हैं वह झुक जाता है.
ऐसा ही इक फला फूला पेड़ ढूंढ रहा हूँ.
इतने सालों से अध्यात्म पथ पर चल के जो जाना है वो यह कि इस पथ पर एक्ला चलो रे ही ठीक रहता है.
आपके जैसी आत्मा से संवाद करने से मुझे आनंद अनुभव हो रहा है.
आपका फिर से आभार.
अपने प्रशन तो दागता ही रहूँगा.आप के स्नेह का इच्छुक.
आपकी पोस्ट से लग है कि आपको परमात्मा का साक्षात्कार हो चुका है, प्रभु प्रणाम स्वीकारें।
ReplyDelete@ > Rajey Sha ji
ReplyDeleteशर्मा जी आप अंतर्यामी हैं प्रभु कहाँ छिपे थे अब तक ,आपके हास्यव्यंग तो सभी को गुदगुदाते हैं.कृपया ,समय समय पर आकर
हास्य रस की फुहार अवश्य छोड़ते रहिएगा .सादर प्रणाम स्वीकार करें.
@ > Sagebob ji
ReplyDeleteआपको आनंद का अनुभव हुआ यह मेरे लिए हर्ष की बात है.बड़े दिल वाले छोटे हो ही नहीं सकते .आप तो चर्चा को सार्थकता प्रदान कर रहें हैं इसके लिए आभारी हूँ आपका. कृपया ,प्रश्न अवश्य दागते रहिएगा
ब्लॉग जगत में आप जैसे संत हैं इसका हम सभी को गर्व होना चाहिए .
man ki gati nirali hai ,is par sanyam paana aasaan nahi ,lekh aur vichar dono hi uttam .
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर आलेख. आखिर मन बेचारा कहां जायेगा? वो भी तो हमारा ही एक अविभाज्य हिस्सा है. मन से कैसी लडाई? हमने तो मन को कह दिया है बेटा करले तुझसे जितनी बदामाशी की जा सके. आखिर किसी जन्म में तो तू थकेगा ही. हम तो बस मन की बाजीगरी को देखते हुये दृष्टा बनने की कोशीश करते हैं. पर मन इतना चालू चीज है कि एक पल दृष्टा भाव आते ही कहीं और उलझा लेता है. इस ब्लाग के माध्यम से आप निहायत ही सुंदर विचार परोस रहे हैं, बहुत आभार और शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
ज्योति सिंह जी ,
ReplyDeleteआपका यह कहना सही है मन की गति निराली है,इस पर संयम पाना आसान नहीं .
आपके विचार सार्थक हैं .धन्यवाद
@ > ताउश्री जी,
ReplyDeleteआपके सुवचन मेरा मनोबल बढ़ाते हैं. आपके दर्शन और ब्लोगत्व गुण
वाली टिपण्णी ने तो निहाल कर दिया मुझे. आपके चरणों में सादर प्रणाम .कृपा बनाये रखियेगा .
मन में अब ऐसा लगने लगा कि कुछ जागर्ति सी आ रही है और चेतना से ओतप्रोत होता जा रहा है मन मेरा. मै उत्साहित हो गया और फिर मन से मैं यह कहने लगा ' हे मेरे मन तू ही तो आनंद स्वरुप है, क्योंकि तेरा मालिक मैं और मेरा मालिक वह ईश्वर केवल ' आनंद ' स्वरुप ही तो हैं...
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर आलेख.
"शास्त्रों के अनुसार समस्त आनंद मन ही में विद्यमान है"
ReplyDeleteतत्व-सार!!!
आदरणीय राकेश कुमार जी
ReplyDeleteसादर सस्नेहाभिवादन !
मो को कहां ढूंढता रे बंदे ! आलेख के माध्यम से आपने बहुत सुंदर संदेश दिया है … मन मुग्ध हो गया
हालांकि मन मन की गति न्यारी न्यारी …
लेकिन याद हो आया - मन ही देवता , मन ही ईश्वर मन से बड़ा न कोय
मन के हारे हार र्है , मन के जीते जीत !
सच है जी आनंद मन ही में विद्यमान है !
बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
badi sunder post hai... sach mein man hi kabhi kabhi bhatka deta hai aur man hi uske kareeb bhi le jata hai... aur ye bhi sach hai ki jitna dhyaan karen utna hi ye man kaboo mein aata hai... :-) is post ke liye shukriya!
ReplyDeletemere hindi blog pe aane ke liye aur apke sawaal ke liye bhi dhanyawaad! jab logon ko marte hue aur tadapte hue dekhti hoon (Libya, Iraq, Afghanistan, Naxal movement in India, other African countries and so many places today and also in the history of this world) to sawaal karti usse... ho sake to is link par yeh rachna bhi padiye...
http://vrinittogether.blogspot.com/2010/10/blog-post_15.html
ओह! बेहद ही सुन्दर बात कह दी आपने!...... आपके इस विश्लेषण से हमें भी एक और दृष्टिकोण मिला है.. धन्यवाद!
ReplyDeleteआपकी पुरानी नयी यादें यहाँ भी हैं .......ज़रा गौर फरमाइए
ReplyDeletehttp://nayi-purani-halchal.blogspot.com/
bahut umda post ,old is gold ,kisi satsang se kam nahi raha yahan aana .
ReplyDeleteपरमानन्द, आनंद प्राप्ति की पराकाष्ठा ,यही शायद ईश्वरीय स्थिति -ईश्वर!
ReplyDeleteआपके विचार सार्थक हैं .धन्यवाद
latest post होली
सार्थक पोस्ट
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