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Thursday, April 21, 2011

रामजन्म - आध्यात्मिक चिंतन -२

राम यानि 'सत्-चित-आनंद' का भाव  व्यक्ति के  ह्रदय में जैसे जैसे घर करने लगता है,
उस व्यक्ति के विचारों, उसके भावों और कर्मों में भी यह भाव परिलक्षित होने  लगता है.
वह बोलेगा तो आनंद होगा, वह लिखेगा तो आनंद होगा , वह मूर्ति या चित्र बनायेगा तो
उसकी बनाई मूर्ति या चित्र में भी आनंद द्रष्टिगोचर होगा . आनंद का चिंतन किसी भी
प्रकार से  निरर्थक नहीं हो सकता  है, अत: आनंद को  धारण करना अति आवश्यक है.

हृदय में आनंद का भाव जैसे जैसे किशोर अवस्था को प्राप्त करेगा तो वह  व्यक्ति की
दुराशा का भी नाश करेगा. यह दुराशा (wrong expectation) ही 'ताडका' रुपी राक्षसनी है, जो
जीवन में उलझन व भटकाव पैदा करती रहती  है. अपनी दुराशाओं की वजह से ही व्यक्ति
अपने अच्छे खासे जीवन को भी  नरक बना लेता है,

आनंद का भाव फिर आगे जाकर व्यक्ति की कठोरता, निष्ठुरता का भी अंत कर डालता है.
ये कठोरता और निष्ठुरता ही मानो  'खर-दूषण'  हैं ,जो  मन रुपी वन में छिपे दुर्दांत राक्षस हैं.
फिर अंत में यही आनंद  का भाव  उस व्यक्ति के अहंकार यानि 'दशानन' अथवा रावण को भी
मार गिरा कर रामराज्य या पूर्णानंद की स्थापना कर देता है.  अहंकार को 'दशानन'  इसलिये
कहा  कि इसके भी दशों सिर होतें हैं.  धन का, बल का , विद्या का , रूप का, यौवन का 
आदि आदि.  अहंकार के मरे बैगर 'पूर्णानंद' की स्थिति को प्राप्त नहीं किया जा सकता.

यदि हम किसी भी महापुरुष की जीवनी का सूक्ष्म अध्ययन करें तो पायेंगें कि उन
महापुरुष ने जीवन में 'सत्-चित-आनंद'  भाव को ही धारण किया और अपनाया  था ,जिस
वजह से वे महापुरुष बन सके  और जन जन  से  उनको सम्मान मिला. यह  जरूरी  नहीं कि
'सत्-चित -आनंद'  भाव को केवल रामरूप में ही धारण किया जाये. अपनी अपनी रुचि और
आस्था अनुसार वह कृष्ण, अल्लाह या ईसा आदि भी हो सकता है.

चूँकि  इस लेख में हम रामजन्म का आध्यात्मिक चिंतन  करने की कोशिश कर  रहें हैं,
तो फिर रामजन्म पर ही पुनः विचार करतें हैं.  राम के पिता 'दशरथ'जी को व राम की
माता 'कौशल्या' जी को हमने पिछले लेख 'रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन -१'  में समझने
का एक प्रयास किया था.  मन को यदि 'दशरथ' और बुद्धि को 'कौशल्या' बना लिया जाये
तो  राम का जन्म हमारे हृदय में ही संभव है.

कहतें हैं राम का जन्म त्रेता युग में हुआ था. अब हम  त्रेता युग में कैसे पहुंचें आईये इस
पर भी विचार करते हैं. गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस के 'उत्तरकांड' के दोहा
संख्या १०३ (ख} से आगे निम्न प्रकार से चारो युगों का निरूपण किया हैं:-

                      नित जुग धर्म   होहिं सब केरे ,   हृदयँ राम माया के प्रेरे 
                      सुद्ध सत्व  समता बिग्याना , कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना 

श्रीराम जी की माया से प्रेरित होकर सबके हृदयों  में सभी युगों के धर्म नित्य होते रहते हैं.
शुद्ध सत्व गुण , समता ,विज्ञान और मन का प्रसन्न होना ही 'सतयुग'  का प्रभाव होता है.
यानि यदि हममें सम्यक ज्ञान है, विवेक है,  समता है विज्ञान है और मन भी हमारा प्रसन्न
है तो कहा जा सकता है कि हम 'सतयुग' में  जी रहें हैं. गोस्वामी जी आगे लिखते हैं:-

                      सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा , सब विधि सुख त्रेता का धर्मा
                      बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस, द्वापर धर्म हरष भय मानस

सत्वगुण अधिक हो ,कुछ रजो गुण हो ,अर्थात क्रियाशीलता हो, कर्मों में प्रीति हो, सब प्रकार
से सुख हो तो यह त्रेता का धर्म है. यानि सतोगुण के रूप में  ज्ञान और विवेक के साथ साथ
कुछ क्रियाशीलता स्वरुप  कर्मों में प्रीति होने से हृदय में रजो गुण का भी संचार हो तो कह
सकते हैं कि उस समय हम 'त्रेता युग' में जी रहें हैं
.
परन्तु जब रजोगुण अधिक बढ़ जाये, सत्व गुण के रूप में ज्ञान और विवेक थोडा ही रह जाये
और कुछ तमोगुण के रूप में ह्रदय में आलस्य ,प्रमाद, अज्ञान और हिंसा का भी संचार होकर
मन में  कभी हर्ष  हो ,कभी भय हो तब  कह सकते हैं हम 'द्वापर युग' में जी रहे हैं.
'कलियुग' का निरूपण करते हुए गोस्वामीजी आगे  लिखते हैं:-

                      तामस बहुत रजोगुण थोरा ,   कलि प्रभाव विरोध चहुँ ओरा

तमोगुण अर्थात आलस्य, अज्ञान, प्रमाद,  हिंसा आदि हृदय में  बहुत बढ़ जाये ,रजोगुण
अर्थात क्रियाशीलता कम हो जाये, और ज्ञान व विवेक का तो मानो लोप ही हो जाये,
हृदय में चहुँ ओर विरोधी वृत्तियों का ही वास हो, सब तरफ अप्रसन्नता और विरोध हो,
तो कह सकते हैं हम उस समय 'घोर 'कलियुग' में ही जी रहे है.

यदि हम 'कलियुग' में जी रहें हो तो क्या यह संभव है कि हम अपनी मन:स्थिति को "त्रेता
युग' की बना लें. गोस्वामीजी इसका उत्तर इस प्रकार से देते हैं:-

                     बुध जुग धर्म जानी मन माहीं , तजि अधर्म रति धर्म कराहीं 

बुद्धिमान लोग अपने मन का अवलोकन कर यह जान लेते हैं कि उनका मन कब  किस
स्थिति में हैं .यानि मन 'कलियुग' में है या द्वापर में . वे मन कि स्थिति में सुधार लाने
के लिए तब अधर्म को तज  कर धर्म करने में रूचि लेने लगते हैं. धर्म करने का तात्पर्य यहाँ
उन बातों के पालन करने से है जिससे मन में सतोगुण का उदय होकर ज्ञान और विवेक का
संचार हो और तमोगुण व रजोगुण घटकर  'सत्-चित-आनंद ' भाव को ह्रदय में स्थाई रूप से
धारण किया जा सके. 

विभिन्न साधनों जैसे नामजप आदि  में सत्संग भी इसके लिए अति उत्तम साधन है.
सत्संग के सम्बन्ध में  कुछ विचार मेरी पोस्ट 'बिनु सत्संग बिबेक न होई'  में भी  किया
गया है. मेरा  सुधिजनों से निवेदन है कि सत्संग पर चिंतन के  लिए वे मेरी कथित पोस्ट
का अवलोकन कर सकते हैं.

यहाँ पर यह बताना भी मै उचित समझता हूँ कि तीनो गुणों अर्थात सतोगुण, रजोगुण व
तमोगुण के बारें में विस्तृत विवेचना भगवद्गीता के १४ वें अध्याय 'गुणत्रयविभागयोग'
में की गई जिसका सुधिजन अध्ययन कर लाभ उठा सकतें हैं.

इस प्रकार से हम श्री रामचरित्र मानस में और श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित ज्ञान के आधार
पर  स्वयं अपने हृदय में ही 'त्रेतायुग' का उदय कर रामजन्म का मार्ग प्रशस्त कर सकतें हैं.

इससे अगली पोस्ट में हम 'अवधपुरी' / 'अयोध्यापुरी'  व 'उपवास' आदि पर विचार करने
का प्रयास करेंगे.

मेरी चारों 'युगों' पर  जी टीवी के मंथन कार्यकर्म में की गई  चर्चा का
कुछ अंश ' http://www.zeenews.com/video/showvideo11180.html '  पर उपलब्ध है.
मेरा  शुरू का परिचय  ' http://www.zeenews.com/video/showvideo11181.html '  पर
कराया गया है.


         


Wednesday, April 13, 2011

रामजन्म - आध्यात्मिक चिंतन -१

रामजन्म के पावन पर्व रामनवमी  की समस्त ब्लोगर जन को हार्दिक शुभकामनाएं.
इस पोस्ट में मै आप सभी सुधिजनों के साथ रामजन्म  के विषय  में आध्यात्मिक चिंतन
करना चाहता हूँ ,जिसपर मैंने अपने कुछ विचार " जी न्यूज "  चैनल पर रामनवमी के 
दिन  (दि. १२.०४ .२०११)  को "मंथन" कार्यकर्म (सुबह ६ से ७ बजे) में  प्रस्तुत किये थे.

इस कार्यकर्म के लिए  मै न तो कोई विशेष तैय्यारी कर पाया था और न ही मुझे ऐसे किसी
कार्यकर्म में सम्मिलित होने का  कोई किसी प्रकार का अनुभव था.जो भी विचार मैं अपने
इस कार्यकर्म में रख पाया ,हो सकता है उनमें  त्रुटियाँ रह गई हों.  इसीलिए  इस पोस्ट का
सर्जन कर रहा हूँ  ताकि उन विचारों को यहाँ  सम्मिलित करते हुए आप सभी सुधिजनों  के समक्ष
भी रामजन्म पर  आध्यात्मिक चिंतन प्रस्तुत कर सकूँ.आशा है आप सभी   सुधिजन इस चिंतन
में सम्मलित हो अपने अपने बहुमूल्य विचारों को प्रस्तुत कर चर्चा को सार्थकता प्रदान करेंगें.

विषय को आगे बढ़ाने से पूर्व मै अपना हार्दिक  आभार व धन्यवाद  "जी न्यूज" चैनल   को,
प्रिय भाई खुशदीप जी, आदरणीय सर्जना शर्माजी, कार्यकर्म के संचालक श्री विनोद कुमार शर्माजी
और एंकर ममता जी व 'मंथन ' कार्यकर्म  की समस्त  टीम  व स्टाफ   को प्रेषित करना चाहता हूँ,
जिनके प्रोत्साहन व सहयोग की बिना मै रामजन्म पर अपना चिंतन 'मंथन' कार्यकर्म में  प्रस्तुत
नहीं कर सकता था.
मै सर्जना शर्मा जी के अच्छे स्वास्थ्य के लिए दुआ करता हूँ और भगवान से प्रार्थना करता हूँ
कि वे  अतिशीघ्र स्वास्थ्य लाभ कर अपने 'रसबतिया' ब्लॉग के माध्यम से हम सब में भी सैदेव
रस और मंगल का संचार करती रहें.

राम को हम तीन स्तरों पर जान सकते हैं. आधिभौतिक ,आधिदैविक  और आध्यात्मिक .
आधिभौतिक के द्वारा हम राम को  भौतिक जगत में इतिहास ,भूगोल आदि के माध्यम से जानने
का प्रयास करते हैं, आधिदैविक में हम उनके  दैवीय पक्ष को पुराणों आदि के माध्यम से जान पाते हैं.
आध्यात्मिक में हम उनको तत्व चिंतन के द्वारा जानने का प्रयत्न करते हैं.इस पोस्ट में मेरा ध्येय
राम को आध्यात्मिक चिंतन के द्वारा  जानने और समझने  का  है.

राम वह है जो कण  कण में रमता हैं .वह परमात्मा है वह ही परमधाम है, जिसको पाकर हमें
पूर्ण शांति और विश्राम  आये.वह निराकार भी है और साकार भी , निर्गुण भी है और सगुण भी.
भगवद्गीता के १२ वें अध्याय 'भक्ति योग' के अनुसार परमात्मा की भक्ति उनके निर्गुण निराकार
व सगुण  साकार दोनों ही रूपों  को ध्यान में रख कर  की जा सकती है.आवश्यकता  है तो मन और बुद्धि
को परमात्मा में लगाने की .गीता (अ.१२ श.८)  में कहा गया है
                                   मय्येव मन आधत्स्व  मयि बुद्धिं  निवेशय
अर्थात तू मुझ में ही मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि का निवेश कर ,इसके उपरांत तू मुझ में ही
निवास करेगा,इसमें कुछ भी संशय नहीं है .

अनेक  उदहारण  से  हम साकार  को समझ सकते हैं.  जैसे पानी भाप  रूप  में निराकार होता है
परन्तु यदि उसको ठंडा करके किसी बर्तन में जमा लिया जाये तो वही  बर्फ रूप में  साकार हो जाता है
और वही रूप  ले लेता है जो बर्तन का होता है. इसी प्रकार निराकार परमात्मा  भक्तों के हृदय रुपी
बर्तन में श्रद्धा और भक्ति से घनीभूत हो साकार रूप से भी व्यक्त होजाता  है.
तुलसीदासजी  ने रामचरित्र मानस में राम के निर्गुण निराकार और सगुण साकार दोनों ही रूपों की
अति सुन्दर विवेचना की है. निर्गुण निराकार रूप का वर्णन करते हुए तुलसी लिखते हैं
                             एक अनीह अरूप अनामा , अज सचिदानंद  पर धामा 
यानि परमात्मा एक है, उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं है , उसका कोई रूप नहीं है, उसका कोई नाम नहीं है 
उसका कोई जन्म नहीं है, वह सत्-चित-आनन्द  है  और वह ही परमधाम है.
दूसरी ओर तुलसी राम की बाल छवि  को ह्रदय में आकार देते हुए आनन्द से  निहारते हुए  कहतें हैं

                         " वर दन्त की पंगति  कुंद कली,अधराधर पल्लव खोलन की 
                           चपला चमके घन बीच  जगे, ज्यूँ मोतिन माल अमोलन की 
                           घुन्घरारी लटें  लटकें मुख  ऊपर    ,कुंडल लोल कपोलन की
                           न्योछावरी प्राण करें तुलसी, बलि जाऊं लला इन बोलन  की " 

तथ्य यह है कि  हम सब आनन्द चाहते हैं और आनन्द की खोज में ही जीवन में भटक रहे हैं.
सच्चे आनन्द के स्वरुप को न जानने और न पहचानने की वजह से ही यह भटकन है.
यदि हमें ऐसा आनन्द मिले जो क्षणिक हो,अस्थाई हो ,समय से बाधित हो ,आज हो कल न हो ,
तो उससे हमे पूर्ण संतुष्टि और आराम नहीं मिल सकता. परन्तु  यदि आनन्द 'सत् ' हो ,चिर
स्थाई हो ,काल बाधित न हो, हमेशा बना रहे,ज्ञान और प्रकाश स्वरुप हो अर्थात 'चेतन' हो तो
ऐसा ही आनन्द 'सत्-चित-आनन्द' होता है जिसकी  हम खोज रहे हैं , जिसे शास्त्रों में परमात्मा कहा
गया है.ऐसे आनन्द को प्राप्त करना ही  हमारा परम लक्ष्य है,वही आखरी मंजिल है
इसीलिए वह ही 'परम धाम' है.  आनन्द के सम्बन्ध में कोई पूर्वाग्रह करना कि वह
निर्गुण निराकार ही  हो, या सगुण साकार न हो उचित नहीं जान पड़ता.

कहते हैं राम के पिता का नाम दशरथ है.तुलसी लिखते हैं
                            'मंगल भवन अमंगलहारी ,द्रवउ सो दशरथ अजिर बिहारी '
दसरथ के आँगन में बिहार करनेवाले मंगल के भवन और अमंगल का हरण करने वाले श्रीराम
मेरे पर द्रवित हों,अर्थात पसीजें मेरे पर कृपा करें.

दशरथ का तात्पर्य   सतोगुण संपन्न ऐसा मन है जो पांच ज्ञानेन्द्रियों और पांच कर्मेन्द्रियों के दश
रथों  पर सवार होकर जीवन में नौ श्रेष्ठ  मनोरथों को छोड़ ,दशम सर्वश्रेष्ठ  मनोरथ 'सत्-चित आनन्द '
को ही ध्येय  बना उसे  मन के आँगन में ही प्राप्त भी कर लेता है.इसलिये ऐसा मन दशरथ है और
सत्-चित -आनन्द रुपी  राम का जनक है.

यह भी कहते हैं कि राम की माता का नाम कौशल्या है. तुलसी लिखते हैं
                           "बंदउ कौशल्या दिसि प्राची ,कीरती जासु सकल जग माची "
मै कौशल्या जी की वंदना करता हूँ जो  कि 'पूर्व दिशा ' हैं, जिनकी ख्याति समस्त जगत में फैली
हुई   है. पूर्व दिशा में ही सूर्य का उदय होता है.यहाँ  'सत्-चित आनन्द ' का भाव ही सूर्य है.
कौशल्या वह बुद्धि है जो विचार करने में  अति कुशल है, सूक्ष्म है,एकाग्र  है, और सद्-चिंतन
के कौशल से " सत्-चित-आनन्द " भाव यानि राम जी का प्रसव करती है. इसलिये ऐसी बुद्धि
कौशल्या है और रामजी की माता है.

अब एक उदहारण  द्वारा इसको समझने का पुनः प्रयास करतें हैं. यदि  एक सुन्दर महल बना है
तो वह सगुण साकार रूप में नजर आता है. परन्तु जब वह महल  नहीं बना  था,तब वह  निर्गुण
निराकार के रूप में उसके रचयिता  के मानस में विद्यमान  था . पहले उसको  बनाने का भाव
रचियता के मन में प्रकट हुआ ,वही पुष्ट होकर जब मन में स्थापित हो गया और रचियता की
बुद्धि ने उसपर गहन मनन किया तो  प्रथम उस महल का नक्शा प्रकट हुआ और फिर जब उसका
नक़्शे  अनुसार ही निर्माण किया गया तो वह महल सगुण  साकार  रूप में प्रकट हो गया.सगुण
साकार रूप में वह महल वही वही सुविधा व आराम देने लगा जिन जिन को उसके रचयिता ने
अपने मन और बुद्धि  में धारण किया था. यदि उस महल में कमियां होंगी तो उन सब का कारण
रचियता के मन और बुद्धि ही हैं.

यदि मन हमारा दशरथ हो, बुद्धि हमारी कौशल्या  तो ही वे राम यानि सत्-चित-आनन्द  को जन्म
दे सकतें हैं और ऐसे ही मन और बुद्धि वन्दनीय है,  तुलसी के शब्दों में हम फिर  कह सकतें हैं

                         " भये प्रकट कृपाला ,दींन दयाला  कौसल्या हितकारी 
                            हर्षित महतारी ,मुनि मन हारी,अदभुत रूप विचारी 


रामजन्म की सभी को एक बार फिर शत शत बधाइयाँ .

अगली पोस्ट में हम अवधपुरी, त्रेतायुग, उपवास आदि का  तत्व चिंतन करने का प्रयास करेंगें,
जिनका चिंतन उपरोक्त जी न्यूज चैनल के' मंथन ' कार्यकर्म  में भी किया गया था.रामनवमी
पर प्रसारित  मंथन प्रोग्राम को 'www.zeenews.com'  और संभवतः 'www.youtube.com' पर भी
देखा जा सकता है.

बैसाखी के पावन पर्व की सभी सुधिजनों को हार्दिक शुभकामनाएँ !

Monday, April 4, 2011

वंदे वाणी विनायकौ

           वर्णानां अर्थसंघानां रसानां छंद सामपि,
           मंगलानां च कर्त्तारौ वंदे वाणीविनायकौ

अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छंदों और मंगलों के करने वाले वाणी विनायक जी की मै
वंदना करता हूँ. यह प्रार्थना तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के बालकाण्ड में सबसे
पहले की है.

वाणी का प्रयोग हम सर्वत्र करते हैं, फिर चाहे वह लेख हो या कविता. ब्लॉग जगत में
भी हम अपनी वाणी को अपनी पोस्ट के माध्यम से व टिपण्णी और प्रतिटिपण्णी के 
माध्यम से व्यक्त करने की कोशिश करते हैं. वाणी विनायक ऐसे शुभ चिंतन और विवेक
का प्रतीक हैं  जिसके आवाहन  से वाणी में निम्न तत्व दृष्टिगोचर होने लगते हैं, जिनमें से 
यदि एक भी रह जाये तो   वाणी की सफलता अधूरी ही जान पड़ती है. 

वर्णानां        -    वाणी वर्णों के बिना व्यक्त नहीं हो सकती. वर्णों का ज्ञान और उनका 
                      प्रयोग करना आना चाहिए. यदि हिन्दी में वाणी व्यक्त कर रहें हैं तो 'क'
                      'ख' ,'ग'  तो आना ही चाहिये. 

अर्थसंघानां  -     जिन वर्णों का हम प्रयोग कर कर रहें उनसे कुछ अर्थ या उनका मतलब भी
                      निकलना चाहिये. अर्थ एक ही नहीं अनेक भी हो सकते है. इसीलिए कहा गया
                       'अर्थ संघानां'

रसानां          -   जो अर्थ वर्णों  के प्रयोग से निकले, उसके द्वारा रस का संचार भी होना चाहिये .
                      बिना रस के अर्थ रुखा रुखा सा ही लगता है. 

छंद सामपि -    रसमय अर्थ के अतिरिक्त वाणी सुन्दर गायन भी प्रस्तुत करे तो कर्णप्रिय,
                       मधुर  व और भी उत्तम हो जाती है.

मंगलानां       -   जब वाणी मंगल करने वाली भी हो तो वह सर्वोत्तम हो जाती है.

वाणी को उपरोक्त तत्वों से ओतप्रोत करने के लिए ही वाणी के तप की आवश्यकता है.
तप का अर्थ है सीखना, सदैव प्रयासरत  रहना.  भगवदगीता में वाणी के तप के बारे में
कहा गया है (अ.१७   श्.१५)
              
                            अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्
                            स्वाध्याय अभ्यसनम चैव वाड़्मयम् तप उच्यते

अर्थात जो वाक्य  उद्वेग न करने वाले हों , किसीको पीड़ा न पहुचानें वाले हों, सत्य हों,
प्रिय हों और हित अर्थात मंगल करनेवाले भी हों ,जो स्वाध्याय, सद् ग्रंथों के पढ़ने, मनन
करने के अभ्यास  का परिणाम हों, वे वाणी का तप कहलाते है.

वाणी केवल सत्य हो, पर कड़वी हो और हित  न करती हो  तो ऐसी वाणी भी अनुकरणीय
नहीं हो सकती. जैसे एक मरणासन्न व्यक्ति को डाक्टर उसे दिलासा दिलाता है कि वह
ठीक हो जायेगा ,यध्यपि असत्य  है पर  गलत नहीं माना जाता . क्यूंकि यह दिलासा हित
करनेवाला है और मरीज में  नई जान भी फूँक सकता है.

जो भले व्यक्ति हैं वे हमेशा भलाई ही ग्रहण करने में लगे रहतें हैं. भले ही किसी पोस्ट में
वाणी के उपरोक्त सभी तत्व मौजूद न भी हों ,परन्तु यदि  हित अथवा मंगल का तत्व
उसमें है तो भी वे उसे ग्रहण  करते हैं  अर्थात 'सार सार को गहि लई, थोथा दई उडाय'. 
परन्तु नीच का स्वाभाव इसके उलट होता है.  वे किसी न किसी प्रकार से निंदा करना ही
पसंद करते हैं. कहा  गया है :-

                              भलो भलाइहि पई लहइ, लहइ निचाइहि नीचु
                              सुधा सराहिअ अमरताँ ,गरल सराहिअ   मीचु

भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण करता है. अमृत की सराहना
अमर करने में होती है और विष की मारने में.

मेरा सभी सुधिजनों से विनम्र निवेदन है की मेरी इस पोस्ट और पिछली पोस्टों  में जो भी
उचित और मंगलकारी लगे केवल उसी को ग्रहण किया जावे. मै कोई उपदेशक नहीं , न ही
कोई लेखक या कोई ज्ञानी ध्यानी . बस एक साधारणसा ब्लोगर मात्र  हूँ, आप सबके बीच
केवल  विचारों के आदान प्रदान करने हेतू ही चला आया हूँ'  कुछ 'फोकटिया सत्संग' के माध्यम से.

आशा है आप मुझे सहन और स्वीकार करेंगे.  मेरी यह पोस्ट पढकर यदि आपको ऐसा लगे
कि आपका कीमती समय व्यर्थ हुआ है अथवा मेरे से कोई  त्रुटि रह गयी हो या गलत बात
लिखी गयी हो तो आप मुझे क्षमा करेंगें.  इस पोस्ट पर जो भी टिपण्णी आप करें मन से और
सच्चाई से  करें, ताकि भविष्य के लिए मेरा उचित मार्गदर्शन हो सके और मैं अपने में
वांछित सुधार ला सकूँ.

                          सर्वे भवन्तुः सुखिनः सर्वे संतु निरामयः

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