वर्णानां अर्थसंघानां रसानां छंद सामपि,
मंगलानां च कर्त्तारौ वंदे वाणीविनायकौ
अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छंदों और मंगलों के करने वाले वाणी विनायक जी की मै
वंदना करता हूँ. यह प्रार्थना तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के बालकाण्ड में सबसे
पहले की है.
वाणी का प्रयोग हम सर्वत्र करते हैं, फिर चाहे वह लेख हो या कविता. ब्लॉग जगत में
भी हम अपनी वाणी को अपनी पोस्ट के माध्यम से व टिपण्णी और प्रतिटिपण्णी के
माध्यम से व्यक्त करने की कोशिश करते हैं. वाणी विनायक ऐसे शुभ चिंतन और विवेक
का प्रतीक हैं जिसके आवाहन से वाणी में निम्न तत्व दृष्टिगोचर होने लगते हैं, जिनमें से
यदि एक भी रह जाये तो वाणी की सफलता अधूरी ही जान पड़ती है.
वर्णानां - वाणी वर्णों के बिना व्यक्त नहीं हो सकती. वर्णों का ज्ञान और उनका
प्रयोग करना आना चाहिए. यदि हिन्दी में वाणी व्यक्त कर रहें हैं तो 'क'
'ख' ,'ग' तो आना ही चाहिये.
अर्थसंघानां - जिन वर्णों का हम प्रयोग कर कर रहें उनसे कुछ अर्थ या उनका मतलब भी
निकलना चाहिये. अर्थ एक ही नहीं अनेक भी हो सकते है. इसीलिए कहा गया
'अर्थ संघानां'
'अर्थ संघानां'
रसानां - जो अर्थ वर्णों के प्रयोग से निकले, उसके द्वारा रस का संचार भी होना चाहिये .
बिना रस के अर्थ रुखा रुखा सा ही लगता है.
छंद सामपि - रसमय अर्थ के अतिरिक्त वाणी सुन्दर गायन भी प्रस्तुत करे तो कर्णप्रिय,
मधुर व और भी उत्तम हो जाती है.
मंगलानां - जब वाणी मंगल करने वाली भी हो तो वह सर्वोत्तम हो जाती है.
वाणी को उपरोक्त तत्वों से ओतप्रोत करने के लिए ही वाणी के तप की आवश्यकता है.
तप का अर्थ है सीखना, सदैव प्रयासरत रहना. भगवदगीता में वाणी के तप के बारे में
कहा गया है (अ.१७ श्.१५)
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्
स्वाध्याय अभ्यसनम चैव वाड़्मयम् तप उच्यते
अर्थात जो वाक्य उद्वेग न करने वाले हों , किसीको पीड़ा न पहुचानें वाले हों, सत्य हों,
प्रिय हों और हित अर्थात मंगल करनेवाले भी हों ,जो स्वाध्याय, सद् ग्रंथों के पढ़ने, मनन
करने के अभ्यास का परिणाम हों, वे वाणी का तप कहलाते है.
वाणी केवल सत्य हो, पर कड़वी हो और हित न करती हो तो ऐसी वाणी भी अनुकरणीय
नहीं हो सकती. जैसे एक मरणासन्न व्यक्ति को डाक्टर उसे दिलासा दिलाता है कि वह
ठीक हो जायेगा ,यध्यपि असत्य है पर गलत नहीं माना जाता . क्यूंकि यह दिलासा हित
करनेवाला है और मरीज में नई जान भी फूँक सकता है.
जो भले व्यक्ति हैं वे हमेशा भलाई ही ग्रहण करने में लगे रहतें हैं. भले ही किसी पोस्ट में
वाणी के उपरोक्त सभी तत्व मौजूद न भी हों ,परन्तु यदि हित अथवा मंगल का तत्व
उसमें है तो भी वे उसे ग्रहण करते हैं अर्थात 'सार सार को गहि लई, थोथा दई उडाय'.
परन्तु नीच का स्वाभाव इसके उलट होता है. वे किसी न किसी प्रकार से निंदा करना ही
पसंद करते हैं. कहा गया है :-
भलो भलाइहि पई लहइ, लहइ निचाइहि नीचु
सुधा सराहिअ अमरताँ ,गरल सराहिअ मीचु
भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण करता है. अमृत की सराहना
अमर करने में होती है और विष की मारने में.
मेरा सभी सुधिजनों से विनम्र निवेदन है की मेरी इस पोस्ट और पिछली पोस्टों में जो भी
उचित और मंगलकारी लगे केवल उसी को ग्रहण किया जावे. मै कोई उपदेशक नहीं , न ही
कोई लेखक या कोई ज्ञानी ध्यानी . बस एक साधारणसा ब्लोगर मात्र हूँ, आप सबके बीच
केवल विचारों के आदान प्रदान करने हेतू ही चला आया हूँ' कुछ 'फोकटिया सत्संग' के माध्यम से.
आशा है आप मुझे सहन और स्वीकार करेंगे. मेरी यह पोस्ट पढकर यदि आपको ऐसा लगे
कि आपका कीमती समय व्यर्थ हुआ है अथवा मेरे से कोई त्रुटि रह गयी हो या गलत बात
लिखी गयी हो तो आप मुझे क्षमा करेंगें. इस पोस्ट पर जो भी टिपण्णी आप करें मन से और
सच्चाई से करें, ताकि भविष्य के लिए मेरा उचित मार्गदर्शन हो सके और मैं अपने में
वांछित सुधार ला सकूँ.
सर्वे भवन्तुः सुखिनः सर्वे संतु निरामयः
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बहुत सुंदर सार्थक विवेचन किया...... इस वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए आभार ...
ReplyDeleteनवसंवत्सर की मंगलकामनाएं
आप ने सर्व ग्राहि मन्त्वव को लिपित् किया है
Deleteबहुत ही सुन्दर पोस्ट है……………हर शब्द ज्ञान से भरपूर्…………बहुत सुन्दर व्याख्या की है वाणी के तप की……………यही है वाणी का तप कि ऐसा बोला जाये जिससे किसी का अहित ना हो और मौन से बढकर तो वाणी का तप कोई नही……………जब जरूरत हो तभी कहा जाये और सारगर्भित कहा जाये तब ही कहना सार्थक होगा………………प्रशंसनीय पोस्ट्।
ReplyDeleteनवसंवत्सर की हार्दिक शुभकामनायें।
राकेश जी,
ReplyDeleteआप जैसे हैं, वैसे ही बने रहिए, ऐसे ही लिखते रहिए...
यही कल्याणकारी है, इससे हमारे जैसों के दिमाग की खिड़कियां खुल रही हैं, बदलाव महसूस करने लगे हैं...
जहां तक निंदा की बात है तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी इससे कहां बच सके थे....
नवरात्र और नवसंवत्सर की बहुत-बहुत बधाई...
जय हिंद...
.
ReplyDeleteभला, भलाई ही ग्रहण करता है और नीच , नीचता। बिलकुल सत्य कहा आपने । हर जगह कुछ न कुछ ग्राह्य अवश्य ही होता है । तरक्की पसंद लोग ग्राह्य को ग्रहण कर आगे बढ़ जाते हैं , और नासमझ जन , अनावश्यक प्रलापों में उलझे रह जाते हैं ।
एक बेहतरीन और उम्दा आलेख के लिए बधाई एवं आभार।
.
भलो भलाइहि पई लहइ, लहइ निचाइहि नीचु
ReplyDeleteसुधा सराहिअ अमरताँ ,गरल सराहिअ मीचु
भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण करता है. अमृत की सराहना अमर करने में होती है और विष की मारने में.
बिलकुल सत्य... जो भी उचित और मंगलकारी लगे केवल उसी को ग्रहण किया जावे....
यूँ ही अपने उत्कृष्ट लेखन से हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे इसी आशा के साथ नवसंवत्सर की हार्दिक - हार्दिक शुभकामनाएँ...
वाह लाजवाब!
Deleteहार्दिक आभार आपका आदरणीया!
मंगलकारी ग्रहण किया जाये और सब मंगलकारी हो।
ReplyDeleteभला इंसान बुरे लोगों से भी अच्छाई ही ग्रहण करता है ...
ReplyDeleteबिलकुल सत्य ..
नव संवत्सर की हार्दिक शुभकामनायें !
गुरूजी प्रणाम ....कहते है गुरु के मुख से निकली हुयी वाणी कभी अशुद्ध और अपवित्र नहीं होती ! यह तो ग्रहण करने वाले के ऊपर निर्भर है की वह कैसे इसे लेता है ! स्वर्ण....... स्वर्ण ही होता है ! अकेला रहे तो भी कीमती या मुर्ख -धातु के साथ जा मिले , तब भी कीमती ! प्रेरणा दाई और ग्रहणीय ! एक बार फिर से प्रणाम !
ReplyDeleteबहुत ही सकारात्मक पोस्ट.कटु सत्य से बचना चाहिए. बहुत सही कहा है कि भला आदमी भलाई ढूँढता है और बुरा बुराई. नवसंवत्सर की हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeleteआज पहलीबार इस ब्लॉग पर आया..अफ़सोस हुआ की आध्यात्म के इस सागर में पहले क्यों नहीं गोते लगा पाया मैं..
ReplyDeleteमें आप की रचनाओं की प्रसंशा क्या करूँ??हा उसनसे सिख ले कर अगर कुछ हिस्सा भी जीवन में उतर सकूँ तो जीवन सफल हो जाए..
bahut hi sahi kaha aapne ,uttam post .
ReplyDeleteबेहतरीन विवेचन..बधाई.
ReplyDeleteनवसंवत्सर की शुभकामनाएं
वाह राकेश भाई ,
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर और सार्थक पोस्ट । आज हिंदी अंतर्जाल में ऐसे लेखन की बहुत जरूरत है , अपने फ़ेसबुक पर इसे साझा करने जा रहा हूं , ताकि मेरे मित्र भी इस पोस्ट को पढ सकें । बहुत बहुत शुक्रिया और शुभकामनाएं । आप यूं ही लिखते रहिए ..
यह लेख, ब्लॉग जगत में से, हाल में पढ़े बेहतरीन लेखों में से एक है संग्रहणीय और दुर्लभ ! हार्दिक आभार आपका !
ReplyDeleteआदरणीय राकेश कुमार जी ,
ReplyDeleteआज तो आपके ब्लॉग पर अमृतपान करने को मिला | इतना प्रेरक ,जानकारीपरक . काव्य को सुपरिभाषित करने वाला, 'श्री गणेश वंदना श्लोक ' माध्यम से सुन्दर कथन प्रशंसनीय एवं ग्राह्य है |
आभार स्वीकारें ...
प्रिय राकेश जी, इतना सुन्दर लेख एवं इसमें नियोजित श्लोकों व दोहों की इतनी सुन्दर, सार्थक व भावपूर्ण व्याख्या व सुन्दर प्रस्तुति हेतु हार्दिक अभिनन्दन व साधुवाद। मैं आपके ब्लाग पर आकर धन्य हुआ और निश्चय ही यहाँ से मुझे प्रचुर सुज्ञान प्राप्त होगा । ईश्वर से कामना है आप ऐसे सुन्दर व ज्ञानबर्धक लेख लिखते रहें।
ReplyDeleteगुरु जी नमस्ते!
ReplyDeleteकुछ वर्ड कप जितने की ख़ुशी में मस्ती मनाने तथा कुछ निजी कार्यों में व्यस्त रहने के कारण मै देर से आया. इसके लिए माफ़ी चाहता हूँ.
बहुत अच्छा ज्ञान दिया है आपने. दिल खुश कर दिया.
@जो भले व्यक्ति हैं वे हमेशा भलाई ही ग्रहण करने में लगे रहतें हैं. भले ही किसी पोस्ट में
वाणी के उपरोक्त सभी तत्व मौजूद न भी हों ,परन्तु यदि हित अथवा मंगल का तत्व
उसमें है तो भी वे उसे ग्रहण करते हैं अर्थात 'सार सार को गहि लई, थोथा दई उडाय'.
परन्तु नीच का स्वाभाव इसके उलट होता है. वे किसी न किसी प्रकार से निंदा करना ही
पसंद करते हैं.
मै आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ.
इस चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हमारा नव संवत्सर शुरू होता है इस नव संवत्सर पर आप सभी को हार्दिक शुभ कामनाएं..........
आदरणीय राकेशजी,
ReplyDeleteवाणी के तप के बारे में आपके विचार बहुत अच्छे लगे.
अनुभव के सत्संग और ज्ञान के सत्संग में बहुत अंतर है.
आपके द्वारा अनुभव के फोकटिया सत्संग से भी आनंद झरता है.
ज्ञान के सत्संग में सूक्षम अहंकार समाहित रहता है.
जिस से आत्मा आनंद का अनुभव नहीं कर पाती.
स्वामी रामसुखदासजी सत्संग सुनने की विद्या के बारे में लिखते हैं."श्रोता में कपट नहीं होना चाहिए अर्थात किसी बात का आग्रह,कोई पकड़ नहीं होनी चाहिए.अपनी बात का आग्रह होगा तो वह दूसरे की बात को सुन नहीं सकेगा और सुनेगा तो भी पकड़ नहीं सकेगा.कारण कि अपना आग्रह रहने से श्रोता का हृदय वक्ता की बात को फेंकता है,ग्रहण नहीं करता.इससे वक्ता की अच्छी बात भी हृदय में नहीं बैठती.
अतः अपने मत,सिद्धांत,सम्प्रदाय का आग्रह तत्वप्राप्ति में बहुत बाधक है."
मतवादी जाने नहीं,ततवादी की बात,
सूरज उगा उल्लुवा,गिने अंधेरी रात,
हरिया तत विचारिये,क्या मत सेती काम,
तत बसाया अमरपुर ,मत का जमपुर धाम.
आपकी प्रेरणा दायक पोस्टों के लिए आभार.
आशा है आप इसी तरह आनंद वर्षा करते रहेंगे.
@ > डॉ.मोनिका शर्मा जी
ReplyDeleteआपको विवेचन सुन्दर और सार्थक लगा,इसके लिए बहुत बहुत आभार
@ > वंदना जी,
वाणी के तप की व्याख्या भगवद गीता के श्लोक अनुसार ही करने की कोशिश की है.मेरा कुछ नहीं है इसमें.आप समझ सकती हैं इससे कि भगवद गीता कितना व्यवहारिक ग्रन्थ है.काश! हम सब भगवद्गीता को केवल शपथ के लिए ,या पूजा में रख कर ही इतिश्री न कर लें वरन श्लोक दर श्लोक पढ़ कर समझने का प्रयास करें.सीखने की इच्छा होगी तो भगवदगीता कभी निराश नहीं करेंगीं.
@ > भाई खुशदीप जी
जब आपकी दुआ और आशीर्वाद मेरे साथ है तो मुझे निंदा का डर कैसा. आपने जो मेरी बड़ाई की, उससे बहुत हर्ष हुआ लेकिन इस फ़िक्र के साथ कि मै आपकी आशा के अनुरूप खुद को सदैव अच्छा साबित करूँ.
@ > दिव्या जी
ReplyDeleteआपका यह कहना ठीक है कि 'तरक्की पसंद लोग ग्राह्य को ग्रहण कर आगे बढ़ जाते हैं , और नासमझ जन , अनावश्यक प्रलापों में उलझे रह जाते हैं ।'
लेख की प्रशंसा के लिए आपका आभारी हूँ.पर कुछ और भी टीका-टिपण्णी मिलती आपसे तो और भी प्रसन्नता मिलती.
@ > Manpreet Kaur ji,
आपको विवेचन पसंद आया,इसके लिए आभार आपका.किन्तु यदि आप भी अपनी टिपण्णी में कुछ और विवेचना करें मेरी पोस्ट की, तो मुझे लेखन पर और अच्छा फीड बैक मिल पायेगा.
@ > संध्या शर्मा जी,
आपने लेखन को उत्कृष्ट बता कर मार्गदर्शन करने को कहा यह आपका बड़प्पन है.मुझे भी आपके समय समय पर अमूल्य मार्गदर्शन की आवश्यकता हैऔर भविष्य में भी पड़ती रहेगी.कृपया,अनुग्रह कीजियेगा.
@ > प्रवीन पाण्डेय जी,
ReplyDeleteआपके दो सटीक शब्द भी मेरे लिए मंगलकारी हैं.
@ > वाणी गीत जी,
आपने सत्य कहा है कि 'भला इंसान बुरे लोगों से भी अच्छाई ही ग्रहण करता है ...'. यदि आप मेरे लेखन में अच्छे के अतिरिक्त कुछ असंगत या कमी भी बताएं तो मुझे भविष्य में सुधरने का मौका मिलेगा.
@ G.N. SHAW ji,
आपको भी सादर प्रणाम. आप भी मेरे गुरु हैं तो फिर जो आप कह रहें हैं वह तो मेरे सिर माथे है.यदि आप मेरे 'फोकटिया सत्संग'के बारे में भी कुछ लिखते तो गुरु वचनों का कुछ और लाभ उठा पाता मै .
adhbhut..............
ReplyDelete@ > Kailash C Sharma Ji,
ReplyDeleteजी हां ,ऐसे कटु सत्य से बचना चाहिये जो मंगल न कर किसी को व्यर्थ में ठेस पहुचाए.टिपण्णी करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार.
@ > आशुतोष जी,
आपने पहली बार मेरे ब्लॉग पर आकर ही दिल जीत लिया मेरा.हम सब सीखने का प्रयास करें तो अवश्य सफल होंगे,इसमें कुछ संदेह नहीं.
@ > ज्योति सिंह जी,
आपसे अब छोटी टिपण्णी के बजाय बड़ी टिपण्णी चाहिये.कृपया निराश न कीजियेगा.
@ > भाई समीर जी (Udan Tastari)
ReplyDeleteआपके प्रेरणापूर्ण दो शब्दों ने सूखती हुई पौध को हरिया दिया है.बस आप आते रहिएगा मेरे ब्लॉग पर,इतना ही काफी है.
@ > भाई अजय जी,
आपके आने से मेरा दिल बल्लियों उछलने लगता है.मेरे में जान फूँक देतें हैं आप.अब और क्या कहूँ ?
@ > भाई सतीश सक्सेना जी,
आपकी मुक्त कंठ से की गयी प्रशंसा मेरे लिए संजीवनी से कम नहीं.
@ > भाई सुरेंद्र सिंह 'झंझट' जी,
ReplyDeleteआपने अमृतपान किया यह मेरा सौभाग्य है.आपकी प्रशंसा का हृदय से आभारी हूँ मै.
@ > भाई देवन्द्र जी,
आप मेरे ब्लॉग पर आये इसके लिए बहुत बहुत आभार आपका.
भाई प्रवीन पाण्डेय जी ने अपने ब्लॉग पर आपके बारे में बहुत कुछ लिखा था.आपसे भी मुझे सुज्ञान प्राप्त होता रहेगा ऐसी आशा करता हूँ.
@ > मदन शर्मा जी,
आप यूँ न टालिए मुझे.आपने भी शानदार पोस्ट लिखी थी.जब आप टिपण्णी कर रहे थे यहाँ,मै भी आपकी पोस्ट पर टिपण्णी कर रहा था.
अब तो मै आपको गुरु कहूँगा,शिष्य रूप में स्वीकार कीजिये मुझे.
@ > भाई विशाल जी,
ReplyDeleteअब पूछो न मेरा हाल जी
आपकी टिप्पणी ने मुझे कर दिया निहाल जी
मेरे सभी भ्रमों का निवारण आपने कर दिया तत्काल जी
मेरे 'फोकटिया सत्संग' को भी आपने दी है मजबूत ढाल जी
"तत बसाया अमरपुर ,मत का जमपुर धाम" बता आपने कर दिया
मालामाल जी.
अब क्या रह गया जो मै कहूँ आपकी विशालता के आगे . बस बधाई,बधाई, बधाई आपको इतनी सुन्दर टिपण्णी करने के लिए
सत् श्री अकाल जी.
बहुत सुन्दर पोस्ट! जैसे लाभार्थी लोग लक्ष्मी-गणेश को पूजते हैं, वैसे ही विद्वान गोस्वामी जी ने वाणी-विनायक की उपासना से श्रीगणेश किया है।
ReplyDeleteभला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण करता है.
ReplyDeletewell said
@ > राजीव थेपडा जी,
ReplyDeleteआपका मेरे ब्लॉग पर आने का बहुत बहुत आभार.
आपकी टिपण्णी के एक शब्द में भी है बहुतसा सार.
जब थोडा दिल और खोलेंगें आप
टिपण्णी में शब्दों की भी होगी बरसात.
@ > Smart Indian- स्मार्ट इंडियन जी
आपका रामपुरिया हमें याद है
आप देर से आये यह फरियाद है
पर आपकी सुन्दर टिपण्णी का अब चखा स्वाद है.
टिपण्णी-प्रति टिपण्णी से ही बनता 'वाद' है
'वाद' के लिए आप मेरी पोस्ट 'ऐसी वाणी बोलिए' का अवलोकन कीजियेगा.
@ > sm ji,
आपका नाम अति सूक्ष्म , सूक्ष्म है आपकी टिपण्णी
आपकी 'well said' की टिपण्णी अच्छी लगी
'well' का कुछ और विस्तार हो तो और भी अच्छा लगेगा .
जो आज्ञा!
ReplyDeleteजीवन में वाणी का बहुत महत्व है ..हम अपनी मन की संवेदनाओं और भावनाओं को वाणी के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं इसका हम कितना सार्थक प्रयोग करते हैं यह हम पर निर्भर करता है और यह भी सच है कि हम वही अभिव्यक्त करते हैं जो हमारी सोच का हिस्सा होता है इसलिए किसी व्यक्ति के बोलने से उसके विचार का निर्धारण किया जा सकता है ....इन शब्दों में कोई अतिश्योक्ति नहीं कि हमारा जीवन हमारी वाणी के द्वारा नियंत्रित और अभिव्यक्त होता है और इसके द्वारा ही हम किसी के भले कि कामना कर सकते हैं ...आपका यह कहना सही है कि "भला भलाई को ग्रहण करता है और नीच नीचता" को इसलिए हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम सदा अच्छाई को ग्रहण करने की कोशिश करें ...आपका आभार राकेश जी इस सार्थक पोस्ट के लिए
ReplyDeleteमेरी यह पोस्ट पढकर यदि आपको ऐसा लगे
ReplyDeleteकि आपका कीमती समय व्यर्थ हुआ है अथवा मेरे से कोई त्रुटि रह गयी हो या गलत बात
लिखी गयी हो तो आप मुझे क्षमा करेंगें....vinamrata ek had tak hi sahi hoti hai, aapne ek achhi post di hai. kshama kyun, jinki ruchi hogi padhenge , nahi hogi to nahi padhenge
@ > सारा सच जी ,
ReplyDeleteधन्यवाद,आपकी टिपण्णी के लिये. आपके ब्लॉग पर मैंने भी टिपण्णी कर दी है.
@ > स्मार्ट इंडियन जी,
आपने मेरी पोस्ट 'ऐसी वाणी बोलिए'पर जाकर मुझे अनुग्रहित किया.बहुत बहुत आभार आपका.
@ > केवल राम जी,
आपका इतनी देर से आना समझ नहीं आया मुझे. क्या कोई राज है इसमें ? लेकिन जो भी हो टिपण्णी से तो निहाल कर दिया आपने.
@ > रश्मि प्रभा जी,
आपने मेरे ब्लॉग पर आ सुन्दर टिपण्णी करके धन्य किया मुझे.
आप सरल हृदय हैं.अब क्या वजह बताऊँ आपको अपनी क्षमा मांगने के लिये ? खुशदीप जी और विशाल जी की टिप्पणियाँ शायद कुछ इंगित करें.
राकेश जी, क्षमा करे देर से आने के लिए --आपके ज्ञान के आगे मै तो तुच्छ प्राणी मात्र हु --आपकी वाणी मेरे एक किलो मीटर ऊपर से गुजर जाती है-- पर रस टपकता रहता है --मै तो उस रस से ही निहाल हो जाती हु --मुझे कापी-पेस्ट करना अच्छा नही लगता --जो मन में आया लिख दिया --आपकी संगती में यदि कुछ अच्छा सीख्पाऊ तो अपने आप को सोभाग्यशाली सम्झुगी .धन्यवाद !
ReplyDeleteमाननीय राकेश साहब,
ReplyDeleteकम से कम साढ़े चार किलो क्षमा चाहिये, एक किलो फ़ी दिन के हिसाब से, आशा है आप दे देंगे:))
समस्त प्राणी जगत एक तत्व से पांच तत्व का बना है। एक तत्वीय वनस्पति से क्रमश: उन्नति करते हुये मनुष्य श्रेणी तक आते आते पांच तत्व पूरे हो जाते हैं। वाणी के जिन पांच तत्वों का आपने जिक्र किया है, हम जैसे अधिकांश लोग पहले पायदान पर ही हैं। वर्ण जरूर हैं लेकिन अर्थ, रसादि नदारद हैं।
आपके आने से माहौल खुशगवार सा होने लगा है। ज्ञान मिल रहा है, वो भी रोचक विधि से। यही कामना है कि इस ज्ञानवर्षा के कुछ छींटे हमें सरोबार करते रहें, यूं ही।
आभारी हैं सर आपके।
जो वाक्य उद्वेग न करने वाले हों , किसीको पीड़ा न पहुचानें वाले हों, सत्य हों,प्रिय हों और हित अर्थात मंगल करनेवाले भी हों ,जो स्वाध्याय, सद् ग्रंथों के पढ़ने, मननकरने के अभ्यास का परिणाम हों, वे वाणी का तप कहलाते है.
ReplyDeleteबहुत गहन और सुन्दर व्याख्या...
सुंदर विवेचना....
सुन्दर वैचारिक प्रस्तुतिकरण के लिये बधाई ।
अर्थात जो वाक्य उद्वेग न करने वाले हों , किसीको पीड़ा न पहुचानें वाले हों, सत्य हों,
ReplyDeleteप्रिय हों और हित अर्थात मंगल करनेवाले भी हों ,जो स्वाध्याय, सद् ग्रंथों के पढ़ने, मनन
करने के अभ्यास का परिणाम हों, वे वाणी का तप कहलाते है.
बहुत कठिन है यह वाणी का तप ....इतनी अच्छी पोस्ट कैसे छूट गयी ...आभार आपका यहाँ बुलाने का ..
भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण करता है. अमृत की सराहना
अमर करने में होती है और विष की मारने में.
हरेक की अपनी विशेषता होती है ...भला इंसान बुराई में भी अच्छाई खोज लेता है ...विचारणीय पोस्ट
@ > दर्शन कौर धनोय जी,
ReplyDeleteआप मेरे ब्लॉग पर आना नहीं भूली ,इसका मुझे बहुत हर्ष है.
मेरी वाणी भी आपके नजदीक आ जाये,बस अब यही संघर्ष है
आप रस से पूर्ण हैं,इसीलिए रस लगा आपको
आपकी रसमय टिपण्णी ने,सराबोर कर दिया मनको.
@ > संजय @ मो सम कौन?
साड़े चार किलो की क्षमा,बाप रे बाप
अति सुन्दर टिपण्णी से ही,शर्मिंदा कर रहें हैं आप
टिपण्णी से ही रस का संचार कर दिया आपने
रस के साथ ही मंगल का भी आगार कर दिया आपने
बहुत बहुत शुक्रिया पंचतत्व का दर्शन कराती सार्थक टिपण्णी के लिये.
@ > Dr.(Miss) Sharad Singh ji,
आप मेरे ब्लॉग को जब जब भूल जाती हैं तो डर लगने लगता है मुझे,
कहीं कोई मुझसे भूल तो न हो गयी.
आपकी उत्साह बढाती टिपण्णी से दिल को चैन मिला.
@ > संगीता स्वरुप जी (गीत),
स्नेह की चादर से ढका आपने ,फिर एक झरोखा खोल कर रिश्ते को
सार्थकता प्रदान की,इसके लिये बहुत बहुत आभारी हूँ आपका.
वाणी का तप कठिन है यह माना,पर क्या असम्भव है ?
यदि नहीं ,तो कोशिश करेंगें हम सभी,
ऐसा आशीर्वाद दें आप हमें.
आपका लेख बहुत अच्छा है ..हमने तो सार सार ग्रहण कर लिया और थोथा कुछ मिला ही नहीं ..अतः आपकी आखिरी पंक्तियों से पूर्णतया असहमत हूँ कि आप मुझे सहन करेंगे .. यह एक ज्ञानवर्धक पोस्ट है और हम यहाँ नहीं आते हैं तो एक अच्छी पोस्ट को मिस करते हैं... आज कल मैं कार्यवश अपने शहर से बाहर गयी थी अतः ब्लॉग में आना बहुत कम हो गया था ...मेरी नजर से डेस्बोर्ड की कई पोस्ट अछूती रह गयी ... देरी के लिए माफ़ी..
ReplyDeleteआपकी पोस्ट में वाणी का जो वर्णन और विवेचना है लगभग पूर्ण है और इस श्लोक भावों को ले कर चलती है...
सत्यम ब्रूयात , प्रियम ब्रूयात , मा ब्रूयात सत्यमप्रियम , प्रियम च मामृतम ब्रूयात , एष: धर्म: सनातन: ....
आपका आभार ..
आपका यह कहना सही है कि "भला भलाई को ग्रहण करता है और नीच नीचता" को इसलिए हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम सदा अच्छाई को ग्रहण करने की कोशिश करें|ईश्वर से कामना है आप ऐसे सुन्दर व ज्ञानबर्धक लेख लिखते रहें। धन्यवाद|
ReplyDeleteराजेश जी आपके कई बार के आग्रह के बाद ही आपके ब्लॉग पर आया... अफ़सोस हो रहा है कि इतनी ज्ञानवर्धक बातों से इतनी देर तक दूर रहा.. आपके कई पोस्टों को एक साथ पढ़ गया... लेकिन वर्तमान पोस्ट में साहित्य से उद्देश्य को आपने अपने पौराणिक सन्दर्भों को देकर व्याख्यायित किया है. सचमुच जिस सहिया या रचना से सार्थक विचार उपजे.. किसी के जीवन में सार्थक परिवर्तन हो... किसी का अहित न हो.. जनहित का मार्ग प्रशस्त हो वही वाणी का तप है.. यही साहित्य का वृहत उद्देश्य भी है... आपके सार्थक और सकारात्मक लेखन के आपको बहुत बहुत शुभकामना... विलम्ब से पधारने के लिए क्षमा सहित.. अरुण
ReplyDelete@ > डॉ,नूतन जी,
ReplyDeleteआप नहीं आतीं तो यह पोस्ट अधूरी रहती,
आपकी टिपण्णी में ज्ञान गंगा सदा ही बहती,
सहन करने की बात इसलिये ही लिखी
कि आप यहाँ आएँगी,मुझे समझाएंगी.
मेरा हौंसला बढ़ाकर ,सन्मार्ग दिखलायेंगी.
@ > Patalai-The-Village,
आपके प्रोत्साहन से मेरा मनोबल बढ़ा है.
आपकी सुन्दर टिपण्णी में मंगल तत्व गढा है.
@ > अरुण चन्द्र जी,
ओह! अरुण जी, आप कितने हैं करुण जी
मेरे बार बार बुलाने से आप आ ही गए
अति सुन्दर टिपण्णी करके आप यहाँ छा ही गए,
अब आपसे इतनी है हाथ जोड़ विनती
करें आप अपने मित्रों में मेरी भी गिनती.
आदरणीय गुरु जी नमस्ते! आपकी वाणी को बार बार पढने को मन करता है. ये क्या कर दिया है आपने !
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ReplyDeleteजीवन के सुख-दुख वाणी पर ही निर्भर है।
ReplyDeleteकबीर साहब का एक दोहा है-
शब्द संभारे बोलिए, शब्द के हाथ न पांव,
एक शब्द औषघ करै, एक शब्द करे घाव।
इस चिंतनपरक और प्रेरक आलेख के लिय आभार।
ज्ञानवर्धक और राहत देने वाली पोस्ट, जारी रखें यह सिलसिला.
ReplyDeleteमै कोई उपदेशक नहीं , न ही
ReplyDeleteकोई लेखक या कोई ज्ञानी ध्यानी . बस एक साधारणसा ब्लोगर मात्र हूँ,--
साधारण से ब्लोगर को पढ़कर हम तो धन्य हुए , राकेश कुमार जी ।
आजकल ऐसे ही लोगों की तो ज़रुरत है ।
बेहतरीन लेखन के लिए बधाई । और ब्लॉग जगत में आपका दिल से स्वागत ।
वर्णानां - वाणी वर्णों के बिना व्यक्त नहीं हो सकती. वर्णों का ज्ञान और उनका
ReplyDeleteप्रयोग करना आना चाहिए. यदि हिन्दी में वाणी व्यक्त कर रहें हैं तो 'क'
'ख' ,'ग' तो आना ही चाहिये.
अर्थसंघानां - जिन वर्णों का हम प्रयोग कर कर रहें उनसे कुछ अर्थ या उनका मतलब भी
निकलना चाहिये. अर्थ एक ही नहीं अनेक भी हो सकते है. इसीलिए कहा गया
'अर्थ संघानां'
रसानां - जो अर्थ वर्णों के प्रयोग से निकले, उसके द्वारा रस का संचार भी होना चाहिये .
बिना रस के अर्थ रुखा रुखा सा ही लगता है.
छंद सामपि - रसमय अर्थ के अतिरिक्त वाणी सुन्दर गायन भी प्रस्तुत करे तो कर्णप्रिय,
मधुर व और भी उत्तम हो जाती है.
मंगलानां - जब वाणी मंगल करने वाली भी हो तो वह सर्वोत्तम हो जाती है.
वाह ...वाह .....
ऐसी काव्य मीमांसा पहली बार पढ़ी ....
और बिलकुल सही भी ...
काव्य वही है भीतर तक आनंद दे ....
आपके विचार संग्रह योग्य हैं ....
आभार ....!!
बहुत सुन्दर व्याख्या की है आपने राकेश जी. आभार.
ReplyDelete@ > madansharma ji
ReplyDeleteआपका ह्रदय अति पवित्र है भाई
जिसने सार तत्व में ही दुबकी लगाई
आप बार बार आयें,वाणी की पावनता से बहार बन के छायें,
मंगलमय पोस्टें लिख, ब्लॉग जगत में आनन्द शांति का परचम फहराएँ
@ > mahendra verma ji
कबीर की वाणी का आपने किया अनुपम उल्लेख
अति सुन्दर ज्ञान मिला,धन्य हो गया यह आलेख
@ > राजेश सिंह जी,
आपको राहत मिले ,यही है मेरे दिल का चैन
आपके कवि ह्रदय ने भी,मुझे किया है बैचैन
राजेशजी आपकी कवितायेँ पढ़ी,जो सीधे दिल को छूती है.
@ > डॉ. टी एस दराल जी,
ReplyDeleteमुझ साधारण से ब्लोगर को भी , आपने जो मान दिया
आप महान है,इस ब्लॉग जगत की शान है,यह मैंने अब जान लिया.
@ > हरकीरत 'हीर' जी,
आप हीरों की खान हैं,जिस में आनन्द समाया है
मेरा अहो भाग्य है, जो यह लेख आपको भाया है
आपकी अमूल्य टिपण्णी ने ,मन को बहुत हर्षाया है.
@ > वंदना अवस्थी दुबे जी,
आपने व्याख्या सराही ,यह आपका बडप्पन है,
आदरणीय राजेश जी
ReplyDeleteनमस्कार !
ज्ञानवर्धक और राहत देने वाली पोस्ट,
माँ दुर्गा आपकी सभी मंगल कामनाएं पूर्ण करें
ReplyDeleteकई दिनों व्यस्त होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..
बहुत सुन्दर ज्ञानवर्धक प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
उम्दा आलेख.....
ReplyDeleteज्ञानवर्धक पोस्ट...
आभार.
Shikshapradh post, kaash hum sab isi tarah soch saken... sach hai aankhen wahi dekhti hain jo hum dekhna chahte hain.... :-)
ReplyDeleteबहुत सुंदर सार्थक विवेचन किया...... इस वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए आभार.
ReplyDeleteरम नवमी कि शुभकामनाये.
बहुत ही सार्थक और संग्रहणीय पोस्ट.
ReplyDeleteबहुत सारी ज्ञानवर्द्धक बातें हैं....आशा है भविष्य में भी इस तरह की पोस्ट लिखते रहेंगे..
शुभकामनाएं
राम नवमी की हार्दिक शुभकामनायें|
ReplyDeleteआदरणीय गुरु जी नमस्ते!
ReplyDeleteइस वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए आभार.
मुट्ठी बांधे आये जग मैं
खाली हाथ हमें जाना
शर्म शार न हो भारत माँ
गर्वित हो गोरव पाना
दुर्योधन की मांद से अच्छे
अभिमन्यु तुम बन जाना
बलिदानी हो जाना रण मैं
देवों से वंदन पाना …
संतों से वंदन पाना …
गुरुओं से वंदन पाना…
जन जन अभिनन्दन पाना ….
राम नवमी की हार्दिक शुभकामनायें!!
बहुत सुन्दर सार्थक ग्यानवर्द्धक आलेख है। कुछ दिन से बाहर गयी थी आपके पिछले आलेख पढ नही पाई। क्षमा चाहती हूँ। धन्यवाद।
ReplyDeleterakesh ji, main aapke blog ko jaroor se padhugi, abhi bas apni padhyi me vyast hun...... aapki baat ko maine yaad karke rakha hai. thanx for reminding me again.
ReplyDeleteसुंदर और सार्थक पोस्ट ..ज्ञानवर्द्धक बातें हैं....आप ऐसे सुन्दर व ज्ञानबर्धक लेख लिखते रहें... धन्यवाद...
ReplyDeleteमन-रंजन के लिए बहुत लोग लिखते हैं ...शर्मा जी ! बुद्धि-रंजन के लिए आप लिख रहे हैं. संयोग से वाणी विषय पर "आस्था का संकट " नाम से मैंने भी आज ही एक पोस्ट की है अपने blog पर.
ReplyDeleteअति सुन्दर ज्ञानवर्धक लेख ..ज्ञान के दीप प्रज्वलित करती ...ऐसे अंतर्मन को निर्मल करने वाले ज्ञानवर्धक लेख लिखते रहिएगा ...आपको कोटि कोटि शुभ कामनाएं.....
ReplyDeleteप्रभावी आलेख!
ReplyDeleteपावन अनुभूति हुई यहाँ आकर...
सादर!
Sir, I feel very small when you write words like 'please' to me. I am no one and I always say your blog is hard to miss. It's full of depth and meaning. It's a blessing to find a blog like yours on blogosphere.
ReplyDeleteI sometimes miss your posts and I'm sorry for that...:)
Many many thanks to you,Saru ji.
ReplyDeleteशिल्पा मेहता जी लिखतीं हैं:-
ReplyDeleteजीवन भलाई ग्रहण करने के लिए भी बहुत छोटा है - बुराई और गलती ढूँढना ऐसी मूर्खता है - जिससे हम अपने अमूल्य पलों को नष्ट कर देते हैं | जिनकी हम बुराई ढूँढें - उन्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ता - परन्तु - हमारा समय अवश्य व्यय हो जाता है |
आपका लेखन बहुत ही सुन्दर है भैया - हमेशा ही की तरह | आपके शब्दों में मंगल भी है, सत्य भी और रस भी | बधाईयाँ आपको |
बचपन से पढ़ते आए हैं रामचरित मानस ,और ये श्लोक मुखाग्र भी है..पर इतनी विस्तूत और सरल व्याख्या पहली बार पढ़ी,जानते सब हैं, पढ़ते सब हैं, पर उसे जीवन में कम ही लोग उतार पाते हैं ।
ReplyDeleteआपकी पोस्टों से बहुत कुछ समझने को मिलता है, इस पोस्ट का पॉडकास्ट बनाने की अनुमति देने के लिए मैं आपकी आभारी हूँ ।
बहुत सुन्दर विवेचना ! रसमय ज्ञानवर्धक लेखन! साधुवाद ! जय श्री राम !
ReplyDeleteआदरणीय राकेश जी,
ReplyDeleteइस श्लोक में वाणी शब्द का अर्थ सरस्वती जी से है, विनायकौ शब्द से इस बात की पुष्टि भी होती है कि इसमें श्री गणेश और भगवती सरस्वती दोनों कि ही वंदना हुई है, कृपया इसे ठीक कर लें.
- Shraddhesh
shraddesh ji,
ReplyDeleteएक ही शब्द के अनेक अर्थ हो सकते है.
सरस्वती जी वाणी की ही देवी कहलाती हैं.
मेरा उद्देश्य सार को ग्रहण करना है.और यही मुख्य उद्देश्य होना चाहिये.
मैंने यहाँ 'वाणी' को पोस्ट का आधार बनाया है.
आप अपने अनुसार भी अर्थ कर सकते हैं.
प्रिय राकेश जी,
ReplyDeleteकर्तारौ शब्द द्विवचन है, विनायकौ भी द्विवचन है, जिससे यह स्पष्ट है कि यहाँ दो लोगों की बात हो रही है, बालकाण्ड के मंगलाचरण में दो अन्य श्लोकों में भी श्रीहनुमान और श्रीवाल्मीकिजी की, भवानी और शंकर जी की वंदना हुई है। अधिक स्पष्टीकरण के लिए आप गीताप्रेस की टीका देख सकते हैं। मेरा प्रयोजन तो आपके सुन्दर अनुवाद को और अर्थपूर्ण और व्यापक बनाना है, आशा है कि आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे।
- श्रद्धेश
shraddesh ji,
ReplyDeleteमेरा संस्कृत ज्ञान अल्प है.
आपकी बातों से सहमति है.
यदि उपरोक्त श्लोक के बारे में
आप और भी प्रकाश डालें तो मुझे
खुशी होगी.
shraddesh ji,
ReplyDeleteमेरा संस्कृत ज्ञान अल्प है.
आपकी बातों से सहमति है.
यदि उपरोक्त श्लोक के बारे में
आप और भी प्रकाश डालें तो मुझे
खुशी होगी.
प्रिय राकेश जी,
ReplyDeleteआपका अनुवाद सुन्दर ही है पर आपके आग्रह को पूरा करने के लिए कुछ पंक्तियाँ मैं भी लिख रहा हूँ, आशा है आप इसे पसंद करेंगे।
अर्थ: अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वंदना करता हूँ।
भावार्थ: एक वर्ण का स्वयं में कोई अर्थ नहीं होता है परन्तु अनेक वर्ण मिलकर (या एक शब्द) एक या अधिक अर्थ वाले हो जाते हैं। इन शब्दों का उचित चयन पाठक के ह्रदय में अपने अर्थ के द्वारा अनेक रसों का संचार करता है। रस का सृजन काव्य के सुमधुर गायन का हेतु बनता है।
शब्दों के उचित चयन में बुद्धि का विशेष महत्त्व है और बुद्धि की प्रेरक देवी सरस्वती जी हैं इसलिए गोस्वामी जी सर्वप्रथम उनकी वंदना करते हैं। माता सर्व प्रथम देव है, अतः मातृ-वंदन से ही कल्याणकारी कार्य का शुभारम्भ कवि ने किया है।
श्रीगणेश विघ्नों को दूर करने वाले और मंगलकारी हैं। यह कार्य सर्व-मंगलकारी और निर्विघ्न पूर्ण हो इसलिए भगवान गणेश की स्तुति की गयी है।
एक सुन्दर लिंक भी मिला है - http://ramcharitamanas.wordpress.com/
यदि आप मेरे कार्य को देखना चाहें हो इस लिंक पर क्लिक करें:https://sites.google.com/site/vedicscripturesinc/
आपका
श्रद्धेश
आप सही जा रहे हैं ,, विनम्रता ही असल पूंजी है , भावातिरेक में बहुत पीछे न जाएं कि "फोकटिया" जैसे शब्द का सहारा लेना पड़े ,,, **सत्य,प्रेम, करुणा** बस तीन ही शब्द है जो सम्पूर्ण श्रीरामचरितमानस पाठ से मिलता है।
ReplyDeleteचारों वेद जब रामायण बने तो ब्रम्भाजी वाल्मीकि बने तत्पश्चात छहों शास्त्र सब ग्रंथन को रस श्रीरामचरितमानस जु की रचना की आवश्यकता हुई तो वाल्मीकि तुलसीदास बने यह वैदिक सत्य है , ओर ब्रह्म अवतार तुलसी जी अंत मे कहते हैं --जाकि कृपा लवलेस ते **मतिमंद तुलसीदास**
सरलता व विनम्रता ही असल पूंजी है , श्रीरामचरितमानस जी के पाठ का ,
जय जय श्रीराम
आपने जो भी लिखा सब सही और सच लिखा वास्तव में ऐसा ही है
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