चाहत या आरजू का जीवन में बहुत महत्व है.हमारी अनेक प्रकार की चाहतें हो सकतीं हैं, जो जीवन
के स्वरुप को बदलने में सक्षम हैं. वासनारूप होकर जब चाहत अंत:करण में वास करने लगती
है तो हमारे 'कारण शरीर' का भी निर्माण करती रहती है.
'कारण शरीर' हमारी स्वयं की वासनाओं से निर्मित है, जिसके कारण मृत्यु उपरांत हमें नवीन स्थूल
व सूक्ष्म शरीरों की प्राप्ति होती है.यदि वासनाएं सतो गुणी हैं अर्थात विवेक,ज्ञान और प्रकाश की
ओर उन्मुख हैं तो 'देव योनि ' की प्राप्ति हो सकती है. यदि रजो गुणी अर्थात अत्यंत क्रियाशीलता,
चंचलता और महत्वकांक्षा से ग्रस्त हैं तो साधारण 'मनुष्य योनि'. की और यदि तमो गुणी अर्थात
अज्ञान,प्रमाद हिंसा आदि से ग्रस्त हैं तो 'निम्न' पशु,पक्षी, कीट-पतंग आदि की 'योनि'प्राप्त हो
सकती है. इस प्रकार विभिन्न प्रकार की वासनाओं से विभिन्न प्रकार की योनि प्राप्त हो
सकती है. जो हमारे शास्त्रों अनुसार ८४ लाख बतलाई गई हैं.
उदहारण स्वरुप यदि किसी की चाहत यह हो कि जिससे उसको कुछ मिलता है ,उसको वह स्वामी
मानने लगे और उसकी चापलूसी करे,कुत्ते की तरहं उसके आगे पीछे दुम हिलाए. जिससे उसको
नफरत हो या जो उसे पसंद न आये, उसपर वह जोर का गुस्सा करे ,कुत्ते की तरह भौंके और जब
यह चाहत'उसकी अन्य चाहतों से सर्वोपरि होकर उसके अंत:करण में प्रविष्ट हो वासना रूप में उसके
'कारण शरीर' का निर्माण करे ,तो उस व्यक्ति को अपनी ऐसी चाहत की पूर्ति के लिए 'कुत्ता योनि'
में भी जन्म लेना पड़ सकता है. इसी प्रकार जो बात-बिना बात अपनी अपनी कहता रहें यानि बस
टर्र टर्र ही करे ,मेंडक की तरह कुलांचें भी भरे तो वह 'मेंडक' बन सकता है..क्योंकि ऐसी वासनायें
अज्ञान ,प्रमाद से ग्रस्त होने के कारण 'तमो गुणी' ही है जो पशु योनि की कारक है.
चाहत यदि सांसारिक है तो संसार में रमण होगा. पर चाहत परमात्मा को पाने की हो तो परमात्मा से
मिलन होगा.इसलिये अपनी चाहतों के प्रति हमें अत्यंत जागरूक व सावधान रहना चाहिये.किसी भी
चाहत को विचार द्वारा पोषित किया जा सकता है.विचार द्वारा ही चाहत का शमन भी किया जा सकता है.
यदि चाहत सच्ची और प्रगाढ़ हो तो अवश्य पूरी होती है.गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में
सच्ची चाहत और स्नेह के बारे में लिखते हैं:-
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू
वास्तव में 'सीता जी' का स्वरुप रामचरितमानस व अन्य ग्रंथों में प्रभु श्री राम की 'भक्ति' स्वरूपा
माना गया है.जो राम अर्थात 'सत्-चित-आनंद' को पाने की सर्वोतम और अति उत्कृष्ट चाहत ही है.
ऐसी चाहत इस पृथ्वीलोक में अति दुर्लभ और अनमोल है, जो मनुष्य को सभी वासनाओं से मुक्त
कर उसके 'कारण शरीर' का अंत कर सत्-चित-आनंद' परमात्मा से मिलन कराने में समर्थ है.
भगवान कृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १२ (भक्ति योग ) के श्लोक ९ में कहते हैं
अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषी मयि स्थिरम
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुम धनञ्जय
यदि तू अपने मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! तू अभ्यास रूप
योग के द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए 'इच्छा' कर.
परमात्मा को पाने की 'इच्छा' अन्य सभी इच्छाओं का अपने में समन्वय और शांत करने में समर्थ है,
जो गंगा की तरह अन्ततः परमात्मा रुपी समुन्द्र में मिल जाती है.इसीलिए अभ्यासयोग (परमात्मा
का मनन,जप,ध्यान आदि) बिना परमात्मा की प्राप्ति की सच्ची इच्छा के अधूरा ही है.परमात्मा को पाने के
लिए अभ्यासयोग के साथ साथ बुद्धि के सद् विचार द्वारा ऐसी चाहत का ही निरंतर पोषण करते
रहना चाहिये.
परमात्मा की सच्ची चाहत, प्रेम या भक्ति पृथ्वी पुत्री 'सीता' जी ही है. जिन्हें 'आत्मज्ञानी' विदेह
जनक जी ने भी अपनी पुत्री के रूप में अपनाया ,जो करुणा निधान परमात्मा को अत्यंत प्रिय है.ऐसी
भक्ति स्वरूपा जानकी जी जगत की जननी हैं ,क्यूंकि सभी चाहतों का इनमें विलय हो जाता है. उन्हीं के
चरण कमलों को मनाते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी निवेदन करते हैं कि वे (जानकी जी) उन्हें
निर्मल सद् बुद्धि प्रदान करें , जो प्रभु 'सत्-चित-आनंद' की प्राप्ति कराने में सहायक हो.
जनकसुता जग जननि जानकी,अतिशय प्रिय करुनानिधान की
ताके जुग पद कमल मनावऊँ, जासु कृपा निरमल मति पावउँ
हृदय स्थली में आत्मज्ञान के साथ साथ परमात्मा को पाने की सच्ची चाहत का उदय हो , यही
वास्तविक रूप से 'सीता जन्म' है.ऐसी सच्ची चाहत ही निर्मल मन व बुद्धि प्रदान कर सकती है,
जिसके बिना परमात्मा को पाना असम्भव है.
'सीता' जी सर्व श्रेय व कल्याण करने वालीं हैं. अगली पोस्ट में 'सीता' जी के स्वरुप का हम और भी
मनन व चिंतन करेंगें.
के स्वरुप को बदलने में सक्षम हैं. वासनारूप होकर जब चाहत अंत:करण में वास करने लगती
है तो हमारे 'कारण शरीर' का भी निर्माण करती रहती है.
'कारण शरीर' हमारी स्वयं की वासनाओं से निर्मित है, जिसके कारण मृत्यु उपरांत हमें नवीन स्थूल
व सूक्ष्म शरीरों की प्राप्ति होती है.यदि वासनाएं सतो गुणी हैं अर्थात विवेक,ज्ञान और प्रकाश की
ओर उन्मुख हैं तो 'देव योनि ' की प्राप्ति हो सकती है. यदि रजो गुणी अर्थात अत्यंत क्रियाशीलता,
चंचलता और महत्वकांक्षा से ग्रस्त हैं तो साधारण 'मनुष्य योनि'. की और यदि तमो गुणी अर्थात
अज्ञान,प्रमाद हिंसा आदि से ग्रस्त हैं तो 'निम्न' पशु,पक्षी, कीट-पतंग आदि की 'योनि'प्राप्त हो
सकती है. इस प्रकार विभिन्न प्रकार की वासनाओं से विभिन्न प्रकार की योनि प्राप्त हो
सकती है. जो हमारे शास्त्रों अनुसार ८४ लाख बतलाई गई हैं.
उदहारण स्वरुप यदि किसी की चाहत यह हो कि जिससे उसको कुछ मिलता है ,उसको वह स्वामी
मानने लगे और उसकी चापलूसी करे,कुत्ते की तरहं उसके आगे पीछे दुम हिलाए. जिससे उसको
नफरत हो या जो उसे पसंद न आये, उसपर वह जोर का गुस्सा करे ,कुत्ते की तरह भौंके और जब
यह चाहत'उसकी अन्य चाहतों से सर्वोपरि होकर उसके अंत:करण में प्रविष्ट हो वासना रूप में उसके
'कारण शरीर' का निर्माण करे ,तो उस व्यक्ति को अपनी ऐसी चाहत की पूर्ति के लिए 'कुत्ता योनि'
में भी जन्म लेना पड़ सकता है. इसी प्रकार जो बात-बिना बात अपनी अपनी कहता रहें यानि बस
टर्र टर्र ही करे ,मेंडक की तरह कुलांचें भी भरे तो वह 'मेंडक' बन सकता है..क्योंकि ऐसी वासनायें
अज्ञान ,प्रमाद से ग्रस्त होने के कारण 'तमो गुणी' ही है जो पशु योनि की कारक है.
चाहत यदि सांसारिक है तो संसार में रमण होगा. पर चाहत परमात्मा को पाने की हो तो परमात्मा से
मिलन होगा.इसलिये अपनी चाहतों के प्रति हमें अत्यंत जागरूक व सावधान रहना चाहिये.किसी भी
चाहत को विचार द्वारा पोषित किया जा सकता है.विचार द्वारा ही चाहत का शमन भी किया जा सकता है.
यदि चाहत सच्ची और प्रगाढ़ हो तो अवश्य पूरी होती है.गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में
सच्ची चाहत और स्नेह के बारे में लिखते हैं:-
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू
वास्तव में 'सीता जी' का स्वरुप रामचरितमानस व अन्य ग्रंथों में प्रभु श्री राम की 'भक्ति' स्वरूपा
माना गया है.जो राम अर्थात 'सत्-चित-आनंद' को पाने की सर्वोतम और अति उत्कृष्ट चाहत ही है.
ऐसी चाहत इस पृथ्वीलोक में अति दुर्लभ और अनमोल है, जो मनुष्य को सभी वासनाओं से मुक्त
कर उसके 'कारण शरीर' का अंत कर सत्-चित-आनंद' परमात्मा से मिलन कराने में समर्थ है.
भगवान कृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १२ (भक्ति योग ) के श्लोक ९ में कहते हैं
अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषी मयि स्थिरम
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुम धनञ्जय
यदि तू अपने मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! तू अभ्यास रूप
योग के द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए 'इच्छा' कर.
परमात्मा को पाने की 'इच्छा' अन्य सभी इच्छाओं का अपने में समन्वय और शांत करने में समर्थ है,
जो गंगा की तरह अन्ततः परमात्मा रुपी समुन्द्र में मिल जाती है.इसीलिए अभ्यासयोग (परमात्मा
का मनन,जप,ध्यान आदि) बिना परमात्मा की प्राप्ति की सच्ची इच्छा के अधूरा ही है.परमात्मा को पाने के
लिए अभ्यासयोग के साथ साथ बुद्धि के सद् विचार द्वारा ऐसी चाहत का ही निरंतर पोषण करते
रहना चाहिये.
परमात्मा की सच्ची चाहत, प्रेम या भक्ति पृथ्वी पुत्री 'सीता' जी ही है. जिन्हें 'आत्मज्ञानी' विदेह
जनक जी ने भी अपनी पुत्री के रूप में अपनाया ,जो करुणा निधान परमात्मा को अत्यंत प्रिय है.ऐसी
भक्ति स्वरूपा जानकी जी जगत की जननी हैं ,क्यूंकि सभी चाहतों का इनमें विलय हो जाता है. उन्हीं के
चरण कमलों को मनाते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी निवेदन करते हैं कि वे (जानकी जी) उन्हें
निर्मल सद् बुद्धि प्रदान करें , जो प्रभु 'सत्-चित-आनंद' की प्राप्ति कराने में सहायक हो.
जनकसुता जग जननि जानकी,अतिशय प्रिय करुनानिधान की
ताके जुग पद कमल मनावऊँ, जासु कृपा निरमल मति पावउँ
हृदय स्थली में आत्मज्ञान के साथ साथ परमात्मा को पाने की सच्ची चाहत का उदय हो , यही
वास्तविक रूप से 'सीता जन्म' है.ऐसी सच्ची चाहत ही निर्मल मन व बुद्धि प्रदान कर सकती है,
जिसके बिना परमात्मा को पाना असम्भव है.
'सीता' जी सर्व श्रेय व कल्याण करने वालीं हैं. अगली पोस्ट में 'सीता' जी के स्वरुप का हम और भी
मनन व चिंतन करेंगें.
राकेश जी आपका पुनः स्वागत है ...!!सीता जन्म पर ये चिंतन पढ़ कर आल्हाद से भर गया मन |इस अमृत वर्षा के लिए आभार आपका ...!!बहुत ज्ञानवर्धक चिंतन है ...
ReplyDeleteजनकसुता जग जननि जानकी,अतिशय प्रिय करुनानिधान की ..
ReplyDeleteबहुत सुंदर पोस्ट है आज की ..... प्रभु श्री राम की 'भक्ति' स्वरूपा जानकी से जुड़े चिंतन का आगे भी इंतजार रहेगा
परमात्मा की प्राप्ति की सदिच्छा ही सर्व प्रिय व वांछनीय है .... चिंतन व प्रेरणा लिए आलेख प्रीतिकर है जी / बधाई ..
ReplyDeleteजय श्रीराम, सीता राम, राम-राम
ReplyDeleteजनकसुता जग जननि जानकी,अतिशय प्रिय करुनानिधान की ....
ReplyDeleteसुबह सुबह यह गुनगुना कर मन प्रफुल्लित हो उठा ...आभार आपका !
जनकसुता जग जननि जानकी,अतिशय प्रिय करुनानिधान की
ReplyDeleteताके जुग पद कमल मनावऊँ, जासु कृपा निरमल मति पावउँ ....sach mein aise sundar aadhyatm chitan padhkar man ko bahut sukun milta hai..
..bahut bahut aabhar...
मन बड़ा हल्का हल्का हो गया इस सुबह।
ReplyDeleteबहुत दिनों के बाद आपका पोस्ट पढ़कर बहुत अच्छा लगा! जनकसुता जग जननि जानकी,अतिशय प्रिय करुनानिधान की...सुबह उठकर जब मैंने आपका पोस्ट पढ़ा तो मन बड़ा प्रसन्न हो गया! सुन्दर , शानदार, चिंतनीय एवं ज्ञानवर्धक आलेख! बधाई!
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू
ReplyDeleteakshrashah satya
राकेश जी , कोटि-कोटि नमन आपकी आध्यात्मिक ऊंचाई को | ह्रदय आह्लादित हो रहा है,संकल्पित हो रहा है सत-चित- आनंद के लिए | आपका हार्दिक आभार |
ReplyDeleteमन आनंदित हो गया ... ... आपकी पोस्ट्स पढ़ कर मन एक अलग ही लोक में चला जाता है ..बता पाना मुश्किल है की कैसा महसूस होता है ......इस पोस्ट के लिए भी धन्यवाद
ReplyDeleteअच्छी लगी आपकी यह तथ्यपरक प्रस्तुति। दार्शनिक भी आध्यात्मिक भी। हमारे लिये बहुत उपयोगी है।
ReplyDelete'सीता जन्म' पर दार्शनिक एवं तथ्यपरक लेख के लिए हार्दिक शुभकामनाएं....
ReplyDeleteहृदय स्थली में आत्मज्ञान के साथ साथ परमात्मा को पाने की सच्ची चाहत का उदय हो , यही
ReplyDeleteवास्तविक रूप से 'सीता जन्म' है
सीता जन्म का वास्तविक अर्थ बताकर आपने हमे धन्य किया । सीता कहो या भक्ति एक ही बात है और उसका उदय होना ही मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है मगर हम उस तरफ़ ध्यान नही दे पाते और चौरासी के चक्कर मे भटकते रहते हैं।
गुरूजी प्रणाम ..जो जैसा पढेगा , वैसा ही परीक्षा में लिखेगा ! बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDelete"यदि वासनाएं सतो गुणी हैं अर्थात विवेक,ज्ञान और प्रकाश की
ReplyDeleteओर उन्मुख हैं तो 'देव योनि ' की प्राप्ति हो सकती है. यदि रजो गुणी अर्थात अत्यंत क्रियाशीलता,
चंचलता और महत्वकांक्षा से ग्रस्त हैं तो साधारण 'मनुष्य योनि'. की और यदि तमो गुणी अर्थात
अज्ञान,प्रमाद हिंसा आदि से ग्रस्त हैं तो 'निम्न' पशु,पक्षी, कीट-पतंग आदि की 'योनि'प्राप्त हो
सकती है."
यथार्थ और शुभाकांशा लिए कथन!!
'सीता जन्म' को सत्व उत्थान से जोडकर आपने अद्भुत दर्शन प्रस्तुत किया है।
सौम्य विचारों के आपके प्रसार प्रयास की अनंत शुभकामनाएँ!! आभार सहित!!
--सुन्दर , अति सुन्दर...!! ...पुलकि बदन रोमावलि ठाड़ी ....
ReplyDeleteसीता सी या जगत में सीता सीता नारि,
विरह विरह में संग फिरी पति के संग उदार|
सीता जन्म का वास्तविक अर्थ बताकर आपने हमे आनंदित कर दिया है...
ReplyDeleteजानकीजी से जुड़े दार्शनिक और आध्यात्मिक चिंतन का आगे भी स्वागत है... आभार
मन आनंदित हो गया |
ReplyDeleteस्वागत है! आप का |
ReplyDeleteजय सीता राम !
बहुत सुंदर चिंतन लगा, राम राम
ReplyDeleteयदि वासनाएं सतो गुणी हैं अर्थात विवेक,ज्ञान और प्रकाश की
ReplyDeleteओर उन्मुख हैं तो 'देव योनि ' की प्राप्ति हो सकती है. यदि रजो गुणी अर्थात अत्यंत क्रियाशीलता,
चंचलता और महत्वकांक्षा से ग्रस्त हैं तो साधारण 'मनुष्य योनि'. की और यदि तमो गुणी अर्थात
अज्ञान,प्रमाद हिंसा आदि से ग्रस्त हैं तो 'निम्न' पशु,पक्षी, कीट-पतंग आदि की 'योनि'प्राप्त हो
सकती है. इस प्रकार विभिन्न प्रकार की वासनाओं से विभिन्न प्रकार की योनि प्राप्त हो
सकती है. जो हमारे शास्त्रों अनुसार ८४ लाख बतलाई गई हैं.
विचारणीय पोस्ट ... अच्छी जानकारी मिली ...
परमात्मा की प्राप्ति की सदिच्छा ही सर्व प्रिय व वांछनीय है|सीता जन्म का वास्तविक अर्थ बताकर आपने हमे धन्य किया| आभार|
ReplyDeleteराकेश जी
ReplyDeleteचाहत यदि सांसारिक है तो संसार में रमण होगा. पर चाहत परमात्मा को पाने की हो तो परमात्मा से
मिलन होगा.इसलिये अपनी चाहतों के प्रति हमें अत्यंत जागरूक व सावधान रहना चाहिये.किसी भी
चाहत को विचार द्वारा पोषित किया जा सकता है.विचार द्वारा ही चाहत का शमन भी किया जा सकता है.
यदि चाहत सच्ची और प्रगाढ़ हो तो अवश्य पूरी होती है.
सटीक.... भक्ति विचारोंशून्य हो जाने के बाद ही सही अर्थ लेती हिया.. उर जब हम विचारों के प्रति जागरूक रहते हैं तो भक्ति के मार्ग में आने वाले विचार स्वयं ही विलीन हो जाते हैं ....सुन्दर आध्यात्मिक चिंतन ...
शुक्रिया
परमात्मा को पाने की 'इच्छा' अन्य सभी इच्छाओं का अपने में समन्वय और शांत करने में समर्थ है,
ReplyDeleteजो गंगा की तरह अन्ततः परमात्मा रुपी समुन्द्र में मिल जाती है.इसीलिए अभ्यासयोग (परमात्मा
का मनन,जप,ध्यान आदि) बिना परमात्मा की प्राप्ति की सच्ची इच्छा के अधूरा ही है.परमात्मा को पाने के
लिए अभ्यासयोग के साथ साथ बुद्धि के सद् विचार द्वारा ऐसी चाहत का ही निरंतर पोषण करते
रहना चाहिये.
सीता जन्म की सुंदर विवेकपूर्ण विवेचना पढ़कर अत्यंत हर्ष हुआ, अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा !
आध्यात्मिक चिंतन से सुकून पाने आ गया हूँ आपके ब्लॉग पर.
ReplyDeleteबहुत सटीक वर्णन किया है |अच्छी जानकारी देता लेख बधाई
ReplyDeleteआशा
बहुत सुन्दर मन शांत और निर्मल हो गया
ReplyDeleteउम्दा तथ्यपरक आलेख...बहुत अच्छा लगा इस तरह सीता जन्म के बारे पढ़कर...
ReplyDeleteराकेश जी आपका स्वागत है ...अच्छी लगी आपकी यह 'सीता जन्म' पर दार्शनिक एवं तथ्यपरक प्रस्तुति।
ReplyDeleteकरीब १५ दिनों से अस्वस्थता के कारण ब्लॉगजगत से दूर हूँ
ReplyDeleteआप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ,
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू
ReplyDeleteSatya kee chahat se raahat dilane kee prernayukt
paavan abhivyakti ke liye dhanywaad
Jai Shri Krishna
Jai Shri Ram
Satymev Jayte
राकेश जी,
ReplyDeleteसुन्दर आध्यात्मिक चिंतन तथ्यपरक आलेख..सीता जन्म का वास्तविक अर्थ प्रस्तुति। आभार|
आपकी किसी पोस्ट की चर्चा है कल ..शनिवार(२-०७-११)को नयी-पुराणी हलचल पर ..!!आयें और ..अपने विचारों से अवगत कराएं ...!!
ReplyDeleteराकेश जी, तुलसीदास जी भी कह गए "जाकी रही भावना जैसी / प्रभु मूरत तिन देखी तैसी"... और हमारे पूर्वजों के विचार समझने से पहले प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह जानना आवश्यक माना गया है कि 'मैं' अथवा 'हम', वास्तव में हैं कौन?!
ReplyDeleteहिन्दू मान्यतानुसार 'हम' जानते हैं कि अजन्मे और अनंत 'विष्णु', अथवा निराकार नादब्रह्म, यानि अनादि शक्तिरूप 'सृष्टिकर्ता' के मगरमच्छ ('गज और ग्रह' की कथा में मजबूत पकड़ वाला 'ग्रह', जो नाम उनकी ग्रहण शक्ति के कारण सौर-मंडल के सदस्यों को भी दिया गया) से आरम्भ कर, त्रेता में धनुर्धर 'राम' (सूर्य के प्रतिरूप) सातवें अवतार, और द्वापर में आठवें, 'कृष्ण' हैं (हमारी गैलेक्सी के मध्य में उपस्थित परम गुरुत्वाकर्षण शक्ति वाला 'ब्लैक होल')... संख्या आठ (8) से आरम्भ कर किसी भी पशु की रूप-रेखा दर्शायी जा सकती है, और इस को लिटा दें तो गणितग्य इसे अनंत पढेंगे, लेते हुए विष्णु समान :)
'मैंने' गीता में इसे स्पष्ट किया हुआ समझा कि 'योग माया' के कारण (अनंत शक्ति और भौतिक पदार्थ, अथवा 'मिटटी' के विभिन्न मात्रा में योग द्वारा जनित अनंत प्रतीत होते रूपों में उपस्थित साकार ब्रह्माण्ड) , और उसी भांति हमारी गैलेक्सी के केंद्र में संचित शक्ति, 'योगिराज कृष्ण', की 'योग माया' के कारण मानव रूप पृथ्वी पर आधारित पशु-जगत में अन्य अनंत प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ साकार रूप में प्रतीत होता हैं किन्तु उनमें भी प्रकृति की विविधता दिखाने हेतु आत्माओं का स्तर एक दूसरे से भिन्न प्रतीत होता है... और उच्चतम स्तर 'कृष्ण' के विराट स्वरुप अमृत शिव का है (अनंत शून्य का),,, और यह भी कहा जाता है कि "विष्णु ही शिव हैं और शिव ही विष्णु हैं"...
गीता के अनुसार 'हम' सब अस्थायी साकार रुपी वास्तव में कलियुगी शरीर (२५ वे ०% कार्य-क्षमता वाले) के भीतर उपस्थित अमृत आत्माएं हैं, अमृत विष्णु/ शिव के प्रतिरूप अथवा प्रतिबिम्ब, जिन्हें (परोपकारी) देवता अथवा (स्वार्थी) राक्षश के रूप में चार चरणों में 'क्षीर-सागर मंथन' की सांकेतिक कथा के अनुसार, देवताओं के गुरु बृहस्पति की देखरेख में (यानि हमारी 'मिल्की वे गैलेक्सी' और उसके भीतर सौर-मंडल की उत्पत्ति द्वारा) अंततोगत्वा सतयुग के अंत में लक्ष्य प्राप्ति, अथवा 'अमृत', सोमरस अथवा चन्द्रकिरण पान, संभव हुवा,,,
'सागर मंथन' द्वारा अंधकारमय और विषैले कलियुग से पार पा, द्वापर की कृष्णलीला यानी गैलेक्सी के निराकार केंद्र की उत्पत्ति, त्रेता की राम लीला अथवा सूर्य की उत्पत्ति, और सतयुग के अंत में ब्रह्मा-विष्णु-महेश त्रिपुरारी शिव के रूप में लक्ष्य प्राप्ति, हमारे सौर-मंडल के सदस्यों की उत्पत्ति और चन्द्रमा को सांकेतिक भाषा में अमृत शिव के मस्तक पर, उनका माथा ठंडा रखने, त्रेता के राम की सीता समान, दर्शाया जाता आ रहा है... चन्द्रमा के द्वापर में प्रतिरूप द्रौपदी, त्रेता में सीता, और सतयुग में पार्वती को दिखाया गया है...
'हम' वास्तव में अमृत शिव यानि साढ़े चार अरब से अधिक अंतरिक्ष के शून्य में विद्यमान साकार पृथ्वी के सतयुगी प्रतिरूप अथवा प्रतिबिम्ब हैं जो शून्य यानि शुद्ध शक्ति से अनंत साकार तक प्रकृति की उत्पत्ति को दर्शाने का काम करते हैं... इस कारण विभिन्न स्तर पर होने से जो आत्माएं निम्न स्तर पर प्रतीत होती हैं उन्हें प्रयास अधिक करना होगा 'मायाजाल' को तोड़ अपने ही मूल को, 'परम सत्य', को जान मुक्ति पाने का...
जैसा 'हम' आज जानते हैं कि तथाकथित गंगा नदी के स्रोत, चन्द्रमा (हिमालय पुत्री पार्वती?), और किसी काल में प्राचीन 'भारत' अथवा 'जम्बूद्वीप' के उत्तर में स्थित हिमालयी श्रृखला भी, पृथ्वी ('गंगाधर' और 'चंद्रशेखर' शिव') के कोख से ही उत्पन्न हुए, यह शायद कहना आवश्यक नहीं होना चाहिए कि अमृत शिव के मस्तक पर (नीलकंठ शिव जो हलाहल पान करने में एक अकेले ही सक्षम थे), यानि साकार रूप में गंगाधर शिव के शरीर में उच्चतम स्थान पर चन्द्रमा अथवा 'इंदु' का दर्शाया जाना संकेत करता है उनके प्रतिरूप मानव शरीर को नवग्रह के सार से बने पाए जाने को, 'हिन्दुओं' द्वारा जिन्होंने सूर्य और पृथ्वी-चन्द्र द्वारा जनित काल की गणना में सूर्य के चक्र के भीतर ही चन्द्रमा के चक्र को मान्यता दे 'पंचांग' की रचना की, जो अनादि काल से 'भारत' में अपनाए जाते आ रहे हैं...
ReplyDeleteaadarniy sir
ReplyDeletebahut dino baad punah aapka aadhytmik -chitan se bhara vistrit aalekh padhne ko mila .sach padh kar man aanand-may ho gaya.
aapki is gahan soch v khij ki main to kayal ho gai haun .kaise itna steek vivechan karke kitne gahn bhav se likhte hain aap.
sach!bahad hi prashashniy post
सच्ची चाहत ही निर्मल मन व बुद्धि प्रदान कर सकती है,
जिसके बिना परमात्मा को पाना असम्भव है.
ek dam yatharth chitran
hardik badhai
v naman
poonam
परमात्मा को पाने की 'इच्छा' अन्य सभी इच्छाओं का अपने में समन्वय और शांत करने में समर्थ है,
ReplyDeleteजो गंगा की तरह अन्ततः परमात्मा रुपी समुन्द्र में मिल जाती है.इसीलिए अभ्यासयोग (परमात्मा
का मनन,जप,ध्यान आदि) बिना परमात्मा की प्राप्ति की सच्ची इच्छा के अधूरा ही है.परमात्मा को पाने के
लिए अभ्यासयोग के साथ साथ बुद्धि के सद् विचार द्वारा ऐसी चाहत का ही निरंतर पोषण करते
रहना चाहिये.
achha maargdarshan.....
utkrisht aalekh....
'परमात्मा की सच्ची चाहत,प्रेम या भक्ति पृथ्वी पुत्री 'सीता' जी ही हैं'
ReplyDelete....................इतना मनोहारी चिंतन पढ़कर ह्रदय गदगद हो गया
.................................बहुत-बहुत आभार, सार्थक लेखन के लिए
कारण शरीर का विवेचन बहु ज्ञानप्रद लगा...
ReplyDeleteअत्यंत सुन्दर पोस्ट के लिए आभार
राकेश जी, 'मैं' हमारी मान्यता में छुपे विज्ञान की ओर ध्यान आकर्षित करने हेतु कहना चाहूँगा कि क्यूंकि धनुर्धर राम - विष्णु के सप्तम अवतार - त्रेता के राजा हैं (पुरुषोत्तम), सतयुग के 'अमृत शिव' परमात्मा नहीं... और वो १४ वर्ष के लिए भ्राता भरत की माँ केकई द्वारा निज स्वार्थ में बनवास में भेजे जाने के कारण सुनहरी राज गद्दी को लात मार अनुज लक्षमण और सीता (जिनका हाथ 'शिव का विष्णु से प्राप्त प्राचीन धनुष' तोड़ स्वयंबर द्वारा पायी गयी पत्नी) के साथ आम आदमी समान निकल पड़े और उनके समान ही मानव जीवन के विभिन्न उतार-चढाव के अनुभव किये...
ReplyDeleteलाइन के बीच में ही पढ़ के यह जाना जा सकता है कि उपरोक्त वास्तव में तीन माताएं ॐ के साकार रूप ब्रह्मा-विष्णु-महेश को दर्शाती हैं... और कथा सौर-मंडल की उत्पत्ति दर्शाती है, जिस में भरत हमारी गैलेक्सी के केंद्र के प्रतिरूप हैं, राम सूर्य के... लक्षमण पृथ्वी के और सीता चन्द्रमा की (जनक और उन की पुत्री!)...
पृथ्वी के केंद्र में संचित गुरुत्वाकर्षण शक्ति ही विष्णु हैं और पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र ही शिव का धनुष है जिसे तोड़ सूर्य (राम/ ब्रह्मा) की जीवनदायी किरणें हम 'पापीयों' तक पहुँच पाती हैं और अहल्या समान श्रापित, पाषाण बनी नारी, को जीवन दान देने में सक्षम हैं, जैसे 'हिन्दू मान्यतानुसार' ब्रह्मा की रात आने पर सब आत्माएं जम जाती हैं और ब्रह्मा के नए दिन के आरम्भ में उसी स्तर से फिर काल-चक्र में घूमने लग जाती हैं... आदि आदि :)
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने ।
ReplyDeleteसर जय गणेश,
ReplyDeleteपरमात्मा को पाने की 'इच्छा' अन्य सभी इच्छाओं का अपने में समन्वय और शांत करने में समर्थ है....
आपके लेख को पढने का अपना ही आनंद है,आध्यात्म से और गहरा रिश्ता जुड़ता जाता है.
shaandar lekh,
अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषी मयि स्थिरम
ReplyDeleteअभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुम धनञ्जय
सच है, अभ्यास से अभीष्ट को प्राप्त लिया जा सकता है।
हर बार की तरह बहुत खूबसूरती से हर पहलु को बहुत खूबसूरती से उजागर करती पोस्ट | भगवान के माध्यम से योनियों का वर्णन बताने का सुन्दर अंदाज़ |
ReplyDeleteज्ञानवर्धक पोस्ट |
मेरे सभी ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी मिलने पर बेहद ख़ुशी हुई!
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com
राकेश जी बहुत ही अच्छी जानकारी मिली आपके इस आलेख से.
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteYou are welcome at my new post-
ReplyDeletehttp://urmi-z-unique.blogspot.com/
http://amazing-shot.blogspot.com/
आप मेरे सभी ब्लॉग पर आकर हर एक पोस्ट पर इतनी सुन्दर टिपण्णी देते हैं जिसके लिए मैं आपका शुक्रियादा करना चाहती हूँ!
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
aapka blog to Ram Sita ke rang me ranga hua hai , achchha lagaa ...mere blogs par aapki hausla afzaaee svroop tippiniyon ke liye bahut bahut dhanyvad...
ReplyDeletesundar vivechan...is bhautikvadi jag me is tarah ki aadhyatmik jankari deta aapka blog prashansneey hai..
ReplyDeleteभगवान कृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १२ (भक्ति योग)
ReplyDeleteके श्लोक ९ में कहते हैं |
"अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषी मयि स्थिरम
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुम धनञ्जय"
यदि तू अपने मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है
तो हे अर्जुन! तू अभ्यास रूप योग के द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए 'इच्छा' कर.
परमात्मा को पाने की 'इच्छा'
अन्य सभी इच्छाओं का अपने में समन्वय और शांत करने में समर्थ है,
These Lines are really beautiful and inspiring...
Lord Krishna tells the following lines in the
Chapter 12 of Bhagwad Gita (bhakti yoga) in verse 9
If your mind is not able to install the real me,
O Arjuna! Then you should 'Desire' to receive me through practice.
When you Desire to obtain God,
you co ordinate to calm all your wishes and desires.
Regards,
Sunny Dhanoe
http://wolfariann.blogspot.com/
http://radiopunjab.blogspot.com/
अनमोल ब्लॉग लगा आपका ...मेरी अभिरुचि के हिसाब से
ReplyDeleteआपके लेखों में आध्यात्मिक चिंतन का एक नया स्वरूप परिलक्षित होता है जो वर्तमान समय के अनुकूल है और प्रेरक भी। पढ़कर मन को शांति मिली।
ReplyDeleteआपका ब्लोग सच में अनमोल है,
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
आपकी पोस्ट बहुत ही सुन्दर हैं अभी यही पढ पाया हूं सैर का वक्त हो गया है,शाम को शेष भी पढूंगा, रामचरित मानस का मनन प्रभु कृपा से मैं भी २० वर्ष से निरन्तर कर रह हूं
ReplyDeleteआदरणीय गुरु जी नमस्ते ! देर से आने के लिए क्षमा चाहता हूँ
ReplyDeleteऔर इसके लिए पूरी तरह से विद्युत् देवता ही जिम्मेद्वार हैं
क्यों की आज कल लगभग दो महीने से हमारे क्षेत्र में आत्याधिक अघोषित
विद्युत् कटौती हो रही है कहने को तो तो चौबीस घंटा की आपूर्ति का आदेश है
किन्तु यहाँ नाम मात्र को भी नजर नहीं आता रोज आठ से दस घंटे की कटौती !
आपने हमेशा की तरह इस बार भी सबका मन मोह लिया है |
आपने सीता जैसे यौगिक शब्द की बहुत सुन्दर एवं अद्भुत व्याख्या की है
आप को बार बार बधाई |
ग्यानी जन इसी तरह यदि वेदों के मर्म को समझते उनके शब्दों के रूढी गत
अर्थ ना कर के यौगिक अर्थ करते तो आज वेद के नाम पे अश्लील अर्थ ,
कहानियां एवं इतिहास ना देखने को मिलते !
अभी मै आपके विचारों का अध्यन कर रहा हूँ | अभी फिर आगे मिलेंगे |
पुनः आपका मेरे प्रति विशेष स्नेह के लिए आभार....!
RAKESHJEE AAPKE BLOG PAR AANA BAHUT ACCHA LAGA .
ReplyDeletejain dharmanusaar apanee indriyo par sayyam aur fal kee kamnarahit sukarm hee dhey ho to jeevan safal hai.
aapkee post margdarshit kartee hai.
shubhkamnae.
राकेश जी ... आपके द्वारा एक और आत्मचिंतन और सूक्ष्म ज्ञान से भरी पोस्ट और जी सी द्वारा करी हुयी व्याख्या ... मन को भाव विहोर कर जाती है ... सीता जी ने जैसी इच्छा की उन्हें वैसा ही वर मिला ... इसी तरह मनुष्य भी जैसी भावना जैसा व्यवहार रखेगा उसे वैसा ही फल प्राप्त होना है ... बहुत ही सहज से आपने समझा दिया ...
ReplyDeleteइसी भावना को सिख गुरुओं ने ’जहाँ आसा, तहाँ वासा’ कहकर विश्लेषित किया है। जैसी हम कामना करते हैं, अन्तोतगत्वा उसी गति को प्राप्त करते हैं।
ReplyDeleteलेकिन असली परेशानी तो यही शुरू होती है सरजी अपनी..।
आप के सदवचनों से थोड़ा भी लाभ उठा सके तो खुद को धन्य मानेंगे।
अगली कड़ियों का भी इंतज़ार रहेगा।
राकेश साहब, आभार स्वीकार करें।
aaderniy rakesh ji
ReplyDeleteaap ke blog pe aake accha laga. aapke blog beshkimiti tathyon se bhara pura hai. aaj maine sirf aapki yahi rachna padhi kyoki bahut goodh in baaton ke sath koi jaldwaji nahi ki ja sakti hai. main bahut dino se adhytmik blog ki talas mein tha ..meri mansa puri hui..kripaya kuch aur adhytmik blogs ki jaankari dene ka kast karein jo aapke jaise hi maulik hon...aapne divya ji ke blog per meri kavya prastuti ko hridaya se saraha..main aapke prem purit shabdon aur bhabnaon ki tahe dil ijjat karta hoon..sadar pranam ke sath
kya kahun sita ji jag janni ma hai .aapke blog pr aake ganga nahane jaesa lagta hai .aap kitna gahan adhyan kar ke itni sunder baten late hain .hamara bhi kalyan hojata hai.
ReplyDeletesaader
rachana
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू
ReplyDelete--
राम का आदर्श और सीता माता का त्याग ही कलियुग से पार लगाने के लिए सबसे बड़ा सहारा है!
सार्थक अध्यात्मिक चिंतन आभार !
ReplyDeleteआध्यात्मिक चिंतन.. जितनी देर तक पढ़ता रहा, कम से कम दावे के साथ कह सकता हूं कि अच्छे काम में रहा। वरना तो मीडिया का आज क्या हाल है.. माशाल्लाह कुछ ना कहें तो ही ठीक.. वैसे
ReplyDeleteहर धर्म युद्ध में
विजय राम की होती है,
राज्य विभिषण को मिलता है,
मोक्ष मिलता है रावण को
और सत्यरूपी सीता को मिलती है
वनवास, अग्निपरीक्षा और जमीन में
समा जाना ।
आभार
very thought provoking...
ReplyDeleteइतनी सार्थक आध्यात्मिक पोस्ट कि कुछ कहते नहीं बनता ..बस यही कहूँगी कि मैं अपने मन में सीता जन्म की इच्छा चाहूंगी ..
ReplyDeleteअथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषी मयि स्थिरम
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुम धनञ्जय... नतमस्तक
अद्भुत! एक गहन विवेचन। बहुत कुछ सीखने को मिला।
ReplyDeleteसुंदर चिंतन ....सार्थक आध्यात्मिक पोस्ट !
ReplyDeleteइस चिन्तपरक लेख को पढ़ कर मन आनन्दित हो गया - बाह्यजगत से अंतर्जगत की ओर मुड़ जाने का सुख मिला .तदर्थ आभार !
ReplyDeleteआपके इस आलेख से अच्छी जानकारी मिली ....
ReplyDeleteहृदय स्थली में आत्मज्ञान के साथ साथ परमात्मा को पाने की सच्ची चाहत का उदय वास्तविक रूप से 'सीता जन्म' है....सच में आपके इस आध्यात्मिक चिंतनपरक लेख से मन आल्हादित हो गया ..साथ ही में ये सोचने पर विवास हो गया इतने समृद्ध आध्यात्मिक विरासत युक्त भारत वर्ष में बालिकाओं की इतनी उपेक्षा क्यों ..??
ReplyDeleteअंतर्जगत के सत्य से साक्षात्कार करने के लिए आभार....!!!
आप के चिंतन पूर्ण लेख बहुत ही अच्छे और शोधपरक हैं.
ReplyDeleteआप के इस नए लेख को पूरा पढ़कर अपनी राय जल्द ही देती हूँ.सादर
This post is such an insight !!
ReplyDeleteNice reading.
परमात्मा को पाने की 'इच्छा' अन्य सभी इच्छाओं का अपने में समन्वय और शांत करने में समर्थ है... this sentence has the hope, guidance for the way to the almighty... thanks so much! Desire is an interesting concept, it can ruin our life but if the desire is to know our creator, to please our creator, it may save this life and the life after this life.
ReplyDeleteमेरे सभी ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी के लिए शुक्रिया! सिर्फ़ प्यार का अहसास नहीं बल्कि आप सभी का आशीर्वाद है जिसके कारण मैं बेहतर लिख पा रही हूँ!
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा यहाँ आ कर | इस लिंक के लिए धन्यवाद |
ReplyDelete'कारण शरीर' हमारी स्वयं की वासनाओं से निर्मित है, जिसके कारण मृत्यु उपरांत हमें नवीन स्थूल व सूक्ष्म शरीरों की प्राप्ति होती है
ReplyDelete"अंतमता सो गता"
जीवन में आध्यात्मिक चिंतन का बहुत महत्व है ....हम किस लिए इस धरती पर आये हैं और हमारा क्या मंतव्य है ..इस समझ को प्राप्त करने के लिए चिरकाल से प्रयास किये जा रहे हैं जो कुछ भी हम समझ पाए उसका परिणाम यह है कि हम खुद के और ईश्वर के अस्तित्व के विषय में कुछ समझ पाए हैं ...सीता श्रद्धा का प्रतीक है और सीता रूपी श्रद्धा को जिसने ह्रदय में धारण कर लिया उसका जीवन सफल हो गया ....आपका बहुत बहुत आभार
सत्-चित-आनंद' को पाने की सर्वोतम और अति उत्कृष्ट चाहत ही है.
ReplyDeleteऐसी चाहत इस पृथ्वीलोक में अति दुर्लभ और अनमोल है,
ईश्वर कहाँ है ? अक्सर यह प्रश्न हमारे मन में कौंधता है ...लेकिन हम उसके वास्तविक स्वरूप को जानने की कभी भी कोशिश नहीं करते ? "सत- चित -आनंद" स्वरूप ईश्वर को हम कई तरह से परिभाषित करते हैं लेकिन अगर हमें इस आनंद को प्राप्त करना है तो हमें उससे जुड़ना होगा ...और फिर यह भी तो महत्वपूर्ण है कि "जाकि रही भावना जैसी प्रभ मूर्त तिन देखि तैसी" बहुत बहुत आभार इस चिंतन और दृष्टिकोण को हम सब के साथ साँझा करने के लिए ..!
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ReplyDeleteprabhu bhakti की pratimoorti seeta जी का charitr अत्यंत anukarneey है. seeta जी के jivan charitr से ek aadhyaatmik shaanti milti है. nisandeh unki kripa से ही aamjan को bhakti milegi , isliye हम पर unki kripa बन रहे. aapne इस adhyaam चिंतन में seeta जी के charitr को बखूबी उभारा है . इस अति उत्तम चिंतन के लिए साधुवाद.
net -connectivity poor होने के कारण , अशुद्ध hindi टाइपिंग के लिए खेद है.
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मेरा, आध्यात्मिक और धार्मिक बातो से वही रिश्ता है, जो सांप और नेवले का है.
ReplyDeleteपरन्तु, आपके इस आलेख पढ़ के मुझे लगा की जानकारी आध्यात्मिक बातो की भी रखनी चाहिए.
बहुत अच्छे तरह से प्रस्तुत किया है आपने, मैं नियमित रूप से आपके ब्लॉग का भ्रमण करूँगा.
very deeprooted thoughts with philosphical approach.I liked yrcontents very much. my heartly best wishes,
ReplyDeleteregards,
dr.bhoopendra singh
rewa
mp
bhinn prakar ki yoniyo me jane ke kaarno aur seeta janm par sampoorn adhyatmik gyan prapt hua. aabhar.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ज्ञानवर्धक संग्रहनीय आलेख
ReplyDeleteसुव्यवस्था सूत्रधार मंच-सामाजिक धार्मिक एवं भारतीयता के विचारों का साझा मंच..
ज्ञान का खजाना - आभार
ReplyDeleteआपका ब्लाग, शहर से गांव आने जैसा है.. शांत सुखमय निर्विकार
ReplyDeletebahut hi shandar blog hai aapka Rakesh ji...very heart touching spiritual thoughts !
ReplyDeletewell written
ReplyDelete'हृदय स्थली में आत्मज्ञान के साथ साथ परमात्मा को पाने की सच्ची चाहत का उदय हो , यही
ReplyDeleteवास्तविक रूप से 'सीता जन्म' है.ऐसी सच्ची चाहत ही निर्मल मन व बुद्धि प्रदान कर सकती है,
जिसके बिना परमात्मा को पाना असम्भव है.'
जानकी माँ के बारे में विस्तारित प्रवचन !
अत्यन्त उच्चकोटि का अध्ययन और चिंतन प्रस्तुत होता है आपकी इन पोस्ट में । आभार सहित...
ReplyDeleteबहुत ही उत्कृष्ट पोस्ट बधाई भाई राकेश जी
ReplyDeleteभाई राकेश जी!
ReplyDeleteअतृप्त इच्छा, वृत्ति, कारण शरीर और पुनर्जन्म की बहुत गहन व्याख्या की है आपने. अब सीता के जन्म के संबंध में प्रचलित मान्यताओं के साथ आप तालमेल कैसे बिठाएंगे इसके लिए आपकी अगली पोस्ट का इन्तजार करना होगा उम्मीद है यह इंतज़ार लंबा नहीं होगा.
आपकी तथ्यपरक पोस्ट आपके गहन चिंतन को सहज ही दर्शाती है.जहाँ गहन चिंतन होगा वहाँ कलम से रत्न और जवाहरात ही निकलेंगे.पाठकों को धनी कर दिया आपने.
ReplyDelete"हृदय स्थली में आत्मज्ञान के साथ साथ परमात्मा को पाने की सच्ची चाहत का उदय हो , यही
ReplyDeleteवास्तविक रूप से 'सीता जन्म' है.ऐसी सच्ची चाहत ही निर्मल मन व बुद्धि प्रदान कर सकती है,
जिसके बिना परमात्मा को पाना असम्भव है"....
बहुत सारगर्भित और मननीय आलेख. मन भक्तिमय हो गया..आभार
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू
ReplyDeleteअद्भुत !देर आई दुरुस्त आई !राकेश जी ..बहुत बढियां ..दिमाग को तरोताजा करके आना पड़ता हैं आपके ब्लॉग पर ??
परमात्मा की सच्ची चाहत, प्रेम या भक्ति पृथ्वी पुत्री 'सीता' जी ही है...नमन सीताजी को ......
आप के सदवचनों से थोड़ा भी लाभ उठा सका तो खुद को धन्य मानूंगा ।
ReplyDeleteअगली कड़ियों का भी इंतज़ार रहेगा।
मुग्ध कर देती है आपकी व्याख्या जिसे मुग्धा भाव से ही पढ़ा बांचा .कारण शरीर की निर्मिती की बेहतरीन व्याख्या आपने की है .हिंदी साहित्य से जन्मना अनुराग रहा है .विद्यार्थी बने हम विज्ञान के .लेकिन उसी से अनुराग में वृद्धि हुई जब दोनों का कलर कंट्रास्ट देखा .
ReplyDeleteमेरे सभी ब्लॉग पर आकर प्रोत्साहित करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद! मैं अगला रेसिपी खासकर आपके लिए शाकाहारी खाना पोस्ट करुँगी!
ReplyDeleteअनुपम, अद्बुत, बेनजीर
ReplyDeleteपढ़ कर हुआ पुलकित ,
सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर.
बहुत ही सुन्दर ज्ञानवर्द्धक और आदरणीय आलेख...धन्यवाद और बधाई
ReplyDeleteऐसी ज्ञानी महापुरुष को सादर नमन..!!!
ReplyDeleteभाई साहब सुरक्षा पटल पर ये भारत -माता कब तक द्रौपदी बनी रहेगी .क्या आइन्दा रोज़ मुंबई होंगें ?
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा पढ़कर....इतनी अच्छी व सार्थक पोस्ट के लिए आभार....
ReplyDeleteगुरुपूर्णिमा के पावन पर्व पर सभी मित्रों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ
ReplyDeleteहृदय स्थली में आत्मज्ञान के साथ साथ परमात्मा को पाने की सच्ची चाहत का उदय हो , यही वास्तविक रूप से 'सीता जन्म' है.ऐसी सच्ची चाहत ही निर्मल मन व बुद्धि प्रदान कर सकती है, जिसके बिना परमात्मा को पाना असम्भव है.
ReplyDeleteअत्यंत सुंदर और सटीक व्याख्या की है, आपकी सोच और खोज दोनों को नमन.
रामराम.
rakesh kumar ji ,apaka blog mere mann ki sari baaten shabadon mm bol raha hai ,aatama prasnan huyi sadhoowad
ReplyDeleteराकेश जी आपका चिंतन मेरी टिप्पणी की अनिवार्यता से अब मुक्त है...ये चिंतन उस वेग जैसा है जो सबको अपने साथ बहा कर आनंद के सागर में ले जाता है...जिस तरह सूरज के सामने दियासलाई जलाना है, वैसा ही आपके दर्शन पर मेरा कुछ कहना होगा....
ReplyDeleteजय हिंद...
राकेश जी इतने दिनों आपके ब्लॉग से वंचित रहा अपने को कोस रहा हूँ , बेहद जरूरी है आपका लेखन पढना , सारगर्भित सोच और सार्थक भी , बढ़ायी भी शुभकामनाये भी
ReplyDeleteराकेश कुमार जी,
ReplyDeleteनमस्कार,
आपके ब्लॉग को अपने लिंक को देखने के लिए कलिक करें / View your blog link "सिटी जलालाबाद डाट ब्लॉगपोस्ट डाट काम" के "हिंदी ब्लॉग लिस्ट पेज" पर लिंक किया जा रहा है|
आगे भी तो लिखते चलें...आपको चुप न रहने देंगे हम...
ReplyDeleteमैंने आपके लिए ख़ास शाकाहारी खाना पोस्ट किया है! http://khanamasala.blogspot.com/
ReplyDeleteअत्यंत सुंदर और सटीक व्याख्या की है...
ReplyDeleteज्ञान का भण्डार है आपकी यह प्रस्तुति ।
ReplyDeleteहृदय स्थली में आत्मज्ञान के साथ साथ परमात्मा को पाने की सच्ची चाहत का उदय हो , यही
ReplyDeleteवास्तविक रूप से 'सीता जन्म' है.ऐसी सच्ची चाहत ही निर्मल मन व बुद्धि प्रदान कर सकती है,
जिसके बिना परमात्मा को पाना असम्भव है.
bahut achha likha hai aapne.
shubhkamnayen
सार्थक विवेचना की है आपने. स्वागत.
ReplyDeleteचाहत यदि सांसारिक है तो संसार में रमण होगा. पर चाहत परमात्मा को पाने की हो तो परमात्मा से
ReplyDeleteमिलन होगा.इसलिये अपनी चाहतों के प्रति हमें अत्यंत जागरूक व सावधान रहना चाहिये.किसी भी
चाहत को विचार द्वारा पोषित किया जा सकता है.विचार द्वारा ही चाहत का शमन भी किया जा सकता है.
यदि चाहत सच्ची और प्रगाढ़ हो तो अवश्य पूरी होती है.गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में
सच्ची चाहत और स्नेह के बारे में लिखते हैं:-
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू
kitni gahri aur sachchi hai ye baate ,sach saarthak vivechna ki hai aapne .samarpan bhav hi nischhal prem ka aadhaar hai .jahan paane se adhik dene ki chahat aur koshish ho .
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteमन कई कारणों से विचलित हुआ जा रहा था. अब बड़ी शांति मिली. आभार उत्कृष्ट लेखन के इए.
ReplyDeleteमन आनन्द से भर गया। सार्थक पोस्ट्\शुभ्कामनायें।
ReplyDeleteसीता राम चरित अति पावन ।
ReplyDelete"वासनारूप होकर जब चाहत अंत:करण में वास करने लगती
ReplyDeleteहै तो हमारे 'कारण शरीर' का भी निर्माण करती रहती है।" वाह राकेश जी, यह अद्भुत लेख है, पढकर मन और मस्तिष्क के सारे दरवाजे एक-एक कर खुलते जा रहे हैं। यह मेरा दुर्भाग्य ही था कि आपके आमंत्रण के उपरांत भी मैं आपके लेख को पढने से वंचित रह रहा था। आगे से घ्यान रखूँगा - अब लौ नसानी, पर अब ना नसैह्यों।
सुन्दर सत्संग में सम्मिलित हो हृदय भाव विभोर है!
ReplyDeleteआह....
ReplyDeleteअनुपम !!!!
.यदि वासनाएं सतो गुणी हैं अर्थात विवेक,ज्ञान और प्रकाश की
ReplyDeleteओर उन्मुख हैं तो 'देव योनि ' की प्राप्ति हो सकती है.
bhut hi achi jankari.
जय श्री राम!
ReplyDeleteजय जानकी माता!
उत्तम पोस्ट!
आपका लेखन बहुत ही गूढ़ है ..रहस्य छिपे हैं इसमें..
ReplyDelete