ऊँ ........................... ऊँ ........................... ऊँ ...........................
ऊँ सहनाववतु l सहनौभुनक्तु
सहवीर्यं करवावहै l तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्धिषावहै l l
अखण्डमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् l
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नम: l l
ऊँ पार्थाय प्रतिबोधितां भगवता नारायणेन स्वयं
व्यासेन-ग्रथितां पुराण मुनिना मध्ये महाभारतम् l
अद्धैतामृतवर्षिणीम् भगवतीमष्टादशाध्यायिनीम्
अम्ब त्वामनुसंदधामि भगवद्गीते भवद्वेषनीम् l l
वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूर मर्द्नम् l
देवकी परमानन्दम् कृष्णं वन्दे जगत्गुरुम् l l
हमारे यहाँ प्रत्येक मंगलवार को सांय ७ बजे से ८ बजे के मध्य उपरोक्त मंत्रोच्चारण के साथ व
३ मिनट तक ईश्वर ध्यान उपरान्त गीता गोष्ठी का शुभारम्भ होता है.
सर्वप्रथम ईश्वर क्या है इसका चिंतन हमें करना चाहिये.
हम सभी जीवन में आनन्द चाहते हैं. दुःख के चिंतन से आनन्द की अनुभूति नही हो सकती है.
आनन्द की अनुभूति के लिए आनन्द का चिंतन करना परमावश्यक है.
आनन्द में भी आनन्द की सर्वश्रेष्ठ श्रेणी का ही चिंतन होना चाहिये.तभी हमारा चिंतन सार्थक हो सकता है.
आनन्द की सर्वश्रेष्ठ श्रेणी में ऐसा आनन्द नही हो सकता जो समय से बाधित हो,अल्पकालीन हो.,
जिसका समय के साथ कभी अंत होता हो या जो हमारी चेतना को कम करनेवाला हो.
विषयों से प्राप्त आनन्द अल्पकालीन तो हो सकता है,परन्तु सर्वश्रेष्ठ श्रेणी का नही.
विषयों से प्राप्त आनन्द वास्तव में चेतना को विलुप्त करता है और अंततः दुःख प्रदान कराने वाला होता है,जो मृगमरीचिका की तरह जीवनभर भटकाता ही रहता है.
विषयों से प्राप्त आनन्द अल्पकालीन तो हो सकता है,परन्तु सर्वश्रेष्ठ श्रेणी का नही.
विषयों से प्राप्त आनन्द वास्तव में चेतना को विलुप्त करता है और अंततः दुःख प्रदान कराने वाला होता है,जो मृगमरीचिका की तरह जीवनभर भटकाता ही रहता है.
आनन्द की सर्वश्रेष्ठ श्रेणी का आनन्द केवल 'सत् - चित् - आनन्द' ही हो सकता है.जिसके आश्रय
में हम सदा आनन्दित रह सकते हैं.
में हम सदा आनन्दित रह सकते हैं.
सत् यानि हमेशा हमेशा (for ever), चित् यानि चेतनायुक्त अथवा चेतनापूर्ण- जिससे निरंतर चेतना
मिलती हो व हमारी चेतना का विकास होता हो . ऐसे सत् चित् युक्त आनन्द को 'सत्- चित् -आनन्द' या सच्चिदानन्द कहते है.
हमारे शास्त्रों में सच्चिदानन्द को ही ईश्वर या ब्रह्म नाम से बताया गया है.
जिस प्रकार से विभिन्न विषयों की जानकारी के लिए उन उन विषय पर प्रमाणिक ग्रंथों का
अध्ययन आवश्यक है. जैसे भौतिक विज्ञान की जानकारी के लिए भौतिक शास्त्र है ,गणित की
जानकारी के लिए गणित शास्त्र है ,इसी प्रकार 'सत् - चित् - आनन्द' की जानकारी के लिए
श्रीमद्भगवद्गीता भी एक शास्त्र है.
श्रीमद्भगवद्गीता 'ब्रह्म विद्या' को जनाने वाला ग्रन्थ है.यह ब्रह्म यानि सत्- चित् -आनन्द के
ज्ञान कराने के साथ साथ सत्--चित्-आनन्द से हमें जोड़ती भी है.इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता
को 'योग शास्त्र' भी कहते हैं. श्रीमद्भगवद्गीताके ज्ञानामृत रुपी दुग्ध पान से हमारा अंत:करण निरंतर पुष्ट होता है और अंततः जो हमें अद्द्वैत का बोध करादे यानि हममें व सच्चिदानंद में कोई भेद ही न रह जाये ऐसा योग करा दे ,उसको यदि हम 'अम्ब' या 'माँ' पुकारें तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी.भगवद्गीता में कुल १८ अध्याय है. प्रत्येक अध्याय एक 'योग' के रूप में वर्णित है.इसलिए भवद्वेष यानि negativity के निवारण के लिए और positive अंत:करण के विकास के लिए यानि सच्चिदानन्द से योग के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के १८ (अष्टा दश ) अध्यायों का निरंतर अनुसंधान करना ही चाहिये .
अत : उपरोक्त मंत्रोच्चारण में निम्नलिखित पंक्तियों का स्मरण करते हुए हम सभी मिल कर श्रीमद्भगवद्गीता का अध्ययन,मनन और चिंतन करने का पुनः पुनःप्रयास करते रहेंगें.
अद्धैतामृतवर्षिणीम् भगवतीमष्टादशाध्यायिनीम्
अम्ब त्वामनुसंदधामि भगवद्गीते भवद्वेषनीम् l l