चाहत या आरजू का जीवन में बहुत महत्व है.हमारी अनेक प्रकार की चाहतें हो सकतीं हैं, जो जीवन
के स्वरुप को बदलने में सक्षम हैं. वासनारूप होकर जब चाहत अंत:करण में वास करने लगती
है तो हमारे 'कारण शरीर' का भी निर्माण करती रहती है.
'कारण शरीर' हमारी स्वयं की वासनाओं से निर्मित है, जिसके कारण मृत्यु उपरांत हमें नवीन स्थूल
व सूक्ष्म शरीरों की प्राप्ति होती है.यदि वासनाएं सतो गुणी हैं अर्थात विवेक,ज्ञान और प्रकाश की
ओर उन्मुख हैं तो 'देव योनि ' की प्राप्ति हो सकती है. यदि रजो गुणी अर्थात अत्यंत क्रियाशीलता,
चंचलता और महत्वकांक्षा से ग्रस्त हैं तो साधारण 'मनुष्य योनि'. की और यदि तमो गुणी अर्थात
अज्ञान,प्रमाद हिंसा आदि से ग्रस्त हैं तो 'निम्न' पशु,पक्षी, कीट-पतंग आदि की 'योनि'प्राप्त हो
सकती है. इस प्रकार विभिन्न प्रकार की वासनाओं से विभिन्न प्रकार की योनि प्राप्त हो
सकती है. जो हमारे शास्त्रों अनुसार ८४ लाख बतलाई गई हैं.
उदहारण स्वरुप यदि किसी की चाहत यह हो कि जिससे उसको कुछ मिलता है ,उसको वह स्वामी
मानने लगे और उसकी चापलूसी करे,कुत्ते की तरहं उसके आगे पीछे दुम हिलाए. जिससे उसको
नफरत हो या जो उसे पसंद न आये, उसपर वह जोर का गुस्सा करे ,कुत्ते की तरह भौंके और जब
यह चाहत'उसकी अन्य चाहतों से सर्वोपरि होकर उसके अंत:करण में प्रविष्ट हो वासना रूप में उसके
'कारण शरीर' का निर्माण करे ,तो उस व्यक्ति को अपनी ऐसी चाहत की पूर्ति के लिए 'कुत्ता योनि'
में भी जन्म लेना पड़ सकता है. इसी प्रकार जो बात-बिना बात अपनी अपनी कहता रहें यानि बस
टर्र टर्र ही करे ,मेंडक की तरह कुलांचें भी भरे तो वह 'मेंडक' बन सकता है..क्योंकि ऐसी वासनायें
अज्ञान ,प्रमाद से ग्रस्त होने के कारण 'तमो गुणी' ही है जो पशु योनि की कारक है.
चाहत यदि सांसारिक है तो संसार में रमण होगा. पर चाहत परमात्मा को पाने की हो तो परमात्मा से
मिलन होगा.इसलिये अपनी चाहतों के प्रति हमें अत्यंत जागरूक व सावधान रहना चाहिये.किसी भी
चाहत को विचार द्वारा पोषित किया जा सकता है.विचार द्वारा ही चाहत का शमन भी किया जा सकता है.
यदि चाहत सच्ची और प्रगाढ़ हो तो अवश्य पूरी होती है.गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में
सच्ची चाहत और स्नेह के बारे में लिखते हैं:-
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू
वास्तव में 'सीता जी' का स्वरुप रामचरितमानस व अन्य ग्रंथों में प्रभु श्री राम की 'भक्ति' स्वरूपा
माना गया है.जो राम अर्थात 'सत्-चित-आनंद' को पाने की सर्वोतम और अति उत्कृष्ट चाहत ही है.
ऐसी चाहत इस पृथ्वीलोक में अति दुर्लभ और अनमोल है, जो मनुष्य को सभी वासनाओं से मुक्त
कर उसके 'कारण शरीर' का अंत कर सत्-चित-आनंद' परमात्मा से मिलन कराने में समर्थ है.
भगवान कृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १२ (भक्ति योग ) के श्लोक ९ में कहते हैं
अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषी मयि स्थिरम
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुम धनञ्जय
यदि तू अपने मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! तू अभ्यास रूप
योग के द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए 'इच्छा' कर.
परमात्मा को पाने की 'इच्छा' अन्य सभी इच्छाओं का अपने में समन्वय और शांत करने में समर्थ है,
जो गंगा की तरह अन्ततः परमात्मा रुपी समुन्द्र में मिल जाती है.इसीलिए अभ्यासयोग (परमात्मा
का मनन,जप,ध्यान आदि) बिना परमात्मा की प्राप्ति की सच्ची इच्छा के अधूरा ही है.परमात्मा को पाने के
लिए अभ्यासयोग के साथ साथ बुद्धि के सद् विचार द्वारा ऐसी चाहत का ही निरंतर पोषण करते
रहना चाहिये.
परमात्मा की सच्ची चाहत, प्रेम या भक्ति पृथ्वी पुत्री 'सीता' जी ही है. जिन्हें 'आत्मज्ञानी' विदेह
जनक जी ने भी अपनी पुत्री के रूप में अपनाया ,जो करुणा निधान परमात्मा को अत्यंत प्रिय है.ऐसी
भक्ति स्वरूपा जानकी जी जगत की जननी हैं ,क्यूंकि सभी चाहतों का इनमें विलय हो जाता है. उन्हीं के
चरण कमलों को मनाते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी निवेदन करते हैं कि वे (जानकी जी) उन्हें
निर्मल सद् बुद्धि प्रदान करें , जो प्रभु 'सत्-चित-आनंद' की प्राप्ति कराने में सहायक हो.
जनकसुता जग जननि जानकी,अतिशय प्रिय करुनानिधान की
ताके जुग पद कमल मनावऊँ, जासु कृपा निरमल मति पावउँ
हृदय स्थली में आत्मज्ञान के साथ साथ परमात्मा को पाने की सच्ची चाहत का उदय हो , यही
वास्तविक रूप से 'सीता जन्म' है.ऐसी सच्ची चाहत ही निर्मल मन व बुद्धि प्रदान कर सकती है,
जिसके बिना परमात्मा को पाना असम्भव है.
'सीता' जी सर्व श्रेय व कल्याण करने वालीं हैं. अगली पोस्ट में 'सीता' जी के स्वरुप का हम और भी
मनन व चिंतन करेंगें.
के स्वरुप को बदलने में सक्षम हैं. वासनारूप होकर जब चाहत अंत:करण में वास करने लगती
है तो हमारे 'कारण शरीर' का भी निर्माण करती रहती है.
'कारण शरीर' हमारी स्वयं की वासनाओं से निर्मित है, जिसके कारण मृत्यु उपरांत हमें नवीन स्थूल
व सूक्ष्म शरीरों की प्राप्ति होती है.यदि वासनाएं सतो गुणी हैं अर्थात विवेक,ज्ञान और प्रकाश की
ओर उन्मुख हैं तो 'देव योनि ' की प्राप्ति हो सकती है. यदि रजो गुणी अर्थात अत्यंत क्रियाशीलता,
चंचलता और महत्वकांक्षा से ग्रस्त हैं तो साधारण 'मनुष्य योनि'. की और यदि तमो गुणी अर्थात
अज्ञान,प्रमाद हिंसा आदि से ग्रस्त हैं तो 'निम्न' पशु,पक्षी, कीट-पतंग आदि की 'योनि'प्राप्त हो
सकती है. इस प्रकार विभिन्न प्रकार की वासनाओं से विभिन्न प्रकार की योनि प्राप्त हो
सकती है. जो हमारे शास्त्रों अनुसार ८४ लाख बतलाई गई हैं.
उदहारण स्वरुप यदि किसी की चाहत यह हो कि जिससे उसको कुछ मिलता है ,उसको वह स्वामी
मानने लगे और उसकी चापलूसी करे,कुत्ते की तरहं उसके आगे पीछे दुम हिलाए. जिससे उसको
नफरत हो या जो उसे पसंद न आये, उसपर वह जोर का गुस्सा करे ,कुत्ते की तरह भौंके और जब
यह चाहत'उसकी अन्य चाहतों से सर्वोपरि होकर उसके अंत:करण में प्रविष्ट हो वासना रूप में उसके
'कारण शरीर' का निर्माण करे ,तो उस व्यक्ति को अपनी ऐसी चाहत की पूर्ति के लिए 'कुत्ता योनि'
में भी जन्म लेना पड़ सकता है. इसी प्रकार जो बात-बिना बात अपनी अपनी कहता रहें यानि बस
टर्र टर्र ही करे ,मेंडक की तरह कुलांचें भी भरे तो वह 'मेंडक' बन सकता है..क्योंकि ऐसी वासनायें
अज्ञान ,प्रमाद से ग्रस्त होने के कारण 'तमो गुणी' ही है जो पशु योनि की कारक है.
चाहत यदि सांसारिक है तो संसार में रमण होगा. पर चाहत परमात्मा को पाने की हो तो परमात्मा से
मिलन होगा.इसलिये अपनी चाहतों के प्रति हमें अत्यंत जागरूक व सावधान रहना चाहिये.किसी भी
चाहत को विचार द्वारा पोषित किया जा सकता है.विचार द्वारा ही चाहत का शमन भी किया जा सकता है.
यदि चाहत सच्ची और प्रगाढ़ हो तो अवश्य पूरी होती है.गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में
सच्ची चाहत और स्नेह के बारे में लिखते हैं:-
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू
वास्तव में 'सीता जी' का स्वरुप रामचरितमानस व अन्य ग्रंथों में प्रभु श्री राम की 'भक्ति' स्वरूपा
माना गया है.जो राम अर्थात 'सत्-चित-आनंद' को पाने की सर्वोतम और अति उत्कृष्ट चाहत ही है.
ऐसी चाहत इस पृथ्वीलोक में अति दुर्लभ और अनमोल है, जो मनुष्य को सभी वासनाओं से मुक्त
कर उसके 'कारण शरीर' का अंत कर सत्-चित-आनंद' परमात्मा से मिलन कराने में समर्थ है.
भगवान कृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १२ (भक्ति योग ) के श्लोक ९ में कहते हैं
अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषी मयि स्थिरम
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुम धनञ्जय
यदि तू अपने मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! तू अभ्यास रूप
योग के द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए 'इच्छा' कर.
परमात्मा को पाने की 'इच्छा' अन्य सभी इच्छाओं का अपने में समन्वय और शांत करने में समर्थ है,
जो गंगा की तरह अन्ततः परमात्मा रुपी समुन्द्र में मिल जाती है.इसीलिए अभ्यासयोग (परमात्मा
का मनन,जप,ध्यान आदि) बिना परमात्मा की प्राप्ति की सच्ची इच्छा के अधूरा ही है.परमात्मा को पाने के
लिए अभ्यासयोग के साथ साथ बुद्धि के सद् विचार द्वारा ऐसी चाहत का ही निरंतर पोषण करते
रहना चाहिये.
परमात्मा की सच्ची चाहत, प्रेम या भक्ति पृथ्वी पुत्री 'सीता' जी ही है. जिन्हें 'आत्मज्ञानी' विदेह
जनक जी ने भी अपनी पुत्री के रूप में अपनाया ,जो करुणा निधान परमात्मा को अत्यंत प्रिय है.ऐसी
भक्ति स्वरूपा जानकी जी जगत की जननी हैं ,क्यूंकि सभी चाहतों का इनमें विलय हो जाता है. उन्हीं के
चरण कमलों को मनाते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी निवेदन करते हैं कि वे (जानकी जी) उन्हें
निर्मल सद् बुद्धि प्रदान करें , जो प्रभु 'सत्-चित-आनंद' की प्राप्ति कराने में सहायक हो.
जनकसुता जग जननि जानकी,अतिशय प्रिय करुनानिधान की
ताके जुग पद कमल मनावऊँ, जासु कृपा निरमल मति पावउँ
हृदय स्थली में आत्मज्ञान के साथ साथ परमात्मा को पाने की सच्ची चाहत का उदय हो , यही
वास्तविक रूप से 'सीता जन्म' है.ऐसी सच्ची चाहत ही निर्मल मन व बुद्धि प्रदान कर सकती है,
जिसके बिना परमात्मा को पाना असम्भव है.
'सीता' जी सर्व श्रेय व कल्याण करने वालीं हैं. अगली पोस्ट में 'सीता' जी के स्वरुप का हम और भी
मनन व चिंतन करेंगें.