मन में श्रद्धा के 'जोश' और बुद्धि में विश्वास के 'होश' से 'भवानी और शिव' की कृपा होने लगती है.
भक्त वही है जो परम आनंद से ,परम शान्ति और संतुष्टि से मन और बुद्धि के माध्यम से किसी
भी प्रकार से हृदय में स्थित परमात्मा से जुड जाये. जो नहीं जुड पाता वह 'विभक्त' है, खंडित है,
अशांत और अस्थिर है. श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ४ श्लोक ३९ में वर्णित है
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय
ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छ्ती
अर्थात जो श्रद्धावान है, तत्पर है ,साधनपरायण है और इन्द्रियों को संयत करता है,उसी को परमात्मा या
परमानन्द का ज्ञान भी प्राप्त होता है,जिसको प्राप्त कर वह अति शीघ्र परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है.
और जो विवेकहीन ,श्रद्धारहित व संशय युक्त है उनके लिए श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित किया गया है
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति
नायं लोकोSस्ति न परो न सुखं संशयात्मन :
विवेकहीन , श्रद्धा रहित और संशय युक्त मनुष्य परमार्थ को नहीं पा सकता . वह अवश्य ही नष्ट
भ्रष्ट हो जाता है. ऐसे संशय युक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न ही सुख है.
यूँ तो परमात्मा और परमानन्द से अनेक प्रकार से जुड़ा जा सकता है,परन्तु ,शास्त्रों में मुख्य रूप
से चार प्रकार के भक्त बताये गए हैं जो मन और बुद्धि में श्रद्धा और विश्वास उपार्जित करते हुए
परमात्मा से जुडने का प्रयत्न करते हैं. श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं:-
राम भगत जग चारि प्रकारा , सुकृति चारिउ अनघ उदारा.
चहू चतुर कहू नाम अधारा , ज्ञानी प्रभुहि बिसेष पिआरा
जग में राम के भक्त चार प्रकार के होते हैं.चारों ही पुण्यात्मा,पापरहित और उदार हैं.चारों ही चतुर हैं
जिनको परमात्मा के नाम जप का आधार है.इन चारों प्रकार के भक्तों में 'ज्ञानी' भक्त प्रभु को
विशेष प्यारा है. श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ श्लोक १६ में इन चार प्रकार के भक्तों को निम्न
प्रकार से वर्णित किया गया है:-
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करनेवाले मुनष्य मुझे चार प्रकार से भजते हैं.
अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी.
आईये, उपरोक्त चार प्रकार के भक्तों को कुछ और विस्तार से जानने का प्रयत्न करते है,
१)अर्थार्थी भक्त: ऐसा भक्त जिसको परमात्मा में यह श्रद्धा और विश्वास है कि परमात्मा ही उसकी
हर मनोकामना पूर्ण करने में समर्थ है.यद्धपि वह भी सद् कर्म करता रहता है,परन्तु
भक्ति करते हुए उसका उद्देश्य अपने अर्थ यानि कामना की पूर्ति की तरफ रहता है.
इसीलिए यह भक्त अर्थार्थी कहलाता है. यानि मतलब सिद्ध करने के लिए भक्ति.
अर्थार्थी भक्ति, भक्ति की प्रारंभिक अवस्था मानी जा सकती है,जिसमे भक्त का
परमात्मा के प्रति ज्ञान अति अल्प है,परन्तु,उसको परमात्मा में श्रद्धा है.
२) जिज्ञासु भक्त: ऐसा भक्त जिसकी जब मनोकामनाएं पूर्ण होने लगतीं हैं,या किसी भी अन्य कारण
से जब उसके हृदय में परमात्मा को जानने की यह तीव्र अभिलाषा व उत्कंठा जाग्रत व
बलवती हो जाती है कि जो परमात्मा समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करता है,जिसने यह
चराचर जगत बनाया है,वह कौन है, कैसा है, उसका स्वरुप क्या है,तभी वह सत्संग,
सद् शास्त्रों ,संतजनों का आश्रय ग्रहण कर परमात्मा को जानने का सुप्रयत्न करता है.
३) आर्त भक्त : ऐसा भक्त जिसने जीवन में बहुत दुःख और कष्ट पाए हैं.संकटों में घिरा होने के कारण
अति कातर,दीन और आर्त होकर भगवान से जुड जाता है.उसे पूरी श्रद्धा और विश्वास है
कि परमात्मा ही उसके कष्टों का निवारण कर सकते है. उसका विश्वास और सभी ओर से
उठ चुका होता है.जैसे पौराणिक महाभारत की कथानुसार चीर-हरण के समय द्रौपदी
ने आर्त होकर 'श्रीकृष्ण' को पुकारा था.
४) ज्ञानी भक्त: ऐसा भक्त जिसे परमात्मा के सम्बन्ध में सम्पूर्ण तत्व-बोध हो जाता है,सम्यक ज्ञान
हो जाता है,उसकी कोई जिज्ञासा बाकी नहीं रहती.जिसकी अपनी कोई भी मनोकामना
नहीं रहती.जो परमात्मा को आनंद और प्रेम स्वरुप जानकर नित्ययुक्त हो प्रेमानन्द
में ही मग्न रहता है,पूर्ण तृप्त और परम शान्ति को पा चुका होता है.जिसका अंत:करण
इतना सबल और सुस्थिर हो जाता है कि सुख - दुःख उसके लिए कोई माने नहीं रखते.
चारों प्रकार के भक्तों में,ज्ञानी भक्त के विषय में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ के श्लोक १७ व १८ में
कहा गया है:-
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिश्यते
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:
उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्
उनमें ( चारों प्रकार के भक्तों में ) मुझे में एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति
उत्तम है, क्यूंकि मुझको तत्व से जाननेवाले ज्ञानी को मैं अत्यंत प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यंत
प्रिय है. ये (चारों) भक्त उदार हैं, परन्तु ज्ञानी तो साक्षात मेरा स्वरुप ही है,ऐसा मेरा मत है. क्यूंकि ज्ञानी
की गति केवल मेरे में ही है,मेरे में ही वह मन ,प्राण और बुद्धि को लगाये रखता है.उत्तम गतिस्वरूप
ज्ञानी भक्त मुझमें ही अच्छी प्रकार से स्थित है,यानि वह भी आनंदस्वरूप ही है.
जब हम बिना मन और बुद्धि को परमात्मा में लगाए ,बिना श्रद्धा और विश्वास के परमात्मा की
भक्ति का ढोंग करते हैं,ढोंगी का भेष धारण करते हैं तो श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार मिथ्याचारी
कहलाते है.आज समाज में अधिकतर मिथ्याचारियों का ही बोलबाला है. जिससे आम बुद्धिजीवी
का विश्वास संतों से ही नहीं ,परमात्मा तक से भी उठता चला जा रहा है.बुद्धिमान ढोंगी के भेष
और सच्ची भक्ति का अंतर समझ जाते है,कहा गया है ;
भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित होय
भक्ति जु न्यारी भेष से , यह जानै सब कोय
मिथ्याचार को छोड़ कर यदि हम उपरोक्त चार प्रकार के भक्तों के बारे में सही प्रकार से जाने तो
हम यह तय कर सकते हैं कि अभी हमारी भक्ति किस स्तर की है.भक्त बनने से पहले हमें हर हालत
में सुकृत तो करने ही होंगें. बिना सुकृत किये हम किसी प्रकार से भी भक्त कहलाये जाने के अधिकारी
नहीं हो सकते हैं.
यदि हम अभी अर्थार्थी या आर्त भक्त की श्रेणी में हैं तो परमात्मा को जानने की तीव्र उत्कंठा जगाकर
जिज्ञासु बनने का प्रयत्न भी कर सकते हैं.जिज्ञासु भक्त ही एक न एक दिन राम कृपा से ज्ञानी भक्त
हो जायेगा इस विश्वास से जीवन में आगे बढ़ने का प्रयत्न करें तो ही जीवन का वास्तविक सदुपयोग है
संत कबीरदास जी कहते हैं:-
भक्ति बीज पलटे नहीं ,जो जुग जाये अनन्त
ऊँच नीच घर अवतरै, होय संत का संत
अर्थात की हुई भक्ति का बीज कभी भी निष्फल नहीं होता. चाहे अनन्त युग बीत जाएँ ,भक्तिमान जीव
ऊँच नीच माने गए चाहे किसी भी वर्ण या जाति में उत्पन्न हो,प्रारब्ध वश चाहे किसी भी योनि में उसे जाना
पड़े पर अंततः वह संत ही रहता है. उसका अंत हमेशा अच्छा ही होता है.अर्थात उसकी परम गति हो
उसे परमानन्द की प्राप्ति होकर रहती है.
सीता जन्म आध्यात्मिक चिंतन की पिछली तीनों पोस्टों पर आप सुधिजनों द्वारा की गई टिप्पणियों
से हृदय में इस आशा और विश्वास का सुखद संचार होता है कि हम सभी मिथ्याचार को छोड़कर अपने
हृदय में भक्ति जिज्ञासा की जोत प्रज्जवलित करने में जरूर जरूर सफल होंगें.
यह पोस्ट भी कुछ लंबी हो गई है.इसलिये इस बार बस यहीं समाप्त करता हूँ.आप सुधिजनों ने मेरी
इस लंबी पोस्ट को पढ़ने का जो कष्ट उठाया है ,इसके लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूँ.मैं आप सभी
से यह भी अनुरोध करूँगा कि विषय को भली प्रकार से समझने के लिए आप समय मिलने पर मेरी
पिछली पोस्टों का अवलोकन भी जरूर करते रहें.
अगली पोस्ट में, यदि हो सका तो नाम जप और 'सीता लीला' पर कुछ और आध्यात्मिक चिंतन
करने की कोशिश करूँगा. आशा है आप सब सुधिजन अपने सुविचारों को प्रकट कर मेरा उत्साह
वर्धन करते रहेंगें.
भक्त वही है जो परम आनंद से ,परम शान्ति और संतुष्टि से मन और बुद्धि के माध्यम से किसी
भी प्रकार से हृदय में स्थित परमात्मा से जुड जाये. जो नहीं जुड पाता वह 'विभक्त' है, खंडित है,
अशांत और अस्थिर है. श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ४ श्लोक ३९ में वर्णित है
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय
ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छ्ती
अर्थात जो श्रद्धावान है, तत्पर है ,साधनपरायण है और इन्द्रियों को संयत करता है,उसी को परमात्मा या
परमानन्द का ज्ञान भी प्राप्त होता है,जिसको प्राप्त कर वह अति शीघ्र परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है.
और जो विवेकहीन ,श्रद्धारहित व संशय युक्त है उनके लिए श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित किया गया है
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति
नायं लोकोSस्ति न परो न सुखं संशयात्मन :
विवेकहीन , श्रद्धा रहित और संशय युक्त मनुष्य परमार्थ को नहीं पा सकता . वह अवश्य ही नष्ट
भ्रष्ट हो जाता है. ऐसे संशय युक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न ही सुख है.
यूँ तो परमात्मा और परमानन्द से अनेक प्रकार से जुड़ा जा सकता है,परन्तु ,शास्त्रों में मुख्य रूप
से चार प्रकार के भक्त बताये गए हैं जो मन और बुद्धि में श्रद्धा और विश्वास उपार्जित करते हुए
परमात्मा से जुडने का प्रयत्न करते हैं. श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं:-
राम भगत जग चारि प्रकारा , सुकृति चारिउ अनघ उदारा.
चहू चतुर कहू नाम अधारा , ज्ञानी प्रभुहि बिसेष पिआरा
जग में राम के भक्त चार प्रकार के होते हैं.चारों ही पुण्यात्मा,पापरहित और उदार हैं.चारों ही चतुर हैं
जिनको परमात्मा के नाम जप का आधार है.इन चारों प्रकार के भक्तों में 'ज्ञानी' भक्त प्रभु को
विशेष प्यारा है. श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ श्लोक १६ में इन चार प्रकार के भक्तों को निम्न
प्रकार से वर्णित किया गया है:-
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करनेवाले मुनष्य मुझे चार प्रकार से भजते हैं.
अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी.
आईये, उपरोक्त चार प्रकार के भक्तों को कुछ और विस्तार से जानने का प्रयत्न करते है,
१)अर्थार्थी भक्त: ऐसा भक्त जिसको परमात्मा में यह श्रद्धा और विश्वास है कि परमात्मा ही उसकी
हर मनोकामना पूर्ण करने में समर्थ है.यद्धपि वह भी सद् कर्म करता रहता है,परन्तु
भक्ति करते हुए उसका उद्देश्य अपने अर्थ यानि कामना की पूर्ति की तरफ रहता है.
इसीलिए यह भक्त अर्थार्थी कहलाता है. यानि मतलब सिद्ध करने के लिए भक्ति.
अर्थार्थी भक्ति, भक्ति की प्रारंभिक अवस्था मानी जा सकती है,जिसमे भक्त का
परमात्मा के प्रति ज्ञान अति अल्प है,परन्तु,उसको परमात्मा में श्रद्धा है.
२) जिज्ञासु भक्त: ऐसा भक्त जिसकी जब मनोकामनाएं पूर्ण होने लगतीं हैं,या किसी भी अन्य कारण
से जब उसके हृदय में परमात्मा को जानने की यह तीव्र अभिलाषा व उत्कंठा जाग्रत व
बलवती हो जाती है कि जो परमात्मा समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करता है,जिसने यह
चराचर जगत बनाया है,वह कौन है, कैसा है, उसका स्वरुप क्या है,तभी वह सत्संग,
सद् शास्त्रों ,संतजनों का आश्रय ग्रहण कर परमात्मा को जानने का सुप्रयत्न करता है.
३) आर्त भक्त : ऐसा भक्त जिसने जीवन में बहुत दुःख और कष्ट पाए हैं.संकटों में घिरा होने के कारण
अति कातर,दीन और आर्त होकर भगवान से जुड जाता है.उसे पूरी श्रद्धा और विश्वास है
कि परमात्मा ही उसके कष्टों का निवारण कर सकते है. उसका विश्वास और सभी ओर से
उठ चुका होता है.जैसे पौराणिक महाभारत की कथानुसार चीर-हरण के समय द्रौपदी
ने आर्त होकर 'श्रीकृष्ण' को पुकारा था.
४) ज्ञानी भक्त: ऐसा भक्त जिसे परमात्मा के सम्बन्ध में सम्पूर्ण तत्व-बोध हो जाता है,सम्यक ज्ञान
हो जाता है,उसकी कोई जिज्ञासा बाकी नहीं रहती.जिसकी अपनी कोई भी मनोकामना
नहीं रहती.जो परमात्मा को आनंद और प्रेम स्वरुप जानकर नित्ययुक्त हो प्रेमानन्द
में ही मग्न रहता है,पूर्ण तृप्त और परम शान्ति को पा चुका होता है.जिसका अंत:करण
इतना सबल और सुस्थिर हो जाता है कि सुख - दुःख उसके लिए कोई माने नहीं रखते.
चारों प्रकार के भक्तों में,ज्ञानी भक्त के विषय में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ के श्लोक १७ व १८ में
कहा गया है:-
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिश्यते
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:
उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्
उनमें ( चारों प्रकार के भक्तों में ) मुझे में एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति
उत्तम है, क्यूंकि मुझको तत्व से जाननेवाले ज्ञानी को मैं अत्यंत प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यंत
प्रिय है. ये (चारों) भक्त उदार हैं, परन्तु ज्ञानी तो साक्षात मेरा स्वरुप ही है,ऐसा मेरा मत है. क्यूंकि ज्ञानी
की गति केवल मेरे में ही है,मेरे में ही वह मन ,प्राण और बुद्धि को लगाये रखता है.उत्तम गतिस्वरूप
ज्ञानी भक्त मुझमें ही अच्छी प्रकार से स्थित है,यानि वह भी आनंदस्वरूप ही है.
जब हम बिना मन और बुद्धि को परमात्मा में लगाए ,बिना श्रद्धा और विश्वास के परमात्मा की
भक्ति का ढोंग करते हैं,ढोंगी का भेष धारण करते हैं तो श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार मिथ्याचारी
कहलाते है.आज समाज में अधिकतर मिथ्याचारियों का ही बोलबाला है. जिससे आम बुद्धिजीवी
का विश्वास संतों से ही नहीं ,परमात्मा तक से भी उठता चला जा रहा है.बुद्धिमान ढोंगी के भेष
और सच्ची भक्ति का अंतर समझ जाते है,कहा गया है ;
भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित होय
भक्ति जु न्यारी भेष से , यह जानै सब कोय
मिथ्याचार को छोड़ कर यदि हम उपरोक्त चार प्रकार के भक्तों के बारे में सही प्रकार से जाने तो
हम यह तय कर सकते हैं कि अभी हमारी भक्ति किस स्तर की है.भक्त बनने से पहले हमें हर हालत
में सुकृत तो करने ही होंगें. बिना सुकृत किये हम किसी प्रकार से भी भक्त कहलाये जाने के अधिकारी
नहीं हो सकते हैं.
यदि हम अभी अर्थार्थी या आर्त भक्त की श्रेणी में हैं तो परमात्मा को जानने की तीव्र उत्कंठा जगाकर
जिज्ञासु बनने का प्रयत्न भी कर सकते हैं.जिज्ञासु भक्त ही एक न एक दिन राम कृपा से ज्ञानी भक्त
हो जायेगा इस विश्वास से जीवन में आगे बढ़ने का प्रयत्न करें तो ही जीवन का वास्तविक सदुपयोग है
संत कबीरदास जी कहते हैं:-
भक्ति बीज पलटे नहीं ,जो जुग जाये अनन्त
ऊँच नीच घर अवतरै, होय संत का संत
अर्थात की हुई भक्ति का बीज कभी भी निष्फल नहीं होता. चाहे अनन्त युग बीत जाएँ ,भक्तिमान जीव
ऊँच नीच माने गए चाहे किसी भी वर्ण या जाति में उत्पन्न हो,प्रारब्ध वश चाहे किसी भी योनि में उसे जाना
पड़े पर अंततः वह संत ही रहता है. उसका अंत हमेशा अच्छा ही होता है.अर्थात उसकी परम गति हो
उसे परमानन्द की प्राप्ति होकर रहती है.
सीता जन्म आध्यात्मिक चिंतन की पिछली तीनों पोस्टों पर आप सुधिजनों द्वारा की गई टिप्पणियों
से हृदय में इस आशा और विश्वास का सुखद संचार होता है कि हम सभी मिथ्याचार को छोड़कर अपने
हृदय में भक्ति जिज्ञासा की जोत प्रज्जवलित करने में जरूर जरूर सफल होंगें.
यह पोस्ट भी कुछ लंबी हो गई है.इसलिये इस बार बस यहीं समाप्त करता हूँ.आप सुधिजनों ने मेरी
इस लंबी पोस्ट को पढ़ने का जो कष्ट उठाया है ,इसके लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूँ.मैं आप सभी
से यह भी अनुरोध करूँगा कि विषय को भली प्रकार से समझने के लिए आप समय मिलने पर मेरी
पिछली पोस्टों का अवलोकन भी जरूर करते रहें.
अगली पोस्ट में, यदि हो सका तो नाम जप और 'सीता लीला' पर कुछ और आध्यात्मिक चिंतन
करने की कोशिश करूँगा. आशा है आप सब सुधिजन अपने सुविचारों को प्रकट कर मेरा उत्साह
वर्धन करते रहेंगें.