सीता पवित्र पावन है, मनोहारी,सुकोमल और अत्यंत सुन्दर है, दुर्लभ भक्ति स्वरूपा है, समस्त
चाहतों की जननी है. सीता का नाम जन जन में प्रचलित है, जो राम से पहले ही बहुत आदर व
सम्मान के साथ लिया जाता है.बहुत प्राचीन समय से अनेक घरों में बच्चियों का नाम सीता,
जानकी या वैदेही के नाम पर रखा जाता रहा है. अत: यह अफ़सोस करना कि लोग अपनी बच्चियों
का नाम सीता के नाम पर नहीं रखना चाहते नितांत निराधार है. सीता ,राधा, मीरा आदि का नाम
स्मरण करते ही हृदय में भक्ति का उदय होता है. बहरहाल किसी भी प्रकार के विवाद को अलग
रखते हुए इस पोस्ट में भी मेरा उद्देश्य 'सीता जन्म' के आध्यात्मिक चिंतन को आगे बढ़ाना है.
मेरी पिछली पोस्ट 'सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन -२' में हमने यह जाना था कि
'सीता जी यानि भक्ति ही जीव जो परमात्मा का अंश है को अंशी अर्थात परमात्मा से जोड़ने में
समर्थ हैं वे हृदय में आनंद का 'उदभव' करके उसकी 'स्थिति' को बनाये रखतीं हैं.हृदय की समस्त
सीता जन्म अर्थात भक्ति का उदय हृदय में कैसे हो , आईये इस बारे में थोडा मनन करने का प्रयास करते हैं.
गोस्वामी तुलसीदास जी श्री रामचरितमानस में लिखते हैं :-
बिनु बिस्वास भगति नहि, तेहि बिनु द्रवहिं न रामु
राम कृपा बिनु सपनेहुँ , जीव न लेह विश्रामु
अर्थात बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती, भक्ति के बिना श्री राम जी पिघलते नहीं यानि 'राम कृपा'
नहीं होती और श्री राम जी की कृपा के बिना जीव स्वप्न में भी शान्ति नहीं पा सकता.
'सत्-चित-आनंद' या राम में विश्वास होना ,अर्थात हृदय मे ऐसी पक्की धारणा का होना कि जीवन में असली
आनंद स्थाई चेतनायुक्त आनंद(सत्-चित-आनंद) ही है,जिसको पाना संभव है और जिसका निवास
भी हमारे हृदय में ही है,अत्यंत आवश्यक है.
इसके लिए गोस्वामी तुलसीदास जी श्रीरामचरितमानस के प्रारम्भ में ही यह प्रार्थना करते हैं :-
भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रुपिनौ
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त:स्थमीश्वरम
मैं भवानी जी और शंकर जी की वंदना करता हूँ . (क्यूंकि) भवानी जी 'श्रृद्धा' और शंकर जी 'विश्वास' का ही
स्वरुप हैं. श्रद्धा- विश्वास के बिना सिद्ध जन भी अपने अंत:करण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते.
मुझे बहुत अफ़सोस होता है जब ब्लॉग जगत में मैं यह पाता हूँ कि कुछ लोग 'शिव-पार्वती' अथवा 'शिवलिंग'
के बारे में बिना जाने ही दुष्प्रचार और मखौल करने में लगे हुए हैं.उनकी क्षुद्र सोच पर मुझे हँसी ही आती है.
हमारे यहाँ अध्यात्म में 'प्रतीकों' का सहारा लिया जाता है,जैसा कि आज के विज्ञान में भी किया जाता है,
जैसे पानी को 'H2O' क्यूँ दर्शाते हैं और H2O का मतलब पानी में दो भाग हाइड्रोजन व एक भाग
ओक्सीजन का होना है,यह एक वैज्ञानिक अच्छी प्रकार से जानता है, परन्तु ,एक साधारण आदमी
को बिना जाने न तो H2O का मतलब समझ आयेगा न ही वह यह विश्वास करेगा कि पानी दो गैसों
हाइड्रोजन व ओक्सिजन से मिलकर बना है. इसके लिए सर्वप्रथम तो उसे 'विज्ञान' पर श्रद्धा रखनी
होगी. श्रद्धा के कारण ही वह विज्ञान को समझने का जब प्रयत्न करेगा तभी उसे कुछ कुछ
समझ उत्पन्न हो सकेगी. जैसे जैसे उसका ज्ञान और अनुभव बढ़ता जायेगा, तैसे तैसे उसे यह
'विश्वास' भी उत्पन्न होता जायेगा कि हाँ पानी दो गैसों से मिलकर ही बना है.प्रतीक गुढ़ रहस्यों को
आसानी से समझने के माध्यम हैं. भवानी 'श्रद्धा' का प्रतीक हैं और शंकर जी 'विश्वास' का.
'श्रद्धा' यानि भवानी जी शक्ति है जिसके द्वारा जीव सत्संग का अनुसरण कर निष्ठापूर्वक प्रयास
करता है और सद्ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी हो पाता है. ज्ञान की प्राप्ति पर विश्वास होता है.
यह विश्वास यानि 'शिव' ही कल्याणस्वरुप है जो मन के सभी संशयों के विष को पी डालता है ,
जिससे जीव एकनिष्ठ हो परमात्मा का ध्यान कर पाता है.और परमात्मा के ध्यान से जैसे जैसे हृदय
में शान्ति और आनंद का अनुभव होने लगता है, तैसे तैसे शान्ति और आनंद की प्राप्ति की चाहत
व तडफ भी हृदय में नितप्रति बलबती होकर हृदय में 'भक्ति' का उदभव करा देती है.
'भक्ति' के लिए राम कृपा और सत्संग की आवश्यकता है.सत्संग और 'राम कृपा' के सम्बन्ध
में मैंने अपनी पोस्ट 'बिनु सत्संग बिबेक न होई' में लिखा है.सुधिजन चाहें तो मेरी इस पोस्ट का
भी अवलोकन कर सकते हैं,जो कि मेरी लोकप्रिय पोस्टों में से एक है.
भक्ति के बारे में गोस्वामीजी लिखतें हैं :-
भक्ति सुतंत्र सकल गुन खानी ,बिनु सत्संग न पावहि प्रानी
पुण्य पुंज बिनु मिलहि न संता, सतसंगति संसृति कर अंता
भक्ति स्वतंत्र है और सभी सुखों की खान है . परन्तु ,सत्संग के बिना प्राणी इसे पा नही सकता.
पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते और सत्संगति से ही जन्म-मृत्यु रूप 'संसृति' का अंत हो
पाता है.
क्यूंकि सत्संगति से ही 'श्रद्धा' , 'विश्वास' के बारे में सही सही जानकारी होती है.वर्ना अज्ञान
पर आधारित अंध श्रद्धा तो जीव के पतन का कारण भी हो सकती है.यदि चाहत 'राम' के बजाय संसार
की होगी तो वह भक्ति की जगह वासना बन 'कारण शरीर' का निर्माण करेगी ,जिसके फलस्वरूप जैसा
कि मैंने अपनी पिछली पोस्ट 'सीता जन्म आध्यात्मिक चिंतन -१' में बताया था ,जन्म मरण (संसृति)
के बंधन का निर्माण होगा.
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १७ (श्रद्धा त्रय विभाग योग) में श्रद्धा के 'सत', 'रज' और 'तम' गुणी स्वरूपों
की विवेचना की गई है.सुधिजन चाहें तो 'श्रद्धा' के बारे में और अधिक जानने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता
का अध्ययन कर सकते हैं. श्रद्धा पूर्वक मनन करने से ही गुढ़ रहस्य प्रकट हो पाते हैं.
वर्ना लोग बिना पढ़े और जाने ही 'अश्रद्धा' के कारण अपनी भिन्न भिन्न विपरीत धारणा
भी बना लेते हैं.'श्रद्धा' और 'विश्वास' राम भक्ति रुपी मणि को पाने के सुन्दर साधन हैं.
राम भक्ति एक अक्षय मणि के समान है .यह जिसके हृदय में बसती है उसे स्वप्न में भी लेशमात्र
दुःख नहीं होता. जगत में वे ही मनुष्य चतुर शिरोमणि हैं जो इस भक्ति रुपी मणि के लिए भलीभाँती
यत्न करते हैं.तुलसीदास जी इस बारे में लिखते हैं:-
राम भगति मनि उर बस जाके, दुःख लवलेस न सपनेहुँ ताके
चतुर शिरोमनि तेइ जग माहीं ,जे मनि लागि सुजतन कराहीं
इस पोस्ट को विस्तार भय से अब यहीं समाप्त करता हूँ. अगली पोस्ट में चार प्रकार के भक्तों और
'सीता लीला' के ऊपर कुछ और चिंतन का प्रयास करेंगें.
मुझे यह जानकर अत्यंत हर्ष होता है कि सीता जन्म आध्यात्मिक चिंतन की मेरी पिछली दोनों
पोस्ट सुधीजनों द्वारा पसंद की गयीं हैं. उनकी सुन्दर सारगर्भित टिप्पणियों से मैं निहाल हो जाता
हूँ.मैं सभी सुधिजनों का इसके लिए हृदय से आभारी हूँ. मैं सभी पाठकों से अनुरोध करूँगा कि मेरी इस
पोस्ट पर भी अपने अमूल्य विचार अवश्य प्रस्तुत करें.
चाहतों की जननी है. सीता का नाम जन जन में प्रचलित है, जो राम से पहले ही बहुत आदर व
सम्मान के साथ लिया जाता है.बहुत प्राचीन समय से अनेक घरों में बच्चियों का नाम सीता,
जानकी या वैदेही के नाम पर रखा जाता रहा है. अत: यह अफ़सोस करना कि लोग अपनी बच्चियों
का नाम सीता के नाम पर नहीं रखना चाहते नितांत निराधार है. सीता ,राधा, मीरा आदि का नाम
स्मरण करते ही हृदय में भक्ति का उदय होता है. बहरहाल किसी भी प्रकार के विवाद को अलग
रखते हुए इस पोस्ट में भी मेरा उद्देश्य 'सीता जन्म' के आध्यात्मिक चिंतन को आगे बढ़ाना है.
मेरी पिछली पोस्ट 'सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन -२' में हमने यह जाना था कि
'सीता जी यानि भक्ति ही जीव जो परमात्मा का अंश है को अंशी अर्थात परमात्मा से जोड़ने में
समर्थ हैं वे हृदय में आनंद का 'उदभव' करके उसकी 'स्थिति' को बनाये रखतीं हैं.हृदय की समस्त
नकारात्मकता का 'संहार' करके कलेशों का हरण कर लेतीं हैं और सब प्रकार से जीव का कल्याण
ही करती रहतीं हैं.
सीता जन्म अर्थात भक्ति का उदय हृदय में कैसे हो , आईये इस बारे में थोडा मनन करने का प्रयास करते हैं.
गोस्वामी तुलसीदास जी श्री रामचरितमानस में लिखते हैं :-
बिनु बिस्वास भगति नहि, तेहि बिनु द्रवहिं न रामु
राम कृपा बिनु सपनेहुँ , जीव न लेह विश्रामु
अर्थात बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती, भक्ति के बिना श्री राम जी पिघलते नहीं यानि 'राम कृपा'
नहीं होती और श्री राम जी की कृपा के बिना जीव स्वप्न में भी शान्ति नहीं पा सकता.
'सत्-चित-आनंद' या राम में विश्वास होना ,अर्थात हृदय मे ऐसी पक्की धारणा का होना कि जीवन में असली
आनंद स्थाई चेतनायुक्त आनंद(सत्-चित-आनंद) ही है,जिसको पाना संभव है और जिसका निवास
भी हमारे हृदय में ही है,अत्यंत आवश्यक है.
इसके लिए गोस्वामी तुलसीदास जी श्रीरामचरितमानस के प्रारम्भ में ही यह प्रार्थना करते हैं :-
भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रुपिनौ
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त:स्थमीश्वरम
मैं भवानी जी और शंकर जी की वंदना करता हूँ . (क्यूंकि) भवानी जी 'श्रृद्धा' और शंकर जी 'विश्वास' का ही
स्वरुप हैं. श्रद्धा- विश्वास के बिना सिद्ध जन भी अपने अंत:करण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते.
मुझे बहुत अफ़सोस होता है जब ब्लॉग जगत में मैं यह पाता हूँ कि कुछ लोग 'शिव-पार्वती' अथवा 'शिवलिंग'
के बारे में बिना जाने ही दुष्प्रचार और मखौल करने में लगे हुए हैं.उनकी क्षुद्र सोच पर मुझे हँसी ही आती है.
हमारे यहाँ अध्यात्म में 'प्रतीकों' का सहारा लिया जाता है,जैसा कि आज के विज्ञान में भी किया जाता है,
जैसे पानी को 'H2O' क्यूँ दर्शाते हैं और H2O का मतलब पानी में दो भाग हाइड्रोजन व एक भाग
ओक्सीजन का होना है,यह एक वैज्ञानिक अच्छी प्रकार से जानता है, परन्तु ,एक साधारण आदमी
को बिना जाने न तो H2O का मतलब समझ आयेगा न ही वह यह विश्वास करेगा कि पानी दो गैसों
हाइड्रोजन व ओक्सिजन से मिलकर बना है. इसके लिए सर्वप्रथम तो उसे 'विज्ञान' पर श्रद्धा रखनी
होगी. श्रद्धा के कारण ही वह विज्ञान को समझने का जब प्रयत्न करेगा तभी उसे कुछ कुछ
समझ उत्पन्न हो सकेगी. जैसे जैसे उसका ज्ञान और अनुभव बढ़ता जायेगा, तैसे तैसे उसे यह
'विश्वास' भी उत्पन्न होता जायेगा कि हाँ पानी दो गैसों से मिलकर ही बना है.प्रतीक गुढ़ रहस्यों को
आसानी से समझने के माध्यम हैं. भवानी 'श्रद्धा' का प्रतीक हैं और शंकर जी 'विश्वास' का.
'श्रद्धा' यानि भवानी जी शक्ति है जिसके द्वारा जीव सत्संग का अनुसरण कर निष्ठापूर्वक प्रयास
करता है और सद्ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी हो पाता है. ज्ञान की प्राप्ति पर विश्वास होता है.
यह विश्वास यानि 'शिव' ही कल्याणस्वरुप है जो मन के सभी संशयों के विष को पी डालता है ,
जिससे जीव एकनिष्ठ हो परमात्मा का ध्यान कर पाता है.और परमात्मा के ध्यान से जैसे जैसे हृदय
में शान्ति और आनंद का अनुभव होने लगता है, तैसे तैसे शान्ति और आनंद की प्राप्ति की चाहत
व तडफ भी हृदय में नितप्रति बलबती होकर हृदय में 'भक्ति' का उदभव करा देती है.
'भक्ति' के लिए राम कृपा और सत्संग की आवश्यकता है.सत्संग और 'राम कृपा' के सम्बन्ध
में मैंने अपनी पोस्ट 'बिनु सत्संग बिबेक न होई' में लिखा है.सुधिजन चाहें तो मेरी इस पोस्ट का
भी अवलोकन कर सकते हैं,जो कि मेरी लोकप्रिय पोस्टों में से एक है.
भक्ति के बारे में गोस्वामीजी लिखतें हैं :-
भक्ति सुतंत्र सकल गुन खानी ,बिनु सत्संग न पावहि प्रानी
पुण्य पुंज बिनु मिलहि न संता, सतसंगति संसृति कर अंता
भक्ति स्वतंत्र है और सभी सुखों की खान है . परन्तु ,सत्संग के बिना प्राणी इसे पा नही सकता.
पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते और सत्संगति से ही जन्म-मृत्यु रूप 'संसृति' का अंत हो
पाता है.
क्यूंकि सत्संगति से ही 'श्रद्धा' , 'विश्वास' के बारे में सही सही जानकारी होती है.वर्ना अज्ञान
पर आधारित अंध श्रद्धा तो जीव के पतन का कारण भी हो सकती है.यदि चाहत 'राम' के बजाय संसार
की होगी तो वह भक्ति की जगह वासना बन 'कारण शरीर' का निर्माण करेगी ,जिसके फलस्वरूप जैसा
कि मैंने अपनी पिछली पोस्ट 'सीता जन्म आध्यात्मिक चिंतन -१' में बताया था ,जन्म मरण (संसृति)
के बंधन का निर्माण होगा.
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १७ (श्रद्धा त्रय विभाग योग) में श्रद्धा के 'सत', 'रज' और 'तम' गुणी स्वरूपों
की विवेचना की गई है.सुधिजन चाहें तो 'श्रद्धा' के बारे में और अधिक जानने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता
का अध्ययन कर सकते हैं. श्रद्धा पूर्वक मनन करने से ही गुढ़ रहस्य प्रकट हो पाते हैं.
वर्ना लोग बिना पढ़े और जाने ही 'अश्रद्धा' के कारण अपनी भिन्न भिन्न विपरीत धारणा
भी बना लेते हैं.'श्रद्धा' और 'विश्वास' राम भक्ति रुपी मणि को पाने के सुन्दर साधन हैं.
राम भक्ति एक अक्षय मणि के समान है .यह जिसके हृदय में बसती है उसे स्वप्न में भी लेशमात्र
दुःख नहीं होता. जगत में वे ही मनुष्य चतुर शिरोमणि हैं जो इस भक्ति रुपी मणि के लिए भलीभाँती
यत्न करते हैं.तुलसीदास जी इस बारे में लिखते हैं:-
राम भगति मनि उर बस जाके, दुःख लवलेस न सपनेहुँ ताके
चतुर शिरोमनि तेइ जग माहीं ,जे मनि लागि सुजतन कराहीं
इस पोस्ट को विस्तार भय से अब यहीं समाप्त करता हूँ. अगली पोस्ट में चार प्रकार के भक्तों और
'सीता लीला' के ऊपर कुछ और चिंतन का प्रयास करेंगें.
मुझे यह जानकर अत्यंत हर्ष होता है कि सीता जन्म आध्यात्मिक चिंतन की मेरी पिछली दोनों
पोस्ट सुधीजनों द्वारा पसंद की गयीं हैं. उनकी सुन्दर सारगर्भित टिप्पणियों से मैं निहाल हो जाता
हूँ.मैं सभी सुधिजनों का इसके लिए हृदय से आभारी हूँ. मैं सभी पाठकों से अनुरोध करूँगा कि मेरी इस
पोस्ट पर भी अपने अमूल्य विचार अवश्य प्रस्तुत करें.