यह मेरे लिए अति आनंद की बात है कि प्रिय सुधिजनों ने 'रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन' पर
प्रकाशित मेरी पिछली तीनों पोस्टों का अपनी आनंदपूर्ण टिप्पणियों से भरपूर स्वागत किया है.
देवेन्द्र भाई का कहना है कि 'संगम सरयू स्नान कर धवल व पवित्र हो जाता है.
भाई अरविन्द मिश्रा जी कहते हैं कि 'अब सरयू भी सहज ध्यानाकर्षण की अधिकारणी हो
जाती है.' हालाँकि मेरी पिछली पोस्ट 'रामजन्म-आध्यात्मिक चिंतन -३' में सरयू का निरूपण
आत्म-ज्ञान रुपी सरिता से किया गया है, फिर भी रूचि और प्रसंग को देखते हुए इस पोस्ट में
हम 'सरयू' जी पर विचार करने की और कोशिश करते हैं.
आईये, मेरी पिछली पोस्ट 'रामजन्म- आध्यात्मिक चिंतन-३' में वर्णित रामचरित्र मानस की
निम्न पंक्तियों का स्मरण करते हुए आगे बढते हैं
"बंदउ अवधपुरी अति पावनि, सरजू सरि कलि कलुष नसावनि"
अवधपुरी की वंदना ऐसी अति पवित्र पुरी के रूप में की गई है जहाँ 'सरयू' जैसी सरिता बह रही
है जो कलियुग की कलुषता का नाश करनेवाली है .रामचरितमानस में सरयू के बारे में यह भी
लिखा गया है कि
उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर
बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर
अर्थात अवधपुरी की उत्तर दिशा में सरयू बह रही हैं जिसका जल निर्मल और गहरा है.
मनोहर घाट बंधे हुए है, किनारे पर जरा भी कीचड़ नहीं है.
यह देखा गया है कि जब कोई नदी या सरिता जो निरंतर प्रवाहित होती है, जिसका जल
शुद्ध , पेय व कल्याणकारी होता है, जिसपर स्नान आदि करने के लिए सुन्दर घाट निर्मित
किये जा सकते हैं व जिसके किनारे कीचड़ आदि से मुक्त होते हैं तो उस नदी के
आस पास संपन्न नगर व पुरी भी बस जाते हैं.
अवधपुरी हृदय में स्थित एक ऐसी ही संपन्न पुरी है जहाँ समस्त दैवीय संपदा जैसे 'अभय
यानि मृत्यु आदि समस्त भयों का अभाव, अंत:करण की निर्मलता, उत्तम कर्मों का आचरण ,
क्रोध का सर्वथा अभाव, दया, अहिंसा आदि सद्गुणों का निरंतर विकास होता रहता हैं. यह सब
विकास इसीलिए संभव होता है क्यूंकि अवधपुरी की उत्तर दिशा में 'आत्म ज्ञान' रुपी सरयू
नदी निरंतर बहती रहती है. उत्तर दिशा 'परिपक्वता' का प्रतीक है. यानि 'आत्मज्ञान' केवल
कोरा या थोथा नहीं बल्कि गहन अनुसंधान और अनुभव पर आधारित है जिसमें स्वल्प भी
अज्ञान रुपी कीचड़ का लेश मात्र नहीं है.
अपनी आत्मा का ज्ञान हमें भय मुक्त करने में सर्वथा समर्थ है. जब मैं अपने शरीर को केवल
वस्त्र मानकर स्वयं को परमात्मा का अंश 'सत्-चित-आनंद' मानता हूँ जो नित्य,अजर,अमर
अवध,आनंदस्वरूप है और निरंतर यही 'command' अपने मस्तिष्क रूपी कंप्यूटर को देता रहता
हूँ, , तो मेरे हृदय में नकारात्मकता का शमन हो सकारात्मकता व आनंद का संचार होने
लगता है.जैसा कि भगवद्गीता (अध्याय २ श्लोक २२ ) में भी निम्न प्रकार से वर्णित है
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोSपराणी
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही
अर्थात जैसे हम शरीर के पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करते हैं,वैसे
ही हमारी आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीर को प्राप्त होता है.
यह देह भी हमेशा एकसा नहीं रहता.पहले बचपन, बचपन की मृत्यु हो जवानी , जवानी की
मृत्यु हो बुढ़ापा,और फिर देह ही अंततः मृत्यु को प्राप्त हो जाता है.
वास्तव में आत्मा के तीन शरीर हैं (१) स्थूल या पंच भूत से निर्मित भौतिक शरीर जिसकी
मृत्यु होती है और यही नाशको प्राप्त होता है (२) सूक्ष्म शरीर जो मन,बुद्धि,अहंकार से
निर्मित है (३) कारण शरीर जो सकाम कर्मों के परिणाम स्वरुप संचित वासनाओं के रूप में
निर्मित है.
स्थूल शरीर के विनाश होने पर 'सूक्ष्म' और 'कारण' शरीर हमारी आत्मा के साथ ही नवीन
स्थूल शरीर की प्राप्ति की ओर अग्रसर हो जाते हैं ,जो हमारी संचित वासनाओं अर्थात
' कारण शरीर' के अनुरूप ही मिला करता है.'तमोगुणी' वासनाओं से निम्न योनि(कीट,पतंग,
पशु,पक्षी आदि) ,'रजोगुणी' वासनाओं से साधारण मनुष्य योनि और 'सतोगुणी' वासनाओं से
उच्च मनुष्य योनि(संत,महापुरुष आदि) जिसे देव योनि भी कहते हैं प्राप्त होती हैं.इन वासनाओं
का सर्जन और विसर्जन हम अपने जीवन काल में अपने कर्म,भाव और विचारों के द्वारा
करते रहते हैं.जिस जिस प्रकार की वासनाएं अर्जित होती जातीं हैं,वैसा वैसा ही 'कारण शरीर '
का निर्माण भी होता जाता है. 'कारण शरीर ' के आधार पर ही फिर 'सूक्ष्म' शरीर व 'स्थूल'
शरीर का निर्माण होता है . परन्तु, हमारा मरण कभी नहीं होता. जन्म से पहले और मृत्यु के
पश्चात भी हम आत्मा रूप में हमेशा विद्यमान रहते है.
यदि अपने जीवन काल में ही मैं यह आत्मज्ञान प्राप्त करलूँ कि न मैं स्थूल शरीर हूँ,
न ही सूक्ष्म और न ही कारण शरीर बल्कि ये मेरे केवल वस्त्र मात्र हैं जिनको मैं अपने
कर्म,विचार और भावों के द्वारा बदलता रहता हूँ, मेरा वास्तविक स्वरूप निर्गुण, निराकार ,
नित्य, अजर, अमर, 'सत्-चित आनंद है ' और यह आत्मज्ञान मेरे स्थूल शरीरान्त तक बना
रहे तो नवीन शरीर ग्रहण करते समय भी मैं पिछला सब याद रख सकता हूँ व आनंद में
रमण करते हुए अपना विकास निरंतर ही करते रह सकता हूँ .निरंतर विकास का अर्थ यहाँ
निष्काम कर्मयोग के द्वारा प्रारब्ध या 'कारण शरीर' के क्षय करने से है .'कारण शरीर' की वजह
से ही स्थूल शरीर के बंधन में बंधना पड़ता है. 'कारण शरीर' के पूर्णतया क्षय होने पर स्थूल
शरीर की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है,जिसे जीव की मुक्ति माना जाता है.
परन्तु, आत्मज्ञान न होने की स्थिति में हम खुद को अज्ञानवश स्थूल शरीर ही मान
लेते हैं इसीलिए हमारे मस्तिष्क में जाने अनजाने यही 'command' जाता रहता है कि
स्थूल शरीर के मरण के साथ ही हमारा भी मरण हो जायेगा. जिस कारण हम स्थूल शरीर
की मृत्यु के समय मृत्यु भय से ग्रस्त हो अपनी तमाम याददाश्त को ही विस्मृत कर डालतें हैं
और जब नवीन शरीर ग्रहण करते हैं तो पिछला कुछ भी याद नहीं रहता. जबकि ऐसा बचपन
या जवानी की समाप्ति पर नहीं होता. क्यूंकि बचपन और जवानी की मृत्यु हम सहज मानते हैं
और मस्तिष्क को यह 'command' कभी नहीं देते कि हम मर गए हैं, इससे ह्मारी याददाश्त
बनी रहती है. ऐसे ही सोते वक़्त भी हम यह कदापि महसूस नहीं करते कि सोने से हम मर
जायेंगें. इसलिये सोकर उठने पर याददाश्त बनी रहती है. स्थूल शरीर की मृत्यु के समय
केवल अज्ञान के कारण ही हम खुद के मरने का गलत 'command' दे बैठते हैं. फलस्वरूप
'याददाश्त' का लोप हो जाता है और सम्पूर्ण ज्ञान विस्मृत हो जाता है.
आत्मज्ञान के द्वारा हम स्वयं के 'आनंद' स्वरुप का बोध कर पाते हैं .आनंद का अक्षय
स्रोत अंत:करण में ही निहित है. आत्म बोध से 'कारण शरीर' का स्वाभाविक रूप से क्षय होता है.
आत्मज्ञान रुपी विचार प्रवाह से आनंद की तरंगें हृदय में उठने लगतीं हैं. जब यह प्रवाह
हृदय में अनवरत व नित्य प्रकट होने लगता है तो दिव्य सरिता का रूप धारण कर हृदय
की कलुषता का निवारण करता रहता है और हृदय को पवित्र पावन बना देता है,जिससे हृदय
में उपरोक्त वर्णित अवधपुरी का भी वास होने लगता है. यह आत्मज्ञान रुपी विचार प्रवाह की
दिव्य सरिता ही 'सरयू' नदी है.
आत्मा का ज्ञान वास्तव में एक आश्चर्य ही है. भगवद्गीता (अध्याय २ श्लोक २९) में
इसका निरूपण निम्न प्रकार से किया गया है.
"कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है
और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भांति
वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति
सुनता है और कोई कोई तो सुनकर भी इसे नहीं जानता "
आश्चर्य इसलिये है कि आत्मा के विलक्षण आनंद के अनुभव की किसी भी अन्य आनंद से
तुलना ही नहीं की जा सकती. .आत्मज्ञान रूपी 'सरयू' के जल को इसी वजह से अति गहन
और गंभीर बताया गया है.
कहते हैं सरयू के जल में राम जी यानि 'सत्-चित आनंद ' ने 'जल समाधि' ली हुई है.
जिस कारण इसके जल का सेवन करने से 'चिर स्थाई आनंद' का अनोखा स्वाद भी
मिलता है और जीव सहज शांति को प्राप्त हो जाता है. फिर चलिए, अब सोचना क्या है,
पवित्र पावन सरयू नदी के घाट पर नित्य स्नान, ध्यान और आचमन कर असीम आनंद
में गोते लगा लिए जाएँ.
आत्मज्ञान के और अधिक अनुसंधान हेतू श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय-२ (सांख्य योग) का अध्ययन
किया जा सकता है.''साख्य योग" में आत्मज्ञान का समन्वय इस प्रकार से किया गया है जिससे
हम जीवन में निष्काम कर्मयोग प्रतिपादित करने में भी सक्षम हो सकें. इसीलिए भगवद्गीता में
सांख्य योग के पश्चात ही कर्मयोग का निरूपण अध्याय-३ में किया गया है.
राम जी ,दशरथ जी व कौसल्या जी का तत्व चिंतन मेरी पोस्ट 'रामजन्म- आध्यात्मिक चिंतन-१'
में किया गया है.
चारो युगों अर्थात सत् युग ,त्रेता ,द्वापर व कलियुग का तत्व चिंतन मेरी पोस्ट
'रामजन्म -आधात्मिक चिंतन -२' में किया गया है. तथा
अवधपुरी/अयोध्यापुरी,उपवास का तत्व चिंतन मेरी पोस्ट 'रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन-३' में
किया गया है.
सुधिजन उपरोक्त पोस्टों का भी अवलोकन कर अपने सुविचारों की आनंद वृष्टि कर सकते हैं.
मेरा यह सादर अनुरोध है कि उपरोक्त पिछली पोस्टों का बार बार अवलोकन किया जाये,
जिससे राम, दशरथ, कौसल्या, त्रेता युग, अवधपुरी की स्थापना 'सरयू' जी की कृपा से हमारे हृदय
में ही हो, और 'राम मंदिर' के लिए हमें दर दर न भटकना पड़े. यदि हृदय में 'राम मंदिर'
का सही प्रकार से निर्माण हो जाये तो भौतिक जगत में राम मंदिर कहीं भी हो, इसका कोई
फर्क पड़नेवाला नहीं है.कहतें है आस्था और विश्वास से जैसा अंतर्जगत में हो वैसा ब्राह्य
जगत में भी घटित हो जाता है.
सुधिजन इस विषय कि 'रामजन्म और राम मंदिर का क्या स्वरुप हो' पर विस्तार से
अपने अपने विचार प्रकट करें तभी इन पोस्टों की सार्थकता का भी अनुभव हो पायेगा.
ओम् सच्चिदानन्देश्वराय नमो नम: