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Wednesday, July 20, 2011

सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन -२

किसी भी  चाहत की उत्पत्ति आनंद प्राप्ति के लिए   होती है. यह अलग बात है कि उस  चाहत की
पूर्ति पर आनंद मिले या न मिले. अथवा जो आनंद मिले वह स्थाई न होकर अस्थाई ही रहे.
जैसे जैसे हमारी सोच व अनुभव परिपक्व होते जाते  है ,हम अस्थाई आनंद की अपेक्षा स्थाई
आनंद की चाहत को अधिक महत्व देने लगते हैं.वास्तव में  चाहत  माया  का ही रूप है.जीव और
ईश्वर के बीच ईश्वर को पाने की चाहत अर्थात 'श्री ' (सीता) जी किस प्रकार से शोभा पाती हैं इसका
वर्णन  करते  हुए गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं :

            उभय बीच श्री सोहइ  कैसी , ब्रह्म जीव बिच माया जैसी.

जैसा कि मैंने अपनी पिछली  पोस्ट में कहा कि 'सीता जन्म' हृदय स्थली में 'सत्-चित-आनंद' को पाने
की  सच्ची चाहत का उदय होना  है.अर्थात ऐसी चाहत जो हमे 'स्थाई चेतन आनंद' की प्राप्ति करा सके,
जिस  आनंद को   हमारे शास्त्रों में 'सत्-चित-आनंद' या परमात्मा के नाम से पुकारा गया है.
'सीतारूपी' चाहत अत्यंत दुर्लभ है जो आत्मज्ञान  के अनुसंधान व खोज  का ही  परिणाम है,सीताजी
भक्ति स्वरूपा   हैं, जो   समस्त चाहतों की 'जननी' , अत्यंत सुन्दर , श्रेय व कल्याण करनेवाली है.
सीता जी की सुंदरता का निरूपण करते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं :-

             सुंदरता  कहुं सुन्दर करई, छबि गृहं दीपसिखा जनु  बरई
             सब उपमा कबि  रहे जुठारी , केहिं  पटतरौं  बिदेहकुमारी 


सीताजी की शोभा, सुंदरता को भी सुन्दर करनेवाली है.वह ऐसी मालूम होती हैं मानो सुन्दरता रुपी घर 
में दीपक की लौं जल रही हो.सारी उपमाओं को तो कवियों ने झूंठा कर रखा है. मैं जनक नंदनी श्री 
सीताजी की किससे  उपमा दूँ .

कहते हैं सीताजी का अवतरण तब हुआ था जब  वैदेह राजा जनक ने प्रजा के हितार्थ वृष्टि कराने
हेतू भूमि में हल चलाया था और हल की नोंक भूमि में गड़े एक घड़े से टकराई थी.उस घड़े में  से ही एक
अति सुन्दर सुकोमल कन्या प्रकट हुई,जिसका नाम हल के नुकीले भाग के नाम पर "सीता" रखा गया.
जनक जी ने इस कन्या को अपनी पुत्री के रूप में अपनाया इसलिये उनका नाम "जानकी" या "वैदेही"
भी कहलाया. राजा जनक पूर्ण आत्मज्ञानी हैं  जिन्हें अपनी देह में भी किंचित मात्र आसक्ति नहीं है .
इसीलये उन्हें 'वैदेह' कहते हैं. वे अपने  आत्मस्वरूप में सदा स्थित हो आत्म तृप्त रहते हैं.उन्हें कर्म
करने की कोई आवश्यकता नहीं है तो भी लोकहितार्थ  वृष्टि हेतू पृथ्वी पर हल चलाने का 'कर्म योग'
करते हैं. जिसके फलस्वरूप 'सीता'  यानि भक्ति का प्रादुर्भाव होता है.वृष्टि का अभिप्राय यहाँ
आनंद से ही है.

उपरोक्त कहानी से यह समझ में आता है कि भले ही व्यक्ति पूर्ण आत्मज्ञानी भी हो जाये,परन्तु
जनकल्याण के लिए उसे 'जमीन में हल चलाने ' अर्थात निरंतर 'कर्मयोग'  की भी आवश्यकता
है, जिससे   'भक्तिरुपी' सीताजी   का उदय हो  पाए और  चहुँ और आनंद की वृष्टि  हो सके. हल की
नोंक उस आत्मज्ञानी व्यक्ति की प्रखर बुद्धि का प्रतीक है जिससे वह परम चाहत  'सीता' जी की खोज
का कार्य संपन्न कर् पाता है.

सीता जी  'सत्-चित-आनंद' परमात्मा यानि 'राम' का ही  वरण करतीं  हैं. राम को 'राम को पाने की
चाहत' यानि सीताजी  अत्यंत प्रिय है. इसलिये इनको 'रामवल्लभाम'  भी कहते हैं.सीताजी की वंदना
करते हुए  श्रीरामचरितमानस के शुरू में ही  गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं :-

                     उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं          क्लेशहारिणीम
                     सर्वश्रेयस्करीम सीतां नतोSहं      रामवल्लभाम

जो उत्पत्ति ,स्थिति और संहार करनेवाली हैं, कलेशों का हरण करनेवाली  हैं, सब प्रकार से कल्याण 
करनेवाली हैं,श्री राम जी की प्रियतमा हैं,उन सीता जी को मैं नमस्कार करता हूँ.


सीता जी यानि भक्ति  ही जीव जो परमात्मा का  अंश है को अंशी अर्थात परमात्मा से जोड़ने में समर्थ हैं
वे हृदय में आनंद का 'उदभव' करके उसकी 'स्थिति' को बनाये रखतीं हैं.हृदय की समस्त नकारात्मकता
का 'संहार'  करके  कलेशों  का हरण कर लेतीं  हैं और सब प्रकार से जीव का कल्याण ही  करती रहतीं  हैं.

.ऐसी 'भक्ति' माता  सीता जी का  मैं हृदय से  नमन करता हूँ .

                 सीय राममय सब जगजानी, करउ प्रनाम जोरि जुग पानी 


अगली पोस्ट में हम 'सीताजी' व उनकी लीला के  आध्यात्मिक चिंतन करने का एक और प्रयास करेंगें.

मैं सभी सुधिजनों का हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने मेरी पिछली पोस्ट 'सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन-१'
पर अपनी बहुमूल्य टिप्पणियाँ देकर मेरा उत्साहवर्धन किया है . जिससे यह पोस्ट मेरी लोकप्रिय पोस्टों
(Popular Posts) में अति शीघ्र ही चौथे स्थान पर आ गई है.

मैं आशा करता हूँ कि इस पोस्ट पर भी सुधिजनों का प्यार और कृपा  मुझ पर बनी रहेगी.




Wednesday, June 29, 2011

सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन -१

चाहत या आरजू का जीवन में बहुत महत्व है.हमारी  अनेक प्रकार की चाहतें हो सकतीं हैं, जो  जीवन
के स्वरुप को बदलने में सक्षम हैं.  वासनारूप होकर जब    चाहत   अंत:करण  में वास  करने लगती
है तो  हमारे 'कारण शरीर' का भी  निर्माण  करती रहती है.

'कारण शरीर' हमारी स्वयं की वासनाओं से निर्मित है, जिसके कारण  मृत्यु  उपरांत हमें नवीन स्थूल
व सूक्ष्म  शरीरों  की प्राप्ति होती है.यदि वासनाएं सतो गुणी हैं अर्थात विवेक,ज्ञान  और प्रकाश की
ओर उन्मुख हैं  तो 'देव योनि ' की प्राप्ति हो सकती है.  यदि  रजो गुणी अर्थात अत्यंत क्रियाशीलता,
चंचलता  और  महत्वकांक्षा से ग्रस्त हैं तो  साधारण 'मनुष्य योनि'. की और यदि  तमो गुणी अर्थात
अज्ञान,प्रमाद हिंसा आदि से  ग्रस्त  हैं  तो 'निम्न' पशु,पक्षी, कीट-पतंग आदि की 'योनि'प्राप्त हो
सकती है. इस प्रकार विभिन्न प्रकार की वासनाओं से विभिन्न प्रकार की योनि प्राप्त हो
सकती है. जो हमारे शास्त्रों  अनुसार ८४ लाख बतलाई गई हैं.

उदहारण स्वरुप यदि किसी की चाहत यह हो कि जिससे उसको कुछ मिलता है ,उसको  वह स्वामी  
मानने लगे और  उसकी चापलूसी करे,कुत्ते  की  तरहं उसके आगे पीछे दुम हिलाए.  जिससे उसको
नफरत हो या जो उसे पसंद  न आये,  उसपर वह जोर का   गुस्सा करे ,कुत्ते की तरह भौंके  और जब
यह चाहत'उसकी अन्य चाहतों से सर्वोपरि होकर  उसके अंत:करण में प्रविष्ट  हो वासना रूप में  उसके
 'कारण शरीर' का निर्माण करे ,तो   उस व्यक्ति को अपनी ऐसी चाहत की पूर्ति  के लिए 'कुत्ता योनि'
में भी जन्म लेना पड़ सकता है. इसी  प्रकार जो बात-बिना बात अपनी अपनी कहता रहें यानि बस
टर्र टर्र ही   करे ,मेंडक की तरह कुलांचें भी  भरे तो वह  'मेंडक' बन सकता है..क्योंकि ऐसी वासनायें
अज्ञान ,प्रमाद से ग्रस्त होने के कारण 'तमो गुणी'  ही  है  जो पशु योनि की कारक है.

चाहत यदि सांसारिक है तो  संसार में रमण होगा. पर  चाहत परमात्मा को पाने की हो  तो परमात्मा से
मिलन होगा.इसलिये अपनी चाहतों के प्रति हमें अत्यंत जागरूक व सावधान रहना चाहिये.किसी भी
चाहत को विचार द्वारा पोषित किया जा सकता है.विचार द्वारा ही चाहत का शमन भी किया जा सकता है.
यदि चाहत सच्ची और प्रगाढ़ हो तो अवश्य पूरी  होती है.गोस्वामी  तुलसीदास जी रामचरितमानस में
सच्ची चाहत और स्नेह के बारे में लिखते हैं:-

                          जेहि  कें जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि  मिलइ  न कछु संदेहू 


वास्तव में 'सीता जी' का स्वरुप रामचरितमानस व अन्य ग्रंथों में प्रभु श्री राम की 'भक्ति' स्वरूपा
माना गया है.जो  राम अर्थात 'सत्-चित-आनंद' को पाने की सर्वोतम  और अति उत्कृष्ट  चाहत ही है.
ऐसी चाहत इस पृथ्वीलोक में  अति दुर्लभ और अनमोल है, जो  मनुष्य को सभी वासनाओं  से मुक्त
कर उसके 'कारण शरीर' का अंत  कर सत्-चित-आनंद' परमात्मा से मिलन कराने में समर्थ है.

भगवान कृष्ण  श्रीमद्भगवद्गीता  के अध्याय १२ (भक्ति योग ) के   श्लोक ९  में कहते हैं
                   
                               अथ चित्तं  समाधातुं  न शक्रोषी मयि स्थिरम
                              अभ्यासयोगेन ततो  मामिच्छाप्तुम धनञ्जय


यदि तू अपने मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! तू अभ्यास रूप 
योग के द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए 'इच्छा' कर.


परमात्मा को पाने की 'इच्छा'  अन्य सभी  इच्छाओं का अपने में  समन्वय और शांत करने  में समर्थ है,
जो गंगा की तरह अन्ततः परमात्मा रुपी समुन्द्र में मिल जाती  है.इसीलिए अभ्यासयोग (परमात्मा
का मनन,जप,ध्यान आदि) बिना परमात्मा की प्राप्ति की सच्ची इच्छा के अधूरा ही है.परमात्मा को पाने  के
लिए अभ्यासयोग के साथ साथ  बुद्धि के सद् विचार द्वारा ऐसी चाहत का ही निरंतर पोषण करते
रहना चाहिये.

परमात्मा की सच्ची  चाहत, प्रेम  या  भक्ति पृथ्वी पुत्री 'सीता' जी ही  है.  जिन्हें  'आत्मज्ञानी' विदेह
जनक जी ने भी अपनी पुत्री के रूप में अपनाया ,जो  करुणा निधान  परमात्मा को अत्यंत प्रिय है.ऐसी
भक्ति स्वरूपा जानकी  जी जगत की जननी हैं ,क्यूंकि सभी चाहतों का  इनमें विलय हो जाता है. उन्हीं के
चरण कमलों  को मनाते हुए    गोस्वामी तुलसीदास जी निवेदन करते  हैं  कि वे (जानकी जी)  उन्हें
निर्मल सद् बुद्धि प्रदान करें , जो  प्रभु  'सत्-चित-आनंद' की  प्राप्ति कराने में सहायक  हो.

                               जनकसुता जग जननि  जानकी,अतिशय प्रिय करुनानिधान की 
                               ताके जुग पद  कमल मनावऊँ,  जासु कृपा  निरमल  मति पावउँ 


हृदय स्थली  में आत्मज्ञान के साथ साथ परमात्मा को पाने की सच्ची चाहत का उदय हो , यही
वास्तविक रूप से 'सीता जन्म' है.ऐसी  सच्ची चाहत ही निर्मल मन व बुद्धि प्रदान कर सकती है,
जिसके बिना परमात्मा को पाना असम्भव है.

'सीता' जी सर्व श्रेय  व  कल्याण  करने वालीं  हैं. अगली पोस्ट में 'सीता' जी के स्वरुप का हम और भी
मनन व चिंतन करेंगें.             

Saturday, May 21, 2011

रामजन्म - आध्यात्मिक चिंतन -४




यह मेरे लिए अति आनंद की बात है कि प्रिय सुधिजनों  ने  'रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन' पर
प्रकाशित मेरी पिछली तीनों पोस्टों  का अपनी आनंदपूर्ण टिप्पणियों से भरपूर स्वागत किया है.
देवेन्द्र भाई का कहना है कि 'संगम सरयू स्नान कर धवल व पवित्र हो जाता है. 
भाई अरविन्द मिश्रा जी कहते हैं कि 'अब सरयू भी सहज ध्यानाकर्षण की अधिकारणी हो
जाती है.'  हालाँकि मेरी  पिछली पोस्ट 'रामजन्म-आध्यात्मिक चिंतन -३' में सरयू  का निरूपण
आत्म-ज्ञान रुपी सरिता से किया  गया है, फिर भी रूचि और प्रसंग को देखते हुए इस पोस्ट में
हम 'सरयू' जी  पर विचार करने की और कोशिश करते हैं.

आईये,  मेरी  पिछली पोस्ट 'रामजन्म- आध्यात्मिक चिंतन-३'  में वर्णित  रामचरित्र मानस की
निम्न पंक्तियों का स्मरण करते हुए आगे बढते हैं

             "बंदउ  अवधपुरी  अति   पावनि,  सरजू  सरि  कलि   कलुष  नसावनि"

अवधपुरी की वंदना  ऐसी अति पवित्र पुरी के रूप में की गई है जहाँ 'सरयू' जैसी सरिता बह रही
है जो कलियुग की कलुषता का नाश करनेवाली है .रामचरितमानस में सरयू के बारे में यह भी
लिखा गया है कि

                       उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर
                       बाँधे  घाट मनोहर   स्वल्प  पंक  नहिं तीर

अर्थात अवधपुरी की उत्तर दिशा में सरयू बह रही हैं जिसका जल निर्मल और गहरा है.
मनोहर घाट बंधे हुए है, किनारे पर जरा भी कीचड़ नहीं है.

यह देखा गया है कि जब कोई नदी या सरिता जो  निरंतर प्रवाहित होती है, जिसका जल
शुद्ध ,  पेय  व कल्याणकारी होता है, जिसपर स्नान आदि करने के लिए सुन्दर घाट निर्मित
किये जा सकते हैं  व जिसके किनारे कीचड़ आदि से   मुक्त होते हैं  तो उस नदी  के
आस पास संपन्न नगर व पुरी भी बस जाते हैं.

अवधपुरी हृदय में स्थित  एक ऐसी ही संपन्न पुरी है जहाँ समस्त दैवीय संपदा जैसे 'अभय
यानि मृत्यु आदि समस्त भयों का अभाव, अंत:करण की निर्मलता,  उत्तम कर्मों का आचरण ,
क्रोध का सर्वथा अभाव, दया, अहिंसा आदि सद्गुणों का निरंतर विकास होता रहता  हैं. यह सब
विकास इसीलिए संभव होता है क्यूंकि अवधपुरी की उत्तर दिशा में 'आत्म ज्ञान' रुपी सरयू
नदी निरंतर बहती रहती है. उत्तर दिशा 'परिपक्वता'  का प्रतीक है. यानि 'आत्मज्ञान' केवल
कोरा  या थोथा नहीं  बल्कि  गहन अनुसंधान और अनुभव  पर आधारित है जिसमें स्वल्प भी
अज्ञान रुपी कीचड़ का लेश मात्र  नहीं है.

अपनी आत्मा का ज्ञान हमें भय मुक्त करने में सर्वथा समर्थ है. जब  मैं अपने शरीर को केवल
वस्त्र मानकर स्वयं को परमात्मा का अंश 'सत्-चित-आनंद' मानता हूँ जो नित्य,अजर,अमर
अवध,आनंदस्वरूप है  और निरंतर यही 'command'  अपने मस्तिष्क रूपी कंप्यूटर को देता रहता
हूँ, , तो मेरे हृदय में नकारात्मकता का शमन हो सकारात्मकता व आनंद का संचार होने
लगता है.जैसा कि भगवद्गीता (अध्याय २ श्लोक २२ ) में भी  निम्न प्रकार से वर्णित है

                              वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
                              नवानि गृह्णाति नरोSपराणी
                              तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
                              न्यन्यानि संयाति नवानि देही
अर्थात जैसे हम  शरीर के पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करते हैं,वैसे
ही हमारी आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीर को प्राप्त होता है.

यह देह भी  हमेशा एकसा नहीं रहता.पहले बचपन, बचपन की मृत्यु हो जवानी , जवानी की 
मृत्यु हो बुढ़ापा,और फिर देह  ही अंततः मृत्यु को प्राप्त हो जाता है.
वास्तव में आत्मा के तीन शरीर हैं (१) स्थूल या  पंच भूत से निर्मित  भौतिक शरीर जिसकी
मृत्यु होती है और यही नाशको प्राप्त होता है (२) सूक्ष्म शरीर जो मन,बुद्धि,अहंकार से
निर्मित है (३) कारण शरीर जो सकाम  कर्मों के परिणाम स्वरुप संचित वासनाओं के रूप में
निर्मित  है.

स्थूल शरीर  के विनाश होने पर 'सूक्ष्म' और 'कारण' शरीर हमारी आत्मा के साथ ही  नवीन
स्थूल शरीर की प्राप्ति की  ओर अग्रसर हो जाते हैं ,जो हमारी संचित वासनाओं अर्थात
' कारण शरीर' के अनुरूप ही  मिला करता है.'तमोगुणी' वासनाओं  से निम्न योनि(कीट,पतंग,
पशु,पक्षी आदि) ,'रजोगुणी' वासनाओं से साधारण मनुष्य योनि और 'सतोगुणी' वासनाओं से
उच्च मनुष्य योनि(संत,महापुरुष आदि) जिसे देव योनि भी कहते हैं प्राप्त होती हैं.इन वासनाओं
का   सर्जन  और विसर्जन  हम अपने जीवन काल में अपने कर्म,भाव और विचारों के द्वारा
करते रहते हैं.जिस जिस प्रकार की वासनाएं अर्जित होती जातीं हैं,वैसा वैसा  ही  'कारण शरीर '
का  निर्माण भी  होता  जाता है. 'कारण शरीर ' के आधार पर ही फिर  'सूक्ष्म' शरीर  व 'स्थूल'
शरीर का निर्माण होता है . परन्तु, हमारा  मरण  कभी नहीं होता. जन्म से पहले  और मृत्यु के
पश्चात भी  हम आत्मा रूप में हमेशा विद्यमान रहते है.

यदि  अपने जीवन काल में ही मैं यह आत्मज्ञान   प्राप्त करलूँ कि न मैं स्थूल शरीर हूँ,
न ही सूक्ष्म और न ही कारण शरीर बल्कि ये मेरे केवल  वस्त्र मात्र हैं जिनको  मैं अपने
कर्म,विचार और भावों  के द्वारा बदलता रहता हूँ,  मेरा वास्तविक स्वरूप निर्गुण, निराकार ,
नित्य, अजर, अमर, 'सत्-चित आनंद है ' और यह आत्मज्ञान मेरे स्थूल शरीरान्त तक बना
रहे  तो  नवीन शरीर ग्रहण करते समय भी  मैं पिछला सब याद रख सकता हूँ व  आनंद में
रमण करते हुए अपना विकास निरंतर  ही करते रह सकता हूँ .निरंतर विकास का अर्थ यहाँ
निष्काम कर्मयोग के द्वारा प्रारब्ध या 'कारण शरीर' के क्षय करने से है .'कारण  शरीर' की वजह
से ही स्थूल शरीर के बंधन में बंधना पड़ता है. 'कारण शरीर' के पूर्णतया क्षय होने पर  स्थूल
शरीर की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है,जिसे जीव की मुक्ति माना जाता है.


परन्तु, आत्मज्ञान न होने की स्थिति में  हम खुद  को अज्ञानवश स्थूल शरीर ही  मान
लेते हैं इसीलिए हमारे  मस्तिष्क में जाने अनजाने यही 'command'  जाता रहता  है कि
स्थूल  शरीर के मरण के साथ ही हमारा भी मरण हो जायेगा. जिस कारण हम स्थूल  शरीर
की मृत्यु के समय मृत्यु भय से ग्रस्त हो अपनी तमाम याददाश्त को ही विस्मृत कर डालतें हैं
और जब नवीन शरीर ग्रहण करते हैं तो पिछला कुछ भी याद नहीं रहता. जबकि ऐसा बचपन
या जवानी की समाप्ति पर नहीं होता.  क्यूंकि बचपन और जवानी की मृत्यु हम सहज मानते हैं
और मस्तिष्क को यह 'command'  कभी नहीं देते कि हम मर गए हैं, इससे ह्मारी याददाश्त
बनी रहती है. ऐसे ही  सोते वक़्त भी  हम यह  कदापि महसूस नहीं करते कि सोने से हम मर
जायेंगें. इसलिये सोकर उठने पर याददाश्त बनी रहती है.  स्थूल शरीर की मृत्यु  के समय
केवल अज्ञान के कारण ही हम खुद के मरने का  गलत 'command'  दे बैठते हैं. फलस्वरूप
 'याददाश्त' का लोप हो  जाता है और सम्पूर्ण ज्ञान विस्मृत हो जाता है.

आत्मज्ञान के द्वारा  हम स्वयं के 'आनंद' स्वरुप का बोध कर पाते हैं .आनंद का  अक्षय
स्रोत अंत:करण में ही  निहित  है. आत्म बोध से  'कारण शरीर' का स्वाभाविक रूप से  क्षय होता है.
आत्मज्ञान रुपी विचार प्रवाह से  आनंद की तरंगें हृदय में उठने लगतीं हैं. जब यह प्रवाह
हृदय में अनवरत व नित्य  प्रकट होने  लगता है तो  दिव्य सरिता  का रूप धारण कर हृदय
की कलुषता  का निवारण करता रहता  है और हृदय को पवित्र पावन बना देता  है,जिससे हृदय
में उपरोक्त वर्णित अवधपुरी का भी  वास होने लगता है. यह आत्मज्ञान रुपी विचार प्रवाह की
दिव्य सरिता ही 'सरयू' नदी  है.

आत्मा  का   ज्ञान   वास्तव  में  एक आश्चर्य ही है. भगवद्गीता (अध्याय २ श्लोक २९) में
इसका निरूपण निम्न प्रकार से किया गया है.

                "कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा  को आश्चर्य की भांति देखता है 
                  और  वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य  की भांति 
                  वर्णन करता है  तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति 
                  सुनता है  और कोई  कोई तो सुनकर भी इसे नहीं जानता "

आश्चर्य इसलिये है कि आत्मा के  विलक्षण आनंद के अनुभव की किसी भी  अन्य आनंद से
तुलना ही नहीं की जा सकती. .आत्मज्ञान रूपी    'सरयू' के जल को  इसी वजह से अति गहन
और गंभीर बताया गया  है.

कहते हैं सरयू के जल में राम जी यानि 'सत्-चित आनंद ' ने 'जल समाधि' ली हुई है.
जिस कारण इसके जल का सेवन करने से 'चिर स्थाई आनंद' का अनोखा स्वाद भी
मिलता है और जीव सहज  शांति  को प्राप्त हो जाता  है. फिर चलिए, अब सोचना क्या है,
पवित्र पावन सरयू नदी  के घाट पर  नित्य स्नान, ध्यान और आचमन कर असीम आनंद
में गोते लगा लिए जाएँ. 

आत्मज्ञान के और अधिक अनुसंधान हेतू श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय-२ (सांख्य योग) का अध्ययन
किया जा सकता है.''साख्य योग" में आत्मज्ञान का समन्वय इस प्रकार से किया गया है जिससे
हम जीवन में निष्काम कर्मयोग प्रतिपादित करने में भी सक्षम हो सकें. इसीलिए भगवद्गीता में
सांख्य योग के पश्चात ही कर्मयोग का निरूपण अध्याय-३ में किया गया है.



राम जी ,दशरथ जी व कौसल्या जी का तत्व चिंतन मेरी पोस्ट 'रामजन्म- आध्यात्मिक चिंतन-१'
में किया गया है.
चारो युगों अर्थात सत् युग ,त्रेता ,द्वापर व कलियुग का तत्व चिंतन मेरी पोस्ट
'रामजन्म -आधात्मिक चिंतन -२'  में किया गया है. तथा
अवधपुरी/अयोध्यापुरी,उपवास का तत्व चिंतन मेरी पोस्ट 'रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन-३' में
किया गया है.
सुधिजन उपरोक्त पोस्टों  का भी अवलोकन कर अपने सुविचारों  की आनंद वृष्टि कर सकते हैं.

मेरा यह सादर अनुरोध है कि उपरोक्त पिछली  पोस्टों का बार बार अवलोकन किया जाये,
जिससे राम, दशरथ, कौसल्या, त्रेता युग, अवधपुरी की स्थापना 'सरयू' जी की कृपा से हमारे हृदय
में ही हो, और 'राम मंदिर'  के लिए हमें दर दर न भटकना पड़े. यदि हृदय में 'राम मंदिर'
का सही प्रकार से  निर्माण हो जाये तो भौतिक जगत में राम मंदिर कहीं भी हो, इसका कोई
फर्क पड़नेवाला नहीं है.कहतें है आस्था और विश्वास से जैसा अंतर्जगत में हो वैसा ब्राह्य
जगत में भी घटित हो जाता है.

सुधिजन इस विषय कि 'रामजन्म और राम मंदिर का क्या स्वरुप हो' पर विस्तार से
अपने अपने विचार प्रकट करें तभी  इन  पोस्टों की सार्थकता का भी अनुभव हो पायेगा.

ओम् सच्चिदानन्देश्वराय नमो नम:

                 







    

Thursday, May 5, 2011

रामजन्म - आध्यात्मिक चिंतन - ३

आनंद का चिंतन करना अदभुत है,  मंगलकारी है . आनंद का एक एक पद, एक एक शब्द,
एक एक अक्षर मधुरातिमधुर  है. आप सुधिजनों ने मेरी पोस्ट 'रामजन्म - आध्यात्मिक चिंतन- १' 
'रामजन्मआध्यात्मिक चिंतन- २'  पर जो टिप्पणियाँ कीं उनमें आनंद ही आनंद समाया है  ,
जिससे मन आनंद निमग्न हों गया है. और विशाल भाई के इन उद्गारों ने  " सत आनंद ,
चित आनंद, असीम आनंद,बोध स्वरूपानंद ,ज्ञान स्वरूपानंद,अनिर्वचनीय  आनंद,अचिन्त्य आनंद,
अपरिमेय आनंद,आनंदमय आनंद, बस आनंद ही आनंद." ने तो मानो आनंद की बरसात ही
कर दी है.

आईये चलिये आनंद की इसी तरंग में ही अब  आगे बढते हैं. राम,  दशरथ, कौशल्या, युगों का
तात्विक चिंतन कर लेने के पश्चात अब 'अवधपुरी' या 'अयोध्यापुरी' का तत्व चिंतन करने का
प्रयास करते हैं. गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं:-

                              नौमि   भौम   वार   मधुमासा,  अवधपुरी    यह    चरित    प्रकासा 
                              बंदउ  अवधपुरी अति पावनि, सरजू सरि कलि कलुष नसावनि

अवधपुरी का शाब्दिक अर्थ है ऐसी पुरी जहाँ कोई वध न हो. इसी प्रकार इसका पर्यायवाची
अयोध्यापुरी का भी अर्थ हैं ऐसी पुरी  जहाँ कोई युद्ध न हो. श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ५, श्लोक १३)
 के अनुसार 'नवद्वारे पुरे देही'  कहकर इस नौ छिद्रों वाले  शरीर को ही नवद्वार रुपी पुरी
बतलाया गया है जिसमें  जीव यानि 'देही' का निवास है.

अपने अपने दृष्टिकोण,भावों और विचारों से हम अपने ही अंदर 'अवधपुरी' या 'लंका पुरी' की
स्थापना कर लेतें हैं. यदि हम स्वयं को शरीर मानकर अपने ही  अहंकाररुपी रावण के साम्राज्य
में आसुरी सम्पदा ईर्ष्या, द्वेष,चिंता, दुराशा,दंभ आदि को लेकर जीते हैं तो लंकापुरी की स्थापना
हो जाती हैं.परन्तु, अवधपुरी की स्थापना के लिए अपने को शरीर मानना छोड़ हमें सद्विवेक का
अनुसरण कर  'आत्मज्ञान'  की आवश्यकता है.

हमारे शास्त्रों में शरीर को  आत्मा का एक  आवरण मात्र बताया गया है. मै जब अपने
को शरीर मानता हूँ तो उसका 'वध' अथवा मरण  अवश्यम्भावी  है.जिस कारण मृत्यु भय
मुझे सताने लगता है.मृत्यु भय के रहते हृदय में 'रामजन्म' यानि चिर स्थाई आनंद का उदय
होना सम्भव ही नहीं है मृत्यु भय के कारण ही मै जीवन में तरह तरह की कुचेष्टायें  करता हूँ.
समस्त भ्रष्ट आचरण की जननी ऐसी कुचेष्टाएं ही हैं .परन्तु , जब मै स्वयं को
'सत्-चित-आनंद' परमात्मा का अंश 'आत्मा'  मानता हूँ तो आत्मा के  अवध होने के कारण मुझे
यह समझ आ जाता है कि मेरी   मृत्यु किसी भी प्रकार से भी सम्भव नहीं है. मै मृत्यु के
भय से निजात पा अपने ही स्वरुप 'आनंद' का  निर्बाध रूप से चिंतन व अनुभव करने में
समर्थ  हो जाता हूँ.  श्रीमद्भगवद्गीता में आत्मा के बारे में कहा गया है :-

                                  नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः
                                  न  चैनं  क्लेदयन्त्यापो  न शोषयति मारुत:
अर्थात इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती,जल गला नहीं सकता,
और वायु सुखा नहीं सकती.

आत्मा का स्वरुप अजर है, अमर है,नित्य है, 'सत्-चित-आनंद' है, अवध है, अर्थात आत्मा का
'वध' कभी भी सम्भव नहीं है  जब इन भावों और विचारों का विवेकपूर्ण पोषण कर मै अपने
हृदय में गहन चिंतन द्वारा अच्छी प्रकार से स्थापित कर लेता हूँ तभी मेरे हृदय में 'अवधपुरी'   
स्थापित होने  लगती है.  मृत्यु का डर मेरे  हृदय से निकल जाता है ,  हृदय  शांत हो जाता है. 
मेरे विचारों और भावों में भी कोई किसी प्रकार का  संघर्ष या युद्ध नहीं रह जाता ,  इसीलिए 
अवधपुरी को  'अयोध्यापुरी' भी कहा गया है. ऐसी अयोध्या या अवधपुरी में ही राम यानि
'सत्-चित-आनंद' का जन्म नवमी तिथि, दिन मंगलवार (भौम) और मधुमास यानि बसंत ऋतु
में होता  है.

नवमी तिथि,मंगलवार और मधुमास  हृदय की उन स्थिति का सूचक हैं जब आत्मज्ञान की
साधना ,अभ्यास और उपवास परिपक्वता को प्राप्त हो,और हृदय में मंगल व उल्लास का सर्वत्र
संचार हो जाये.  'उपवास' का अर्थ   केवल कुछ खाना पीना छोडना मात्र नहीं ,बल्कि
मन बुद्धि के साथ राम के निकट जप, ध्यान और उपासना के द्वारा  वास करना है .
'सत्-चित-आनंद' का भाव तब  विभिन्न रंगों से मन को सदा सराबोर  किये रखता है और
मन  सहज ही गा उठता है :-

                        होली खेले रघुबीरा,   अवध में होली खेले रघुबीरा

ऐसी पावन अवधपुरी को हमारा शत शत नमन है, जिसमें आत्मज्ञान रूपी 'सरजू' नदी सदा
प्रवाहित होती रहती  है, जो 'कलियुग' की कलुषता  का हृदय से नाश करती है और जिसमें 
राम का जन्म होकर   राम चरित्र का प्रकाश हो पाता  है. अफ़सोस!  ऐसे विकार रहित प्रभु
के हृदय में रहते भी जगत के सब जीव दीन और दुःखी है, नाम का निरूपण करके नाम
का यत्न पूर्वक जप रुपी  साधन करने से वही राम ऐसे प्रकट हो जाता है जैसे रत्न के
जानने से उसका मूल्य. इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं :-
        
               अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी , सकल जीव जग दीन दुखारी
               नाम निरूपन  नाम  जतन ते , सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें

राम,  दशरथ व कौशल्या  के बारे में मेरी पोस्ट 'रामजन्म-आध्यात्मिक चिंतन-१' तथा चारो
युगों (सतयुग,द्वापर ,त्रेता एवम कलियुग) के बारे में मेरी  पिछली  पोस्ट
'रामजन्म-आध्यात्मिक चिंतन-२' में  प्रकाश डाला गया है.जो सुधिजन चाहें वे  इन पोस्टों 
का अवलोकन कर अपने सुविचार प्रकट कर आनंद की वृष्टि कर  सकते हैं.

                     

Thursday, April 21, 2011

रामजन्म - आध्यात्मिक चिंतन -२

राम यानि 'सत्-चित-आनंद' का भाव  व्यक्ति के  ह्रदय में जैसे जैसे घर करने लगता है,
उस व्यक्ति के विचारों, उसके भावों और कर्मों में भी यह भाव परिलक्षित होने  लगता है.
वह बोलेगा तो आनंद होगा, वह लिखेगा तो आनंद होगा , वह मूर्ति या चित्र बनायेगा तो
उसकी बनाई मूर्ति या चित्र में भी आनंद द्रष्टिगोचर होगा . आनंद का चिंतन किसी भी
प्रकार से  निरर्थक नहीं हो सकता  है, अत: आनंद को  धारण करना अति आवश्यक है.

हृदय में आनंद का भाव जैसे जैसे किशोर अवस्था को प्राप्त करेगा तो वह  व्यक्ति की
दुराशा का भी नाश करेगा. यह दुराशा (wrong expectation) ही 'ताडका' रुपी राक्षसनी है, जो
जीवन में उलझन व भटकाव पैदा करती रहती  है. अपनी दुराशाओं की वजह से ही व्यक्ति
अपने अच्छे खासे जीवन को भी  नरक बना लेता है,

आनंद का भाव फिर आगे जाकर व्यक्ति की कठोरता, निष्ठुरता का भी अंत कर डालता है.
ये कठोरता और निष्ठुरता ही मानो  'खर-दूषण'  हैं ,जो  मन रुपी वन में छिपे दुर्दांत राक्षस हैं.
फिर अंत में यही आनंद  का भाव  उस व्यक्ति के अहंकार यानि 'दशानन' अथवा रावण को भी
मार गिरा कर रामराज्य या पूर्णानंद की स्थापना कर देता है.  अहंकार को 'दशानन'  इसलिये
कहा  कि इसके भी दशों सिर होतें हैं.  धन का, बल का , विद्या का , रूप का, यौवन का 
आदि आदि.  अहंकार के मरे बैगर 'पूर्णानंद' की स्थिति को प्राप्त नहीं किया जा सकता.

यदि हम किसी भी महापुरुष की जीवनी का सूक्ष्म अध्ययन करें तो पायेंगें कि उन
महापुरुष ने जीवन में 'सत्-चित-आनंद'  भाव को ही धारण किया और अपनाया  था ,जिस
वजह से वे महापुरुष बन सके  और जन जन  से  उनको सम्मान मिला. यह  जरूरी  नहीं कि
'सत्-चित -आनंद'  भाव को केवल रामरूप में ही धारण किया जाये. अपनी अपनी रुचि और
आस्था अनुसार वह कृष्ण, अल्लाह या ईसा आदि भी हो सकता है.

चूँकि  इस लेख में हम रामजन्म का आध्यात्मिक चिंतन  करने की कोशिश कर  रहें हैं,
तो फिर रामजन्म पर ही पुनः विचार करतें हैं.  राम के पिता 'दशरथ'जी को व राम की
माता 'कौशल्या' जी को हमने पिछले लेख 'रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन -१'  में समझने
का एक प्रयास किया था.  मन को यदि 'दशरथ' और बुद्धि को 'कौशल्या' बना लिया जाये
तो  राम का जन्म हमारे हृदय में ही संभव है.

कहतें हैं राम का जन्म त्रेता युग में हुआ था. अब हम  त्रेता युग में कैसे पहुंचें आईये इस
पर भी विचार करते हैं. गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस के 'उत्तरकांड' के दोहा
संख्या १०३ (ख} से आगे निम्न प्रकार से चारो युगों का निरूपण किया हैं:-

                      नित जुग धर्म   होहिं सब केरे ,   हृदयँ राम माया के प्रेरे 
                      सुद्ध सत्व  समता बिग्याना , कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना 

श्रीराम जी की माया से प्रेरित होकर सबके हृदयों  में सभी युगों के धर्म नित्य होते रहते हैं.
शुद्ध सत्व गुण , समता ,विज्ञान और मन का प्रसन्न होना ही 'सतयुग'  का प्रभाव होता है.
यानि यदि हममें सम्यक ज्ञान है, विवेक है,  समता है विज्ञान है और मन भी हमारा प्रसन्न
है तो कहा जा सकता है कि हम 'सतयुग' में  जी रहें हैं. गोस्वामी जी आगे लिखते हैं:-

                      सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा , सब विधि सुख त्रेता का धर्मा
                      बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस, द्वापर धर्म हरष भय मानस

सत्वगुण अधिक हो ,कुछ रजो गुण हो ,अर्थात क्रियाशीलता हो, कर्मों में प्रीति हो, सब प्रकार
से सुख हो तो यह त्रेता का धर्म है. यानि सतोगुण के रूप में  ज्ञान और विवेक के साथ साथ
कुछ क्रियाशीलता स्वरुप  कर्मों में प्रीति होने से हृदय में रजो गुण का भी संचार हो तो कह
सकते हैं कि उस समय हम 'त्रेता युग' में जी रहें हैं
.
परन्तु जब रजोगुण अधिक बढ़ जाये, सत्व गुण के रूप में ज्ञान और विवेक थोडा ही रह जाये
और कुछ तमोगुण के रूप में ह्रदय में आलस्य ,प्रमाद, अज्ञान और हिंसा का भी संचार होकर
मन में  कभी हर्ष  हो ,कभी भय हो तब  कह सकते हैं हम 'द्वापर युग' में जी रहे हैं.
'कलियुग' का निरूपण करते हुए गोस्वामीजी आगे  लिखते हैं:-

                      तामस बहुत रजोगुण थोरा ,   कलि प्रभाव विरोध चहुँ ओरा

तमोगुण अर्थात आलस्य, अज्ञान, प्रमाद,  हिंसा आदि हृदय में  बहुत बढ़ जाये ,रजोगुण
अर्थात क्रियाशीलता कम हो जाये, और ज्ञान व विवेक का तो मानो लोप ही हो जाये,
हृदय में चहुँ ओर विरोधी वृत्तियों का ही वास हो, सब तरफ अप्रसन्नता और विरोध हो,
तो कह सकते हैं हम उस समय 'घोर 'कलियुग' में ही जी रहे है.

यदि हम 'कलियुग' में जी रहें हो तो क्या यह संभव है कि हम अपनी मन:स्थिति को "त्रेता
युग' की बना लें. गोस्वामीजी इसका उत्तर इस प्रकार से देते हैं:-

                     बुध जुग धर्म जानी मन माहीं , तजि अधर्म रति धर्म कराहीं 

बुद्धिमान लोग अपने मन का अवलोकन कर यह जान लेते हैं कि उनका मन कब  किस
स्थिति में हैं .यानि मन 'कलियुग' में है या द्वापर में . वे मन कि स्थिति में सुधार लाने
के लिए तब अधर्म को तज  कर धर्म करने में रूचि लेने लगते हैं. धर्म करने का तात्पर्य यहाँ
उन बातों के पालन करने से है जिससे मन में सतोगुण का उदय होकर ज्ञान और विवेक का
संचार हो और तमोगुण व रजोगुण घटकर  'सत्-चित-आनंद ' भाव को ह्रदय में स्थाई रूप से
धारण किया जा सके. 

विभिन्न साधनों जैसे नामजप आदि  में सत्संग भी इसके लिए अति उत्तम साधन है.
सत्संग के सम्बन्ध में  कुछ विचार मेरी पोस्ट 'बिनु सत्संग बिबेक न होई'  में भी  किया
गया है. मेरा  सुधिजनों से निवेदन है कि सत्संग पर चिंतन के  लिए वे मेरी कथित पोस्ट
का अवलोकन कर सकते हैं.

यहाँ पर यह बताना भी मै उचित समझता हूँ कि तीनो गुणों अर्थात सतोगुण, रजोगुण व
तमोगुण के बारें में विस्तृत विवेचना भगवद्गीता के १४ वें अध्याय 'गुणत्रयविभागयोग'
में की गई जिसका सुधिजन अध्ययन कर लाभ उठा सकतें हैं.

इस प्रकार से हम श्री रामचरित्र मानस में और श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित ज्ञान के आधार
पर  स्वयं अपने हृदय में ही 'त्रेतायुग' का उदय कर रामजन्म का मार्ग प्रशस्त कर सकतें हैं.

इससे अगली पोस्ट में हम 'अवधपुरी' / 'अयोध्यापुरी'  व 'उपवास' आदि पर विचार करने
का प्रयास करेंगे.

मेरी चारों 'युगों' पर  जी टीवी के मंथन कार्यकर्म में की गई  चर्चा का
कुछ अंश ' http://www.zeenews.com/video/showvideo11180.html '  पर उपलब्ध है.
मेरा  शुरू का परिचय  ' http://www.zeenews.com/video/showvideo11181.html '  पर
कराया गया है.


         


Wednesday, April 13, 2011

रामजन्म - आध्यात्मिक चिंतन -१

रामजन्म के पावन पर्व रामनवमी  की समस्त ब्लोगर जन को हार्दिक शुभकामनाएं.
इस पोस्ट में मै आप सभी सुधिजनों के साथ रामजन्म  के विषय  में आध्यात्मिक चिंतन
करना चाहता हूँ ,जिसपर मैंने अपने कुछ विचार " जी न्यूज "  चैनल पर रामनवमी के 
दिन  (दि. १२.०४ .२०११)  को "मंथन" कार्यकर्म (सुबह ६ से ७ बजे) में  प्रस्तुत किये थे.

इस कार्यकर्म के लिए  मै न तो कोई विशेष तैय्यारी कर पाया था और न ही मुझे ऐसे किसी
कार्यकर्म में सम्मिलित होने का  कोई किसी प्रकार का अनुभव था.जो भी विचार मैं अपने
इस कार्यकर्म में रख पाया ,हो सकता है उनमें  त्रुटियाँ रह गई हों.  इसीलिए  इस पोस्ट का
सर्जन कर रहा हूँ  ताकि उन विचारों को यहाँ  सम्मिलित करते हुए आप सभी सुधिजनों  के समक्ष
भी रामजन्म पर  आध्यात्मिक चिंतन प्रस्तुत कर सकूँ.आशा है आप सभी   सुधिजन इस चिंतन
में सम्मलित हो अपने अपने बहुमूल्य विचारों को प्रस्तुत कर चर्चा को सार्थकता प्रदान करेंगें.

विषय को आगे बढ़ाने से पूर्व मै अपना हार्दिक  आभार व धन्यवाद  "जी न्यूज" चैनल   को,
प्रिय भाई खुशदीप जी, आदरणीय सर्जना शर्माजी, कार्यकर्म के संचालक श्री विनोद कुमार शर्माजी
और एंकर ममता जी व 'मंथन ' कार्यकर्म  की समस्त  टीम  व स्टाफ   को प्रेषित करना चाहता हूँ,
जिनके प्रोत्साहन व सहयोग की बिना मै रामजन्म पर अपना चिंतन 'मंथन' कार्यकर्म में  प्रस्तुत
नहीं कर सकता था.
मै सर्जना शर्मा जी के अच्छे स्वास्थ्य के लिए दुआ करता हूँ और भगवान से प्रार्थना करता हूँ
कि वे  अतिशीघ्र स्वास्थ्य लाभ कर अपने 'रसबतिया' ब्लॉग के माध्यम से हम सब में भी सैदेव
रस और मंगल का संचार करती रहें.

राम को हम तीन स्तरों पर जान सकते हैं. आधिभौतिक ,आधिदैविक  और आध्यात्मिक .
आधिभौतिक के द्वारा हम राम को  भौतिक जगत में इतिहास ,भूगोल आदि के माध्यम से जानने
का प्रयास करते हैं, आधिदैविक में हम उनके  दैवीय पक्ष को पुराणों आदि के माध्यम से जान पाते हैं.
आध्यात्मिक में हम उनको तत्व चिंतन के द्वारा जानने का प्रयत्न करते हैं.इस पोस्ट में मेरा ध्येय
राम को आध्यात्मिक चिंतन के द्वारा  जानने और समझने  का  है.

राम वह है जो कण  कण में रमता हैं .वह परमात्मा है वह ही परमधाम है, जिसको पाकर हमें
पूर्ण शांति और विश्राम  आये.वह निराकार भी है और साकार भी , निर्गुण भी है और सगुण भी.
भगवद्गीता के १२ वें अध्याय 'भक्ति योग' के अनुसार परमात्मा की भक्ति उनके निर्गुण निराकार
व सगुण  साकार दोनों ही रूपों  को ध्यान में रख कर  की जा सकती है.आवश्यकता  है तो मन और बुद्धि
को परमात्मा में लगाने की .गीता (अ.१२ श.८)  में कहा गया है
                                   मय्येव मन आधत्स्व  मयि बुद्धिं  निवेशय
अर्थात तू मुझ में ही मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि का निवेश कर ,इसके उपरांत तू मुझ में ही
निवास करेगा,इसमें कुछ भी संशय नहीं है .

अनेक  उदहारण  से  हम साकार  को समझ सकते हैं.  जैसे पानी भाप  रूप  में निराकार होता है
परन्तु यदि उसको ठंडा करके किसी बर्तन में जमा लिया जाये तो वही  बर्फ रूप में  साकार हो जाता है
और वही रूप  ले लेता है जो बर्तन का होता है. इसी प्रकार निराकार परमात्मा  भक्तों के हृदय रुपी
बर्तन में श्रद्धा और भक्ति से घनीभूत हो साकार रूप से भी व्यक्त होजाता  है.
तुलसीदासजी  ने रामचरित्र मानस में राम के निर्गुण निराकार और सगुण साकार दोनों ही रूपों की
अति सुन्दर विवेचना की है. निर्गुण निराकार रूप का वर्णन करते हुए तुलसी लिखते हैं
                             एक अनीह अरूप अनामा , अज सचिदानंद  पर धामा 
यानि परमात्मा एक है, उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं है , उसका कोई रूप नहीं है, उसका कोई नाम नहीं है 
उसका कोई जन्म नहीं है, वह सत्-चित-आनन्द  है  और वह ही परमधाम है.
दूसरी ओर तुलसी राम की बाल छवि  को ह्रदय में आकार देते हुए आनन्द से  निहारते हुए  कहतें हैं

                         " वर दन्त की पंगति  कुंद कली,अधराधर पल्लव खोलन की 
                           चपला चमके घन बीच  जगे, ज्यूँ मोतिन माल अमोलन की 
                           घुन्घरारी लटें  लटकें मुख  ऊपर    ,कुंडल लोल कपोलन की
                           न्योछावरी प्राण करें तुलसी, बलि जाऊं लला इन बोलन  की " 

तथ्य यह है कि  हम सब आनन्द चाहते हैं और आनन्द की खोज में ही जीवन में भटक रहे हैं.
सच्चे आनन्द के स्वरुप को न जानने और न पहचानने की वजह से ही यह भटकन है.
यदि हमें ऐसा आनन्द मिले जो क्षणिक हो,अस्थाई हो ,समय से बाधित हो ,आज हो कल न हो ,
तो उससे हमे पूर्ण संतुष्टि और आराम नहीं मिल सकता. परन्तु  यदि आनन्द 'सत् ' हो ,चिर
स्थाई हो ,काल बाधित न हो, हमेशा बना रहे,ज्ञान और प्रकाश स्वरुप हो अर्थात 'चेतन' हो तो
ऐसा ही आनन्द 'सत्-चित-आनन्द' होता है जिसकी  हम खोज रहे हैं , जिसे शास्त्रों में परमात्मा कहा
गया है.ऐसे आनन्द को प्राप्त करना ही  हमारा परम लक्ष्य है,वही आखरी मंजिल है
इसीलिए वह ही 'परम धाम' है.  आनन्द के सम्बन्ध में कोई पूर्वाग्रह करना कि वह
निर्गुण निराकार ही  हो, या सगुण साकार न हो उचित नहीं जान पड़ता.

कहते हैं राम के पिता का नाम दशरथ है.तुलसी लिखते हैं
                            'मंगल भवन अमंगलहारी ,द्रवउ सो दशरथ अजिर बिहारी '
दसरथ के आँगन में बिहार करनेवाले मंगल के भवन और अमंगल का हरण करने वाले श्रीराम
मेरे पर द्रवित हों,अर्थात पसीजें मेरे पर कृपा करें.

दशरथ का तात्पर्य   सतोगुण संपन्न ऐसा मन है जो पांच ज्ञानेन्द्रियों और पांच कर्मेन्द्रियों के दश
रथों  पर सवार होकर जीवन में नौ श्रेष्ठ  मनोरथों को छोड़ ,दशम सर्वश्रेष्ठ  मनोरथ 'सत्-चित आनन्द '
को ही ध्येय  बना उसे  मन के आँगन में ही प्राप्त भी कर लेता है.इसलिये ऐसा मन दशरथ है और
सत्-चित -आनन्द रुपी  राम का जनक है.

यह भी कहते हैं कि राम की माता का नाम कौशल्या है. तुलसी लिखते हैं
                           "बंदउ कौशल्या दिसि प्राची ,कीरती जासु सकल जग माची "
मै कौशल्या जी की वंदना करता हूँ जो  कि 'पूर्व दिशा ' हैं, जिनकी ख्याति समस्त जगत में फैली
हुई   है. पूर्व दिशा में ही सूर्य का उदय होता है.यहाँ  'सत्-चित आनन्द ' का भाव ही सूर्य है.
कौशल्या वह बुद्धि है जो विचार करने में  अति कुशल है, सूक्ष्म है,एकाग्र  है, और सद्-चिंतन
के कौशल से " सत्-चित-आनन्द " भाव यानि राम जी का प्रसव करती है. इसलिये ऐसी बुद्धि
कौशल्या है और रामजी की माता है.

अब एक उदहारण  द्वारा इसको समझने का पुनः प्रयास करतें हैं. यदि  एक सुन्दर महल बना है
तो वह सगुण साकार रूप में नजर आता है. परन्तु जब वह महल  नहीं बना  था,तब वह  निर्गुण
निराकार के रूप में उसके रचयिता  के मानस में विद्यमान  था . पहले उसको  बनाने का भाव
रचियता के मन में प्रकट हुआ ,वही पुष्ट होकर जब मन में स्थापित हो गया और रचियता की
बुद्धि ने उसपर गहन मनन किया तो  प्रथम उस महल का नक्शा प्रकट हुआ और फिर जब उसका
नक़्शे  अनुसार ही निर्माण किया गया तो वह महल सगुण  साकार  रूप में प्रकट हो गया.सगुण
साकार रूप में वह महल वही वही सुविधा व आराम देने लगा जिन जिन को उसके रचयिता ने
अपने मन और बुद्धि  में धारण किया था. यदि उस महल में कमियां होंगी तो उन सब का कारण
रचियता के मन और बुद्धि ही हैं.

यदि मन हमारा दशरथ हो, बुद्धि हमारी कौशल्या  तो ही वे राम यानि सत्-चित-आनन्द  को जन्म
दे सकतें हैं और ऐसे ही मन और बुद्धि वन्दनीय है,  तुलसी के शब्दों में हम फिर  कह सकतें हैं

                         " भये प्रकट कृपाला ,दींन दयाला  कौसल्या हितकारी 
                            हर्षित महतारी ,मुनि मन हारी,अदभुत रूप विचारी 


रामजन्म की सभी को एक बार फिर शत शत बधाइयाँ .

अगली पोस्ट में हम अवधपुरी, त्रेतायुग, उपवास आदि का  तत्व चिंतन करने का प्रयास करेंगें,
जिनका चिंतन उपरोक्त जी न्यूज चैनल के' मंथन ' कार्यकर्म  में भी किया गया था.रामनवमी
पर प्रसारित  मंथन प्रोग्राम को 'www.zeenews.com'  और संभवतः 'www.youtube.com' पर भी
देखा जा सकता है.

बैसाखी के पावन पर्व की सभी सुधिजनों को हार्दिक शुभकामनाएँ !

Monday, April 4, 2011

वंदे वाणी विनायकौ

           वर्णानां अर्थसंघानां रसानां छंद सामपि,
           मंगलानां च कर्त्तारौ वंदे वाणीविनायकौ

अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छंदों और मंगलों के करने वाले वाणी विनायक जी की मै
वंदना करता हूँ. यह प्रार्थना तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के बालकाण्ड में सबसे
पहले की है.

वाणी का प्रयोग हम सर्वत्र करते हैं, फिर चाहे वह लेख हो या कविता. ब्लॉग जगत में
भी हम अपनी वाणी को अपनी पोस्ट के माध्यम से व टिपण्णी और प्रतिटिपण्णी के 
माध्यम से व्यक्त करने की कोशिश करते हैं. वाणी विनायक ऐसे शुभ चिंतन और विवेक
का प्रतीक हैं  जिसके आवाहन  से वाणी में निम्न तत्व दृष्टिगोचर होने लगते हैं, जिनमें से 
यदि एक भी रह जाये तो   वाणी की सफलता अधूरी ही जान पड़ती है. 

वर्णानां        -    वाणी वर्णों के बिना व्यक्त नहीं हो सकती. वर्णों का ज्ञान और उनका 
                      प्रयोग करना आना चाहिए. यदि हिन्दी में वाणी व्यक्त कर रहें हैं तो 'क'
                      'ख' ,'ग'  तो आना ही चाहिये. 

अर्थसंघानां  -     जिन वर्णों का हम प्रयोग कर कर रहें उनसे कुछ अर्थ या उनका मतलब भी
                      निकलना चाहिये. अर्थ एक ही नहीं अनेक भी हो सकते है. इसीलिए कहा गया
                       'अर्थ संघानां'

रसानां          -   जो अर्थ वर्णों  के प्रयोग से निकले, उसके द्वारा रस का संचार भी होना चाहिये .
                      बिना रस के अर्थ रुखा रुखा सा ही लगता है. 

छंद सामपि -    रसमय अर्थ के अतिरिक्त वाणी सुन्दर गायन भी प्रस्तुत करे तो कर्णप्रिय,
                       मधुर  व और भी उत्तम हो जाती है.

मंगलानां       -   जब वाणी मंगल करने वाली भी हो तो वह सर्वोत्तम हो जाती है.

वाणी को उपरोक्त तत्वों से ओतप्रोत करने के लिए ही वाणी के तप की आवश्यकता है.
तप का अर्थ है सीखना, सदैव प्रयासरत  रहना.  भगवदगीता में वाणी के तप के बारे में
कहा गया है (अ.१७   श्.१५)
              
                            अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्
                            स्वाध्याय अभ्यसनम चैव वाड़्मयम् तप उच्यते

अर्थात जो वाक्य  उद्वेग न करने वाले हों , किसीको पीड़ा न पहुचानें वाले हों, सत्य हों,
प्रिय हों और हित अर्थात मंगल करनेवाले भी हों ,जो स्वाध्याय, सद् ग्रंथों के पढ़ने, मनन
करने के अभ्यास  का परिणाम हों, वे वाणी का तप कहलाते है.

वाणी केवल सत्य हो, पर कड़वी हो और हित  न करती हो  तो ऐसी वाणी भी अनुकरणीय
नहीं हो सकती. जैसे एक मरणासन्न व्यक्ति को डाक्टर उसे दिलासा दिलाता है कि वह
ठीक हो जायेगा ,यध्यपि असत्य  है पर  गलत नहीं माना जाता . क्यूंकि यह दिलासा हित
करनेवाला है और मरीज में  नई जान भी फूँक सकता है.

जो भले व्यक्ति हैं वे हमेशा भलाई ही ग्रहण करने में लगे रहतें हैं. भले ही किसी पोस्ट में
वाणी के उपरोक्त सभी तत्व मौजूद न भी हों ,परन्तु यदि  हित अथवा मंगल का तत्व
उसमें है तो भी वे उसे ग्रहण  करते हैं  अर्थात 'सार सार को गहि लई, थोथा दई उडाय'. 
परन्तु नीच का स्वाभाव इसके उलट होता है.  वे किसी न किसी प्रकार से निंदा करना ही
पसंद करते हैं. कहा  गया है :-

                              भलो भलाइहि पई लहइ, लहइ निचाइहि नीचु
                              सुधा सराहिअ अमरताँ ,गरल सराहिअ   मीचु

भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण करता है. अमृत की सराहना
अमर करने में होती है और विष की मारने में.

मेरा सभी सुधिजनों से विनम्र निवेदन है की मेरी इस पोस्ट और पिछली पोस्टों  में जो भी
उचित और मंगलकारी लगे केवल उसी को ग्रहण किया जावे. मै कोई उपदेशक नहीं , न ही
कोई लेखक या कोई ज्ञानी ध्यानी . बस एक साधारणसा ब्लोगर मात्र  हूँ, आप सबके बीच
केवल  विचारों के आदान प्रदान करने हेतू ही चला आया हूँ'  कुछ 'फोकटिया सत्संग' के माध्यम से.

आशा है आप मुझे सहन और स्वीकार करेंगे.  मेरी यह पोस्ट पढकर यदि आपको ऐसा लगे
कि आपका कीमती समय व्यर्थ हुआ है अथवा मेरे से कोई  त्रुटि रह गयी हो या गलत बात
लिखी गयी हो तो आप मुझे क्षमा करेंगें.  इस पोस्ट पर जो भी टिपण्णी आप करें मन से और
सच्चाई से  करें, ताकि भविष्य के लिए मेरा उचित मार्गदर्शन हो सके और मैं अपने में
वांछित सुधार ला सकूँ.

                          सर्वे भवन्तुः सुखिनः सर्वे संतु निरामयः

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