बुद्धिहीन तनु जानकर, सुमिरौं पवन कुमार
बल बुधि बिद्या देहु मोहिं,हरहु कलेस बिकार
मैं स्वयं को बुद्धिहीन तन जानकर पवन कुमार हनुमान जी का स्मरण करता हूँ जो मुझे बल,बुद्धि और विद्या प्रदान कर मेरे समस्त क्लेश विकारों को हर लें.
साधरणतः जीवन का परम लक्ष्य और उसको पाने का साधन न जानने के कारण हम 'मूढ़' अर्थात बुद्धिहीन ही होते हैं.बुद्धिमान वही है जिसको जीवन का लक्ष्य और उस ओर चलने के साधन का भलीभांति पता है और जो परम् लक्ष्य की तरफ चलने के लिए निरंतर प्रयत्नशील भी है.
परन्तु, परम लक्ष्य की ओर चलना इतना आसान नही है.इसके लिए बल,बुद्धि,विद्या का प्राप्त होना और क्लेशों का हरण होते रहना अत्यंत आवश्यक है.यह सब हनुमान जी, जो वास्तव में 'जप यज्ञ' व 'प्राणायाम' का साक्षात ज्वलंत स्वरुप ही हैं, के स्मरण और अवलम्बन से सरलता से सम्भव होता है.
हनुमान लीला भाग-५ में हमने हनुमान लीला के सन्दर्भ में श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न श्लोक की व्याख्या का प्रयास किया था:-
निर्मानमोहा जित संगदोषा, अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदु:खसंज्ञैर ,गच्छ्न्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्
बल बुधि बिद्या देहु मोहिं,हरहु कलेस बिकार
मैं स्वयं को बुद्धिहीन तन जानकर पवन कुमार हनुमान जी का स्मरण करता हूँ जो मुझे बल,बुद्धि और विद्या प्रदान कर मेरे समस्त क्लेश विकारों को हर लें.
साधरणतः जीवन का परम लक्ष्य और उसको पाने का साधन न जानने के कारण हम 'मूढ़' अर्थात बुद्धिहीन ही होते हैं.बुद्धिमान वही है जिसको जीवन का लक्ष्य और उस ओर चलने के साधन का भलीभांति पता है और जो परम् लक्ष्य की तरफ चलने के लिए निरंतर प्रयत्नशील भी है.
परन्तु, परम लक्ष्य की ओर चलना इतना आसान नही है.इसके लिए बल,बुद्धि,विद्या का प्राप्त होना और क्लेशों का हरण होते रहना अत्यंत आवश्यक है.यह सब हनुमान जी, जो वास्तव में 'जप यज्ञ' व 'प्राणायाम' का साक्षात ज्वलंत स्वरुप ही हैं, के स्मरण और अवलम्बन से सरलता से सम्भव होता है.
हनुमान लीला भाग-५ में हमने हनुमान लीला के सन्दर्भ में श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न श्लोक की व्याख्या का प्रयास किया था:-
निर्मानमोहा जित संगदोषा, अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदु:खसंज्ञैर ,गच्छ्न्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्
श्रीमद्भगवद्गीता में परम् लक्ष्य को ही 'पदमव्ययं' (पदम् +अव्ययं) यानि कभी भी व्यय न होने वाले पद को कहा गया है.यह वास्तव में 'सत्-चित-आनन्द' या राम को पा जाने की स्थिति ही है.पदमव्ययं की तरफ 'मूढ़' होकर कदापि भी नही चला जा सकता. इसके लिए 'अमूढ़ ' होना परम आवश्यक है.इसीलिए तो उपरोक्त
श्लोक में कहा गया है 'गच्छन्ति + अमूढाः पदम् अव्ययं तत्' यानि 'अमूढ़' ही कभी क्षीण न होने वाले उस
अव्यय पद की ओर जाते हैं'.
श्रीमद्भगवतगीता में 'मूढ़ता' की विभिन्न स्थितियों का जिक्र हुआ है.जैसे कि
'विमूढ' - जिसमें विवेकशक्ति लगभग शून्य हो.
'मूढ़' - जो थोड़ी बहुत विवेक शक्ति रखता हो, परन्तु जो अपनी मूढता को पहचानने में असमर्थ हो.
'सम्मूढ' - जो मूढ़ तो हो परन्तु अपनी मूढता का आत्मावलोकन कर सके.
जैसा कि अर्जुन ने भगवान कृष्ण की शरण में आने से पूर्व 'कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः, पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः' कहकर किया.अर्जुन ने अपना आत्मावलोकन करने के पश्चात स्वीकार किया कि वह कायरतारूपी दोष से ग्रसित है और धर्म को न जानते हुए 'सम्मूढ' ही है,इसलिए वह भगवान कृष्ण से 'श्रेष्ठ और निश्चित (Permanent)कल्याणकारी' मार्ग बतलाने की याचना करता है.
अमूढ़ - जिसकी मूढ़ता सर्वथा समाप्त हो गई है.यानि जो विवेक शक्ति से संपन्न हो जीवन के परम
लक्ष्य को और उस ओर जाने के साधन को भलीभाँति जानता है.
हनुमान जी की भक्ति से हम विमूढ़ से मूढ़ , मूढ़ से 'सम्मूढ' और 'सम्मूढ' से 'अमूढ़ ' होकर 'गच्छ्न्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्' यानि जीवन के परम लक्ष्य की ओर जाने का सच्चा और सार्थक प्रयास कर सकते हैं. याद रहे अर्जुन ने भी अपने रथ पर कपिध्वज को ही धारण किया था,जिस कारण वह श्रीमद्भगवद्गीता रुपी दुर्लभ अमृत ज्ञान का रसपान कर सका.
निर्मान,अमोहा, जित्संग दोषा,अध्यात्म नित्या की व्याख्या हमने 'हनुमान लीला भाग-५' में की थी.सुधिजन चाहें तो हनुमान लीला भाग-५ का पुनरावलोकन कर सकते हैं. यहाँ मैं इतना स्पष्ट करना चाहूँगा 'निर्मान' होना अपने को ही मान देने की प्रवृति से सर्वथा मुक्त हो जाना है. क्यूंकि जब हम स्वयं को कोई मान देते हैं और दुसरे उस मान को अनदेखा कर कोई मान नही देते हैं या उससे कम मान देते हैं तो हम 'अपमानित' महसूस कर सकते हैं और हममें क्रोध या 'Inferiority complex' का संचार हो जाता है.इसी प्रकार यदि हमारे स्वयं के दिए हुए मान से दुसरे हमें अधिक मान देते हैं तो हम अपने को 'सम्मानित' महसूस कर सकते हैं जिससे हममें 'अहंकार' या 'Superiority complex' का संचार हो जाता है. Inferiority या Superiority complex दोनों ही अध्यात्म पथ में बाधक हैं. परम श्रद्धेय हनुमान जी ने लंका में विभीषण से मित्रता करते वक़्त उनके साधू लक्षण को पहचानते हुए 'एही सन हठ करिहऊँ पहिचानी' के principle का अवलंबन किया और 'Superiority complex' का सर्वथा त्याग करते हुए कहा 'कहहु कवन मैं परम कुलीना,कपि चंचल सबहीं बिधि हीना'. इसी प्रकार राक्षसों द्वारा बाँधे जाने,लात घूंसे खाते घसीट कर ले जाते हुए भी उन्होंने 'Inferiority complex' का सर्वथा त्याग करके मन बुद्धि को अपने रामदूत होने के कर्म को करने में यानि 'रावण से मिलने व उसको रामजी का सन्देश देने ' के लक्ष्य पर ही केंद्रित किये रखा.
आईये अब उपरोक्त श्लोक में वर्णित शेष तीन साधनाओं ( विनिवृत्तकामाः, द्वन्द्वैर्विमुक्ताः, सुखदु:खसंज्ञैर ) की व्याख्या करने की कोशिश करते हैं :-
विनिवृत्तकामाः -
परम अव्ययं पद की ओर अग्रसर होने के लिए हर प्रकार की सांसारिक कामना से विनिवृत्त होना अति आवश्यक है.विनिवृत्त कामना का भोग करने से नही हुआ जा सकता बल्कि इससे कामना और भी भड़क उठती है.छोटी कामना का शमन उससे बड़ी,अच्छी और प्रबल कामना को अर्जित करके किया जा सकता है.सत् चित आनन्द को पाने की कामना जब सर्वोच्च हो अत्यंत प्रबल हो जाती है तो चित्त में सांसारिक कामनाओं का वेग व प्रभाव स्वयमेव ही घटने लगता है.इसलिए विनिवृत्तकामाः होने के लिए पदम अव्ययं पद के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए उसी को पाने की निरंतर कामना करते रहना होगा.
श्लोक में कहा गया है 'गच्छन्ति + अमूढाः पदम् अव्ययं तत्' यानि 'अमूढ़' ही कभी क्षीण न होने वाले उस
अव्यय पद की ओर जाते हैं'.
श्रीमद्भगवतगीता में 'मूढ़ता' की विभिन्न स्थितियों का जिक्र हुआ है.जैसे कि
'विमूढ' - जिसमें विवेकशक्ति लगभग शून्य हो.
'मूढ़' - जो थोड़ी बहुत विवेक शक्ति रखता हो, परन्तु जो अपनी मूढता को पहचानने में असमर्थ हो.
'सम्मूढ' - जो मूढ़ तो हो परन्तु अपनी मूढता का आत्मावलोकन कर सके.
जैसा कि अर्जुन ने भगवान कृष्ण की शरण में आने से पूर्व 'कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः, पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः' कहकर किया.अर्जुन ने अपना आत्मावलोकन करने के पश्चात स्वीकार किया कि वह कायरतारूपी दोष से ग्रसित है और धर्म को न जानते हुए 'सम्मूढ' ही है,इसलिए वह भगवान कृष्ण से 'श्रेष्ठ और निश्चित (Permanent)कल्याणकारी' मार्ग बतलाने की याचना करता है.
अमूढ़ - जिसकी मूढ़ता सर्वथा समाप्त हो गई है.यानि जो विवेक शक्ति से संपन्न हो जीवन के परम
लक्ष्य को और उस ओर जाने के साधन को भलीभाँति जानता है.
हनुमान जी की भक्ति से हम विमूढ़ से मूढ़ , मूढ़ से 'सम्मूढ' और 'सम्मूढ' से 'अमूढ़ ' होकर 'गच्छ्न्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्' यानि जीवन के परम लक्ष्य की ओर जाने का सच्चा और सार्थक प्रयास कर सकते हैं. याद रहे अर्जुन ने भी अपने रथ पर कपिध्वज को ही धारण किया था,जिस कारण वह श्रीमद्भगवद्गीता रुपी दुर्लभ अमृत ज्ञान का रसपान कर सका.
निर्मान,अमोहा, जित्संग दोषा,अध्यात्म नित्या की व्याख्या हमने 'हनुमान लीला भाग-५' में की थी.सुधिजन चाहें तो हनुमान लीला भाग-५ का पुनरावलोकन कर सकते हैं. यहाँ मैं इतना स्पष्ट करना चाहूँगा 'निर्मान' होना अपने को ही मान देने की प्रवृति से सर्वथा मुक्त हो जाना है. क्यूंकि जब हम स्वयं को कोई मान देते हैं और दुसरे उस मान को अनदेखा कर कोई मान नही देते हैं या उससे कम मान देते हैं तो हम 'अपमानित' महसूस कर सकते हैं और हममें क्रोध या 'Inferiority complex' का संचार हो जाता है.इसी प्रकार यदि हमारे स्वयं के दिए हुए मान से दुसरे हमें अधिक मान देते हैं तो हम अपने को 'सम्मानित' महसूस कर सकते हैं जिससे हममें 'अहंकार' या 'Superiority complex' का संचार हो जाता है. Inferiority या Superiority complex दोनों ही अध्यात्म पथ में बाधक हैं. परम श्रद्धेय हनुमान जी ने लंका में विभीषण से मित्रता करते वक़्त उनके साधू लक्षण को पहचानते हुए 'एही सन हठ करिहऊँ पहिचानी' के principle का अवलंबन किया और 'Superiority complex' का सर्वथा त्याग करते हुए कहा 'कहहु कवन मैं परम कुलीना,कपि चंचल सबहीं बिधि हीना'. इसी प्रकार राक्षसों द्वारा बाँधे जाने,लात घूंसे खाते घसीट कर ले जाते हुए भी उन्होंने 'Inferiority complex' का सर्वथा त्याग करके मन बुद्धि को अपने रामदूत होने के कर्म को करने में यानि 'रावण से मिलने व उसको रामजी का सन्देश देने ' के लक्ष्य पर ही केंद्रित किये रखा.
आईये अब उपरोक्त श्लोक में वर्णित शेष तीन साधनाओं ( विनिवृत्तकामाः, द्वन्द्वैर्विमुक्ताः, सुखदु:खसंज्ञैर ) की व्याख्या करने की कोशिश करते हैं :-
विनिवृत्तकामाः -
परम अव्ययं पद की ओर अग्रसर होने के लिए हर प्रकार की सांसारिक कामना से विनिवृत्त होना अति आवश्यक है.विनिवृत्त कामना का भोग करने से नही हुआ जा सकता बल्कि इससे कामना और भी भड़क उठती है.छोटी कामना का शमन उससे बड़ी,अच्छी और प्रबल कामना को अर्जित करके किया जा सकता है.सत् चित आनन्द को पाने की कामना जब सर्वोच्च हो अत्यंत प्रबल हो जाती है तो चित्त में सांसारिक कामनाओं का वेग व प्रभाव स्वयमेव ही घटने लगता है.इसलिए विनिवृत्तकामाः होने के लिए पदम अव्ययं पद के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए उसी को पाने की निरंतर कामना करते रहना होगा.
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः -
हृदय में द्वन्द की स्थिति से मुक्ति पाना अत्यंत आवश्यक है.जब यह करूँ यह न करूँ की स्थिति होती है तो लक्ष्य की ओर अग्रसर होना बहुत ही मुश्किल होता है.इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है 'व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह' यानि असली व्ययसाय करने वाली बुद्धि एक ही होती है,जो कि निश्चयात्मक कहलाती है.बुद्धि का असली व्यवसाय है सद विचार करना , सत्-चित-आनन्द का सैदेव चिंतन करना.Temporary या क्षणिक आनन्द का चिंतन बुद्धि को अव्यवसायी बना देता है. क्यूंकि Temporary आनन्द अनेक और अनंत हो सकते है,जिससे हृदय में द्वन्द की स्थिति पैदा हो जाती है.परन्तु Permanent आनन्द केवल एक ही होता है,जिसे सत्-चित आनन्द के नाम से जाना जाता है.हर चिंतन कर्म में जब सत्-चित-आनन्द की प्राप्ति का ध्येय रह जाता है तो द्वंदों से मुक्ति मिलना आसान होता जाता है.
सुखदु:खसंज्ञैर -
जीवन में सुख दुःख की स्थिति कभी भी एक सी नही रहती.जब सब कुछ मन के अनुकूल होता है तो सुख का
अनुभव होता है और जब भी कुछ मन के प्रतिकूल होता है तो दुःख का अनुभव होता है. अमूढ़ अपने मन की स्थिति को समझ कर मन में परिवर्तन आसानी से कर लेता है. वह मन की प्रतिकूलता को अपने सद-चिंतन से अनुकूलता में परिवर्तित करना जानता है.सुख में वह प्रमादित नही होता और दुःख में भी वह परमात्मा की किसी छिपी सीख का ही अनुभव करता हुआ सुख का ही अनुभव करता है. इस प्रकार परम अव्ययं पद की यात्रा अमूढ होकर सुख दुःख का संग लेते हुए धैर्यपूर्वक करनी होती है.
जैसा की उपरोक्त श्लोक में बताया गया है उपरोक्त सभी साधनाओं में असीम बल,व्यवसायात्मिका बुद्धि,सद विद्या की प्राप्ति और समस्त कलेशों का हरण होते रहने की परम आवश्यकता है.हनुमान लीला भाग-१,
हनुमान लीला भाग-२ ,हनुमान लीला भाग-३, हनुमान लीला भाग-४, हनुमान लीला भाग-५ और इस पोस्ट के माध्यम से मैं हनुमान जी का ध्यान करते हुए यही प्रार्थना करता हूँ कि वे हम सब को 'अमूढ़' बनाकर हम में वांछित बल,बुद्धि,विद्या प्रदान कर हमारे समस्त क्लेशों का हरण कर हमें पदम् अव्ययं पद यानि राम,पूर्णानन्द की प्राप्ति की ओर अग्रसर करें.क्योंकि हनुमान जी के लिए कुछ भी दुर्लभ नही है.
दुर्गम काज जगत के जेते ,सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते
राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे
आशा है हम सब जप यज्ञ और प्राणायाम का आश्रय लेकर हनुमान जी का दामन सदा ही थामें रखेंगें.
jai Hanumaan
जय श्री राम
Jai Shri Ram
जय हनुमान
जय हनुमान
आपके ब्लॉग पर आकर बहुत खुशी हुई जब एक नवीन पोस्ट पढने को मिली । वह भी आप के अपने विषय पर जिसमें आपकी पहुँच बहुत ही ऊँची है ।
ReplyDeleteहनुमान जी हम बुध्दी हीनों को बुध्दी प्रदान करें और हमारा सही लक्ष हमारे ध्यान में आ जाये ।
कामना में संयम रखना या रामप्राप्ति की ही कामना रखना यह एकदम से संभव तो नही होगा यह जग तो अनेक रंगबिरंगी वस्तुओं से भरा पडा है । हर बार कामना जागृत होते ही सोचना होगा कि यह तो तुच्छ कामना है और मुझे तो सबसे बडी कामना राम के प्राप्ति की करनी है ऐसा बार बार हर बार स्वयं को चेताना होगा । करते करते ही कामना के जाल से छुटकारा मिल सकता है ।
सुन्दर प्रस्तुति बधाई .उत्तर प्रदेश सरकार राजनीति छोड़ जमीनी हकीकत से जुड़े
ReplyDeleteबहुत कुछ सीखने को मिल रहा है आपके माध्यम से। हार्दिक आभार!
ReplyDeleteदुर्गम काज जगत के जेते ,सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते
ReplyDeleteसारगर्भित जानकारियां देती पोस्ट ....
पहली बार मूढ़ से संबंधित इतना गहरा ज्ञान प्राप्त हुआ है, हम तो सभी हैं। हमें सर्वाधिक आवश्यकता है, बजरंगबली की कृपा की।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया राकेश जी |
ReplyDeleteसादर प्रणाम ||
आभार आपका ||
मूढ़ता के कई रूप पढ़ने को मिले...बहुत ज्ञानवर्धक पोस्ट है|
ReplyDeleteपवनसुत हनुमान की जय!!
भक्ति, शक्ति, विनय, निष्ठा, कर्म की प्रतिमूर्ति बजरंग बली को बारम्बार प्रणाम|
ReplyDeleteLearnt a lot, will practice it and thanks for sharing Sir.
ReplyDeleteपोस्ट पढकर कई नई जानकारी,,,,ज्ञानवर्धक उत्कृष्ट प्रस्तुति,,,,
ReplyDeleteRECECNT POST: हम देख न सके,,,
सुन्दर ....व्याख्या .... भक्त शिरोमणि बजरंग बली की भक्ति के गुणानुशीलन मार्ग पर --
ReplyDeleteजे बूढ़े सो तर लिए,
तरे निबिड पाषाण |
बजरंग बली की जय।आपका पोस्टमहाबीर जी के बारे में बहुत अच्छी जानकारी देता है। मेरे नए पोस्ट 'बहती गंगा' पर आप सादर आमंत्रित हैं।
ReplyDeleteजय जय श्री हनुमान ! बहुत सुन्दर प्रस्तुति .बधाई
ReplyDeleteक्यूंकि Temporary आनन्द अनेक और अनंत हो सकते है,जिससे हृदय में द्वन्द की स्थिति पैदा हो जाती है.परन्तु Permanent आनन्द केवल एक ही होता है,जिसे सत्-चित आनन्द के नाम से जाना जाता है.
ReplyDeleteसत्य विवेचन!!
बहुत अच्छी लगी विमूढ़ से अमूढ़ तक की यात्रा ....!!आपका आलेख पढ़ कर ...समझ कर,ग्रहण करने वाला होता है,अभी दो बार अलग अलग समय मे पढ़ पायी हूँ ..इस वजह से देर हुई टिप्पणी देने मे ...!!
ReplyDeleteआभार इस आलेख के लिए ...राकेश जी ...!!
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteaap yun hi gyaan ras baantte rahein - ham ise paa kar dhanya hote rahenge | aabhaar bhaiya is post ke liye :)
ReplyDeleteshilpa
पोस्ट पर थोड़ी देर से पहुँची हूँ इस के लिए क्षमा चाहती हूँ.
ReplyDelete...
हनुमान चालीसा के इन श्लोकों की व्याख्या पढ़ कर मन आनंदित हुआ .ज्ञान वर्धन भी हुआ.
सच ही है कि मानव श्रेष्ट वही है जो किसी भी तरह के ' काम्प्लेक्स' से स्वयं को दूर रख सके.
लेकिन ऐसा एक आम इंसान कहाँ कर पाता है.उसे तो तनिक प्रशंसा सम्मानित और तनिक निंदा अपमानित महसूस कराती है .
धर्म तो राह दिखाता है परंतु हम अज्ञानी आँखें जानबूझकर बंद किये रहते हैं.विमूढ़ सदृश.
..
बड़े ही श्रम से लिखा लेख है.
सार्थक लेखन हेतु बधाई.
समस्त बाधाओं के बाद भी निरंतर प्रयासरत रहकर कैसे लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है,इसकी शिक्षा हनुमान जी का चरित्र देता है.अभावों की शिकायत में न उलझकर ,जो भी साधन हैं उन्हें ही लक्ष्य प्राप्ति के लिए किस प्रकार उपयोग में लाया जाय ,इसका विवरण हनुमान कथाओं में मिलता है.कैरियर काउन्सल्लिंग,व मैनेजमेंट से सम्बंधित क्षेत्रों में काम करने वालों के लिए पवनपुत्र से बढ़कर कोई गुरु नहीं.......... बहुत ही रोचक लेख होते हैं आपके आनंद और ख़ुशी दोनों ही प्राप्त हो जाती है.
ReplyDeleteजीवन में सुख दुःख की स्थिति कभी भी एक सी नही रहती.जब सब कुछ मन के अनुकूल होता है तो सुख का
ReplyDeleteअनुभव होता है और जब भी कुछ मन के प्रतिकूल होता है तो दुःख का अनुभव होता है. सही बात ...बहुत अच्छे से विस्तारपूर्ण वर्णन किया है ...राकेश जी आपने हनुमान
जी के लीला का ..मै बचपन से ही पाठ करती हूँ हनुमान चालीसा का बहुत शक्ति और साह्स मिलता है इससे ....धन्यवाद और आभार
बढिया एवं संग्रहणीय लेख
ReplyDeleteजय जय जय हनुमान गोसाईं,कृपा करो गुरुदेव की नाहीं
''कृतार्थोनेन ज्ञानेनेत्येवं गलितधी : कृति ''
ReplyDeleteअर्थात आपसे ज्ञान प्राप्त कर मैं कृतार्थ हुई . आभार .
ज्ञान मिला पावन हुआ,मन से गया विकार
ReplyDeleteनमन हमारा मित्रवर,कर लीजे स्वीकार ||
राकेश जी यहाँ आकर अच्छा लगा
ReplyDeleteहनुमान तुम्हारे कण कण में समाये हैं श्रीराम
भज लें तुमको भक्त गन तो पा जाएँ सिया राम
राम भक्त को प्यारा है नाम तुम्हारा हे हनुमान
जपते जपते बीते गर मानव जीवन बने महान............पूनम
बहुत बढिया एवं संग्रहणीय लेख..
ReplyDeleteits such a nice blog to provides info
ReplyDeletehope more people discover your blog because you really know what you’re talking about. Can’t wait to read more from you!
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हनुमन्लीला के माध्यम से आध्यात्मिक तत्वों की व्याख्या शांति प्रदायक लगी।
ReplyDeleteआपका कार्य पुस्तक रूप में आना चाहिए भाई जी ...
ReplyDeleteशुभकामनायें !
मूढ़ से अमूढ़ बनाने की दुष्कर क्रिया को हनुमान जी सहज कर देते हैं ... बहुत सुंदर व्याख्या ... इस पोस्ट के लिए आभार
ReplyDeleteआनन्द केवल एक ही होता है,जिसे सत्-चित आनन्द के नाम से जाना जाता है.हर चिंतन कर्म में जब सत्-चित-आनन्द की प्राप्ति का ध्येय रह जाता है तो द्वंदों से मुक्ति मिलना आसान होता जाता है.
ReplyDeleteराकेश जी, देर से आने के लिए खेद है, आपकी पोस्ट सरस है, ज्ञान से ओतप्रोत है, साधक के लिए तो अत्यंत उपयोगी है..मूढ़ता से दूर ले जाने वाली है..आभार!
जीवन में सुख दुःख की स्थिति कभी भी एक सी नही रहती.जब सब कुछ मन के अनुकूल होता है तो सुख का
ReplyDeleteअनुभव होता है और जब भी कुछ मन के प्रतिकूल होता है तो दुःख का अनुभव होता है. अमूढ़ अपने मन की स्थिति को समझ कर मन में परिवर्तन आसानी से कर लेता है. वह मन की प्रतिकूलता को अपने सद-चिंतन से अनुकूलता में परिवर्तित करना जानता है.सुख में वह प्रमादित नही होता और दुःख में भी वह परमात्मा की किसी छिपी सीख का ही अनुभव करता हुआ सुख का ही अनुभव करता है. इस प्रकार परम अव्ययं पद की यात्रा अमूढ होकर सुख दुःख का संग लेते हुए धैर्यपूर्वक करनी होती है.
आपकी ये चंद पंक्तियों ने जीवन का सार सीखा दिया बहुत खूबसूरत विश्लेषण बेहद खूबसूरत पोस्ट जय श्री राम क्युकी मैंने सुना है हनुमान जी राम जी के भगत से बहुत प्रसन्न रहते हैं | :)
bahut prashnshneey sir...
ReplyDeletepadhkar kafi kuchh sikha kuch samjh aaya kuchh rah gaya shayd umr ka dosh hai..
blog jagt mein itna vyst rahte huye bhi aap hausalahafjai ke liye comments dete hain,,aapka abhar..
पवन-सुत की भक्ति पद्धति का गूढ़ विवेचन -साधु !
ReplyDeleteI am sorry Rakeshji for missing out on this post, was offline for a week due to some technical fault of pc. Thank you for the intimation.
ReplyDeleteVery insightful points, felt very humble on reading them. So many times, we give ourselves a position and if the other person does not behave according to our self accorded position, we get hurt and this comes in our way of spiritual progress. How true this and something to ponder on thoughtfully. Thank you for yet another wonderful presentation Rakeshji, will wait for your next blogpost.
"बुद्धिहीन तनु जानकर, सुमिरौं पवन कुमार
ReplyDeleteबल बुधि बिद्या देहु मोहिं,हरहु कलेस बिकार "
पतित पावनी गंगा सा आपका ब्लॉग...!!
भटकते हुए भो कोई आये तो बहुत कुछ प् के जाता है यहाँ से...!
आपका मेरे ब्लॉग पे आना मेरे लिए सौभाग्य की बात है...और उस पर आपका अपनापन...!
आपका याद दिलाना हमें कि हम कहाँ भटक गए हैं...धन्यवाद आपको और आपका आशीर्वाद बना रहे..यूँ ही....!!
BADHIYA lEELA
ReplyDeleteबहुत सुंदर व्याख्या ......सार्थक चिन्तन........ आभार!!
ReplyDeleteसुन्दर व्याख्याएं. आंजनेय आपको पदमव्ययं प्राप्ति में सहायक हों.
ReplyDeleteहनुमान लीला की आपकी श्रृंखला बहुत बढ़िया चल रही है!
ReplyDeleteपूर्ण होने पर इसकी पुस्तक प्रकाशित करवाइएगा!
हनुमान जी के चरित्र पर इतनी सुन्दर व्याख्या पढ़ कर बहुत सुखद लगी। इसको अब निरंतर पढ़ती रहूंगी . इस कार्य के लिए आप बधाई के पत्र है।
ReplyDelete--
ReplyDeleteबुद्धिहीन तनु जानकर, सुमिरौं पवन कुमार
बल बुधि बिद्या देहु मोहिं,हरहु कलेस बिकार .......बल -बुद्धि ............
श्रीमद्भगवतगीता में 'मूढ़ता' की विभिन्न स्थितियों का जिक्र हुआ है.जैसे कि
'विमूढ' - जिसमें विवेकशक्ति लगभग शून्य हो.
'मूढ़' - जो थोड़ी बहुत विवेक शक्ति रखता हो, परन्तु जो अपनी मूढता को पहचानने में असमर्थ हो.
'सम्मूढ' - जो मूढ़ तो हो परन्तु अपनी मूढता का आत्मावलोकन कर सके.
हनुमान जी की भक्ति से हम विमूढ़ से मूढ़ , मूढ़ से 'सम्मूढ' और 'सम्मूढ' से 'अमूढ़ ' होकर 'गच्छ्न्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्' यानि जीवन के परम लक्ष्य
की ओर जाने का सच्चा और सार्थक प्रयास कर सकते हैं. याद रहे अर्जुन ने भी अपने रथ पर कपिध्वज को ही धारण किया था,जिस कारण वह
श्रीमद्भगवद्गीता रुपी दुर्लभ अमृत ज्ञान का रसपान कर सका
. क्यूंकि जब हम स्वयं को कोई मान देते हैं और दुसरे>>>>>>>(दूसरे .......) उस मान को अनदेखा कर कोई मान नही देते हैं या उससे कम मान देते हैं तो
हम 'अपमानित' महसूस कर सकते हैं और हममें क्रोध या 'Inferiority complex' का संचार हो जाता है.इसी प्रकार यदि हमारे स्वयं के दिए हुए मान से
दुसरे।।।।।।।।।(दूसरे .......) हमें अधिक मान देते हैं तो हम अपने को 'सम्मानित' महसूस कर सकते
हृदय में द्वन्द।।।।।।।(द्वंद्व )..... की स्थिति से मुक्ति पाना अत्यंत आवश्यक है।।।।।द्वंद्व ........
भाई साहब इस दौर में जब आदमी मूढ़ होकर भी खुद को मूढ़धन्य(मूर्धन्य )मान लेता हो हनुमान का स्मरण कितना ज़रूरी है .बहुत बढ़िया व्याख्या
आपने मूढों की किस्में बखान करने में की है .
अ-मूढ़ शब्द हमारे शब्द कोष में जोड़ा है .
हम तो बुद्ध और निर्बुद्ध तक ही सीमित थे .
Inferiority Complex को आप हीनत्व कह लीजिए ,हीन भावना कह लीजिए .
Superiority Complex को आप श्रेष्ठता बोध कह लीजिए .
भगवानजी के आगे अंग्रेजी बोलना क्या ठीक लगता है .भगवान जी क्या सोचेंगे ? आपका मान सदैव हनू बना रहे ,उच्चत्व को प्राप्त होवें आप .
वीरू भाई विस्तृत टिपण्णी के लिए आभार.
Deleteभाव अच्छे और सच्चे हों तो भगवान जी को सब
प्रिय हैं,फिर भाषा चाहे हिंदी हो,अंग्रेजी हो या कोई और.
उन्हें कुछ नही फर्क पड़ने वाला जी.
आपने जो जानकारी दी उसके लिए हार्दिक आभार.
कई दफा हिंदी पर्यायवाची शब्द भी मष्तिष्क में कौंध नही पाते हैं.
बहुत बढिया एवं संग्रहणीय .
ReplyDeleteaadarniy sir
ReplyDeletesadar naman
aaj subah -subah sabse pahle aapka hi blog dekha aur de khiye na bhor ka samay aur hanumaan ji ka manan bhi ho gaya. sanyog se din bhi sanivaar yaani hanumaan ji ka din .bahut dino baad shuruaat hanumaan ji ke saath.
sach me bahut bahut hi achha laga padh kar.main bhi bahut dino baame kabhi- kabhi hi aa paati hun hun.karan aap sabhi jante hi hain.dekhte hain ki bhagvaan bhi kab tak meri parikxha lete hain.sheh fir------
mere swasthy ki kamna karne ke liye aapko punah------
sadar naman ke saath
poonam
aadarniy sir
ReplyDeletesadar naman
aaj subah -subah sabse pahle aapka hi blog dekha aur de khiye na bhor ka samay aur hanumaan ji ka manan bhi ho gaya. sanyog se din bhi sanivaar yaani hanumaan ji ka din .bahut dino baad shuruaat hanumaan ji ke saath.
sach me bahut bahut hi achha laga padh kar.main bhi bahut dino baame kabhi- kabhi hi aa paati hun hun.karan aap sabhi jante hi hain.dekhte hain ki bhagvaan bhi kab tak meri parikxha lete hain.sheh fir------
mere swasthy ki kamna karne ke liye aapko punah------
sadar naman ke saath
poonam
बहुत सुन्दर व्याख्या
ReplyDeleteबढ़िया विश्लेषण किया है सार्थक लगा पढ़कर !
ReplyDeleteआगे से नियमित आने की कोशिश रहेगी ...आभार !
बहुत गहन और सार्थक विश्लेषण..सदैव की तरह ज्ञान की अनवरत गंगा..आभार
ReplyDeleteआपकी पोस्ट पर आकर आध्यात्म के विषय में काफी कुछ जाने और सीखने को मिल जाता है आभार
ReplyDeleteदुर्गम काज जगत के जेते ,सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते
ReplyDeleteराम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे
जय महावीर जी कहना पड़ेगा। मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है।
धन्य हुई आपकी पोस्ट पढ़ कर... सच इस से मन मे एक शक्ति का संचार हुआ ... अपनी नेकी की राह पर चलते रहने की सीख और अपनी दिशा से न भटकने की सदबुद्धि और अपने को राक्षसी ताकतों के आगे हारा और हीनभावना से बचाता हुआ एक ज्ञान का सागर लगा ... एक एक पंक्ति से मुझे अपने अच्छे लक्ष्य की ओर अग्रसारित होने की सीख मिली ... जर्रोर भगवान् मेरी और हमारी मूढ़मति को हर हमें कल्याण की राह पर पदमव्ययं पहुचाएंगे ......... सच आजकल मैंने जिंदगी के कुछ कडुवे अनुभव देखे जिसमे राक्षसी ताकतों ने मुझे बहुत हीनभावना से ग्रसित करना चाहा ... मैंने उनका फिर भी कोई नुक्सान नहीं किया ... हां मैंने खुद को उस जगह से हटा दिया ... मै जानती हूँ .. हम साफ़ है तो प्रभु का साथ है... और एक दिन हम सफल होंगे .. लेकिन असली ख़ुशी सद चित्त आनंद मेरा सदा ध्येय रहेगा ... भगवान् राम, प्रभु हनुमान, माँ भवानी के चरणों मे मेरा वंदन ... नवरात्रि पर शुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत ही उत्तम और सार्थक विश्लेषण.....आभार
ReplyDeleteकितनी सुन्दर और गहन व्याख्या की है आपने ……मै तो अभिभूत हो गयी………कुछ कहने को बचा ही नहीं सब कुछ आपने बयान कर दिया …………आप पर प्रभु की असीम कृपा है जो आपने इतने गहन भेदों को खोला है………हार्दिक आभारी हूँ आपने हमारा भी मार्गदर्शन किया।
ReplyDeleteराम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे .... बहुत अच्छा लगा
ReplyDeleteधन्यवाद राकेश जी मेरी अनुपस्थिति से आप परेशां हुए ....क्या हुआ की मेरा मदर बोर्ड खराब हुआ जो ग्यारेयन्ट्री में था ...उसे हास्पिटल से वापस आने मैं एक महिना लग गया ...अब वो भला चंगा है ..आपकी दुआ से ..धन्यवाद ! जल्दी ही सबकुछ नार्मल हो जायेगा ...
ReplyDeleteश्रीगुरु चरन सरोज रज निज मन मुकरु सुधारि।
ReplyDeleteवरनऊँ रघुवर बिमल यश जो दायक फल चारि।।
बुद्धिहीन तनु जानिके,सुमिरौ पवन कुमार।
बल वुधि बिद्या देहु मोहिं,हरहु कलेस विकार।।
मै तो हनुमान जी के नाम को हृदय में रखते हुये सभी को सभी ब्लागर्स व विजिटरों को सादर जय श्री राम जी।
सच में हनुमान जी के चरणों में समर्पित होने से बहुत से फायदे हैं।चिन्ता मिट जाती हैं।
आप भी जानते है कि ब्लागर घुमंतु होता है सो अपने घुमंतु स्वभाव के कारण घूमत-2 आपके ब्लाग पर चला आया तो आपके ब्लाग पर आकर दृ्ष्टि जम गयी आप जैसे प्रभु भक्त से मुलाकात हो गयी। आपने आध्यात्म का सच्चा ज्ञान प्रस्तुत किया है सच जाने की इच्छा नही हो रही किन्तु स्वभाव की मजबूरी है और परिवर्तन बहुत जरुरी है सो आपको तथा अन्य ब्लागर बंधुओं को अपने ब्लागों पर आने का आमंत्रण देने के साथ ही सादर जय श्री राम जय जय हनुमान http://ayurvedlight.blogspot.in व http://ayurvedlight1.blogspot.in तथा http://rastradharm.blogspot.in
बहुत खुबसूरत .
ReplyDeleteसार्थक रचना
बहुत समय बाद आना हुआ...बहुत अच्छा लगा...कैसे हैं आप?
ReplyDeleteआदरणीय गुरु जी नमस्ते .. सुन्दर और गहन व्याख्या....आपसे बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है .....अब आगे मै अज्ञानी क्या कहूँ.....
ReplyDeleteप्रिय राकेश जी,
ReplyDeleteमैं आपके ब्लॉग "मनसा वाचा कर्मणा" का नियमित पाठक हूँ. आपने भी शायद मेरा ब्लॉग "धर्मसंसार" पढ़ा होगा. ये पहली बार मैं आपसे संपर्क कर रहा हूँ कारण कि मैंने भीष्म और अम्बा पर आधारित "स्वयंवर" नामक एक उपन्यास लिखा है जिसे डायमंड बुक्स ने छापा है. चूँकि धार्मिक और पौराणिक विषयों पर आपकी पकड़ बहुत अच्छी है इसीलिए मेरी ये इच्छा थी कि मेरा उपन्यास पढ़ कर अपनी राय दें. अगर ये उपन्यास आपको पसंद आता है तो मैं चाहूँगा कि आप अपने ब्लॉग पर उस पुस्तक की समीक्षा लिखें. इसके लिए मैं आपका आभारी रहूँगा. अगर आप इसपर पर सहमत हों तो मुझे संपर्क कर सकते हैं. मैं एक पुस्तक आपके पते पर भिजवा दूंगा.
धन्यवाद
नीलाभ वर्मा
9958574758
आदरणीय श्रीमान राकेश कुमारजी| गहन भाव अभिव्यक्त हुए है इस आलेख में| मूढ़ता को दूर करनेवाली आपकी महान प्रस्तुतियों के लिए सादर प्रणाम बारम्बार| :)
ReplyDeleteबहुत अच्छी जानकारी उपलब्ध कराई है आपने ! बहुत बहुत आभार !
ReplyDeleteमेरी पोस्ट - नैतिकता और अपराध के लिए मेरे ब्लॉग पर आये